महाभारत के युद्ध का नौवां दिन। भीष्म दुर्योधन के व्यंग्य बाणोंं से त्रस्त हैं, पांडवों को लेकर पक्षपाती होने के आरोपों से परेशान हो सामने की सेना का विध्वंस कर देते हैं। प्रतिज्ञा की है कि पांडवों में से किसी का वध नहीं करेंगे। वे कौरवों के सेनापति हैं। अब उनके पास यही एक युक्ति बची है कि पांडवों की पूरी सेना का विनाश कर उन्हें बंदी बना लिया जाए।

नौ दिनों तक यह युद्ध किसी ओर जाता हुआ नहीं दिख रहा है। दोनों पक्षों की तरफ अपनी प्रतिज्ञा को निभाते हुए युद्ध खत्म करने का जो तरीका भीष्म पितामह ने चुना है वह कृष्ण की धर्म की पुनर्स्थापना की राह में बाधा है। कुरुक्षेत्र में गीता के उपदेश के बाद भीष्म पितामह की मृत्यु वह दूसरी घटना है जो जन्म और कर्म के सिद्धांत को प्रतिपादित करती है। महासंग्राम में यह पहली मृत्यु है जो छल से होती है जिसके लिए शिखंडी को लाया जाता है। यह मृत्यु अंबा का प्रतिशोध, उसकी तपस्या के फलस्वरूप शिव के वरदान और शिखंडी के विशेष रूप में जन्म को सार्थक करने के लिए है।

कुरुक्षेत्र में उतरते हुए कृष्ण धर्म की पुनर्स्थापना की शपथ तो लेते हैं पर इसमें सबसे बड़ी बाधा के रूप में भीष्म नजर आते हैं। उन्हें लगता है कि वे युद्ध को अपने अनुसार दिशा दे सकते हैं। युद्ध को रोकना उनके वश में नहीं था तो दोनों पक्षों के उनके अपनों का रक्तपात कम हो, पांडवों का वध न हो यही कोशिश करते हैं। इच्छामृत्यु के वरदान से लैस भीष्म को लगा कि वे कुरुक्षेत्र में भी मृत्यु को नियंत्रित कर सकते हैं। अपने अहंकार में कृष्ण को भी ललकार बैठते हैं और कहते हैं कि वासुदेव, आप मेरा वध नहीं कर सकते। इसी अहंकार के कारण भीष्म अर्जुन के बाद वो दूसरे नायक हैं जिन्हें कृष्ण उनके अस्तित्व का उपदेश दे अपना विराट रूप दिखाने के लिए चुनते हैं। कृष्ण भीष्म को कहते हैं कि मैं किसी भी वरदान, शाप या प्रतिज्ञा को मिथ्या साबित कर सकता हूं। आपका वध तो मैं रथ के पहिये से भी कर सकता हूं।

कृष्ण जब अपने रौद्र रूप में भीष्म का वध करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो अर्जुन उन्हें रोकते हैं कि यह अधर्म होगा। कृष्ण फैसला दे चुके थे कि भीष्म पितामह के मैदान से हटे बिना पांडव युद्ध नहीं जीत सकते हैं। भीष्म भी अर्जुन की तरह ‘मैं’ से ग्रसित थे जिस कारण कृष्ण को उन्हें उनकी तुच्छता का अहसास करवाना पड़ा। उनका भीष्म से यह कहना कि आपका यह सोचना अज्ञान ही है कि आपके हाथों में ही हस्तिनापुर की सुरक्षा है। हस्तिनापुर की सुरक्षा की तो बात दूर आपके वश में न तो आपका जन्म है और न ही मृत्यु। अब भीष्म नतमस्तक होकर भगवान से माफी मांगते हैं। वे खुद ही रास्ता बताते हैं कि मेरी मृत्यु का कारण बन अंबा का ही उद्धार होने दीजिए जो शिखंडी के रूप में जन्म ले चुकी है।

भीष्म वो नायक हैं जो सबसे बड़े अनिर्णय की स्थिति में हैं। युवावस्था में ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया जो उनके पूरे चरित्र को अनिश्चितता का शिकार बना देता है। वे मानते हैं कि हस्तिनापुर की गद्दी पर पांडवों का वैधानिक अधिकार है लेकिन इस वैधानिकता की स्थापना के लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ हैं। उनके अनुसार पांडव धर्म की ओर हैं, लेकिन वे सेनापति बनते हैं अधर्म के पक्षवालों के। युद्ध का शंखनाद ही शत्रु का वध कर वीरता के प्रदर्शन के लिए होता है। कुरुक्षेत्र में भीष्म के खाते में किसी महान योद्धा का वध नहीं है। वे कौरवों और पांडवों दोनों पक्ष के लिए की गई अपनी प्रतिज्ञा के चक्रव्यूह में फंसे हुए थे।

महाभारत जैसे महाख्यान का उद्देश्य धर्म की पुनर्स्थापना से था, जिसके आड़े आ रही थी भीष्म-प्रतिज्ञा। एक खास समय में लिया गया प्रण समय के आगे बढ़ने के साथ ही भीष्म के अस्तित्व के लिए बंधक बनता जा रहा था। हस्तिनापुर की कुलवधु का चीरहरण हो रहा था लेकिन पितामह अपनी प्रतिज्ञा के कारण तटस्थ रहे। सवाल था कि वृहत्तर धर्म बड़ा या निज की प्रतिज्ञा बड़ी। अगर वचन बड़ा है तो महाभारत में अंत तक भी उन्हें कोई अपराधी की नजर से नहीं देख रहा है।

महाभारत में मनुष्य की पहचान की खोज का भी संघर्ष दिखता है। गंगापुत्र देवव्रत अपनी पहचान के विस्तार को रोकने के लिए भीषण प्रतिज्ञा करते हैं। महाभारत के मूल में वंशवृद्धि है जिसका उद्देश्य ही है अपनी पहचान को आगे कर के देखना। इसी वंश के लिए पूरी महाभारत हो जाती है। इससे ठीक उलट चरित्र हो जाता है भीष्म का, जिनका पूरा प्रण ही अपने स्व को खत्म करने का आधार बनता है। वे अपनी पहचान को ही सीमित और प्रतिबंधित करने का प्रण कर बैठते हैं। इस कारण उनके चरित्र का जो निर्माण हो रहा है उसे उतनी सरलता से नहीं आंका जा सकता है। उनके पैर एक साथ दो नावों पर है-धर्म और अधर्म, जिसके कारण वे अनिर्णय के प्रतीक बन जाते हैं। उनकी आधी पहचान बंध जाती है राजगद्दी से। वो राजगद्दी जो अनेक तरह के स्व के कब्जे और दावेदारी से निर्मित है।

कुरुक्षेत्र की तरह ही जटिल है भीष्म के अंत:स्थल का युद्ध। एक तरफ महाभारत का सूत्रधार समय है तो युवा देवव्रत ने समय को ही ठहरा हुआ मान लिया था। लेकिन धर्म तो सत्यवती के साथ ठहर नहीं पाया, वो अंबा तक गतिशील रहा। सत्यवती से अंबा तक आने में धर्म की धारणा में कई बदलाव आए। लेकिन भीष्म तो शांतनु और सत्यवती के साथ ही ठहर गए थे। इसलिए वे अंबा के साथ एक वस्तु के जैसा व्यवहार करने पर मजबूर थे। वो हस्तिनापुर की अस्मिता की खातिर अंबा का हरण कर तो लाते हैं लेकिन परिस्थिति के अनुसार उसकी रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। हस्तिनापुर की रक्षा करने वाला पितृपुरुष एक स्त्री से अपनी मृत्यु का कारण बनने का शाप पाते हैं। भरे दरबार में अपमानित हो रही कुलवधू से नजरें नहीं मिला पाते हैं लेकिन कानों तक उसकी आवाज पहुंचने से रोक नहीं पाते हैं कि वे अपनी इस तटस्थता के अपराध का अंजाम भुगतेंगे। शरशैया पर द्रौपदी से इसके लिए माफी भी मांगते हैं। गांधारी से धृतराष्ट्र के बेमेल विवाह का कारण बनते हैं जिसके बाद शकुनि हस्तिनापुर का स्थायी दुश्मन बन जाता है।

धर्म और अधर्म की ध्रुवीय दूरी के बीच स्थिर हो जाने के कारण ध्रुवतारा सा चमकता किरदार अंत तक इतना धुंधला पड़ जाता है कि कृष्ण उन्हें शस्त्र त्यागने के लिए कहते हैं। उनकी प्रतिज्ञा ऐसी जंजीर बनी कि वे धर्म को लेकर अपना कोई पक्ष नहीं रख पाए। कृष्ण ने उन्हें कहा कि जो प्रतिज्ञा सर्वधर्म के रास्ते में व्यवधान खड़ा कर दे उसका हट जाना ही अच्छा है।

भीष्म की मृत्यु वह मोड़ है जहां धर्म की रक्षा करने के लिए छल को न्यायोचित ठहराया जाता है। वर्तमान का धर्म अतीत की जंजीर में जकड़ा था तो भविष्य का सृजन करने के लिए अधर्म को भी अपनाना जरूरी बताया गया। वर्तमान की पीड़ा आपकी प्रतिज्ञा की परिधि में कितनी देर तड़पती रह सकती है। उसका आवेग जब इस परिधि से बाहर जाएगा तो आपको ही पीड़ा देगा।

महाभारत में गीता की तरह अहम है भीष्म के जीवन का संदेश। यह स्व के ऊपर सामूहिकता के स्वीकार की बात करता है, जिसमें जीवन और धर्म की गतिशीलता में ही भारत का भविष्य देखा गया। एक आम नजर से देखें तो आज भीष्म का पुनर्पाठ क्यों किया जाए? क्या भीष्म पितामह को अपने धर्म का निर्वहन न करने का दोषी माना जाए या अपने कहे का मान रखने के लिए उनके नायकत्व को सुरक्षित रखा जाए? इस सवाल पर आगे की पीढ़ियां भी अपने समय और इतिहास बोध के साथ बहस करती रहेंगी।