हमारी अप्रोच अलग है। बीजेपी की एक विचारधारा है। हम उस विचारधारा के खिलाफ लड़ेंगे। हम उनको हराएंगे। हमने आज हराया है। उनको हम 2019 में भी हराएंगे। मगर हम किसी को भारत से मुक्त नहीं करना चाहते हैं। अगर लोगों की सोच हमसे अलग है तो हम उस सोच से लड़ेंगे, हम उन्हें देश से मिटाना नहीं चाहते’। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ठीक एक साल बाद 11 दिसंबर 2018 को आया राहुल गांधी का यह बयान उस लोक के प्रति कृतज्ञता मानी जानी चाहिए, जो तंत्र को लोकतंत्र बनाता है। समरसता, सद्भाव और बहुलवाद की यह भाषा उस बड़ी हार के बाद आई है जिसके बाद आप भारत के नक्शे पर क्षेत्रीय पार्टियों जैसा अस्तित्व भी नहीं रख पा रहे थे। आपको एक पूरी साख की लड़ाई लड़नी थी। आपके खिलाफ जो नकारात्मक भाव था उसकी जंग बहुत आसान नहीं थी।

लोकतंत्र एक ऐसा तंत्र है जिसमें किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। और, जिस चीज को हम क्रांति का नाम देते हैं वह है लोक की अनदेखी। हम हकीकत को अनदेखा करते हैं, जमीन को छोड़ आसमान की बात करते हैं और जो परिणाम सामने आता है उसे क्रांति कहते हैं। चुनावी जीत के बाद राहुल की जो भाषा है वह कितनी देर तक कायम रहेगी हम नहीं जानते, लेकिन हम यह जानते हैं कि एक खास समयावधि के बाद जनता आपको यह भाषा बोलने के लिए मजबूर करती है। लोकतंत्र में हमेशा सब कुछ बहुत अच्छा नहीं रहता है। लेकिन अच्छा होने की उम्मीद, उसके लिए प्रयास, और वह सुबह हमीं से आएगी वाला भाव उस भ्रम को बनाए रखने के लिए जरूरी होता है जो हकीकत में लोकतंत्र है और जो बार-बार कुचले जाने के बाद भी धूल झाड़ कर खड़ा हो जाता है।

जीत के बाद कांग्रेस अध्यक्ष की समरसता की भाषा को मध्य प्रदेश में खिले कांग्रेस के ‘कमल’ भी सुन रहे होंगे जो कहते सुने गए कि हमें जीत के लिए फलां अल्पसंख्यक समुदाय के इतने फीसद वोट चाहिए। दूसरी ओर उन लोगों ने भी आप पर वार करना शुरू कर दिया है कि अल्पसंख्यक होने के कारण हम पर हमला करने के आरोपी आप भी हैं। इस भाषा को कांग्रेस के कारवां के वे वीर जवान भी सुन रहे होंगे जिन्हें चुनाव सिर्फ धार्मिक तुष्टीकरण की जीत और हार के रूप में ही समझ आता है। इस सेमीफाइनल के बाद फाइनल के लिए आपकी भाषा भी ठीक होगी इसके लिए उम्मीदजदा होने में कोई हर्ज नहीं है।
तीन हिंदीभाषी राज्यों की बात करें तो राहुल गांधी का वह साहसिक कदम भी सराहना के दायरे में आएगा जब उन्होंने मायावती के कांग्रेस से कट्टी के एलान के बाद भी संयम रखा और अकेले चलने का फैसला किया। लोकतंत्र में पहचान की राजनीति के जो दबाव हैं राहुल ने उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ झेला। कांग्रेस और राहुल को सब यही सलाह दे रहे थे कि अलग-अलग पहचानों को तुष्ट नहीं करेंगे तो कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। इतना ही नहीं, बसपा की राजनीति से जुड़े रणनीतिकार मायावती को 2019 के प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में भी पेश करने लगे थे। कहा जा रहा था कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के बाद उत्तर प्रदेश में हाथ मिलाकर जो नक्शा बनेगा उसमें प्रधानमंत्री के तौर पर मायावती का चेहरा ही फिट बैठ सकता है। शायद इसका ही असर था कि कुछ कांग्रेसियों ने तो कहना शुरू कर दिया था कि हमारी लड़ाई 2024 के लिए है।

लेकिन इन तीन राज्यों के जनादेश के बाद पिक्चर अभी बाकी है की संवाद अदायगी करने वाले रणनीतिकार तस्वीर से ही गायब हो गए हैं। अब बदले माहौल में मायावती खुद ही एलान कर रही हैं कि वे राहुल गांधी को समर्थन देंगी। मायावती के इस एलान के साथ ही राहुल गांधी का आत्मविश्वासी चेहरा भी सामने आता है।

छविबोध वाली लड़ाई में पप्पू से प्रधानमंत्री के चेहरे तक का विकल्प। राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में 1992 के बाद मंडल बनाम कमंडल का दौर शुरू हुआ। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में नरसिंह राव और मनमोहन सिंह का चेहरा आया। गांधी परिवार का प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री दफ्तर से बाहर हो गया। इसी समय विकल्प का स्वर आया कि कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं है। विचारधारा में भी विकल्पहीनता की स्थिति देखी गई। सोनिया गांधी को विदेशी मूल के मुद्दे पर खारिज किया जा चुका था और उसके बाद राहुल गांधी की ‘पप्पू’ की छवि बनाना। वहीं से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भी आता है।
1992 के बाद कांग्रेस इतने आत्मविश्वास में कभी नहीं देखी गई थी जितनी ताजा चुनावी नतीजों के बाद दिखी। कर्नाटक में कुमारस्वामी को समर्थन देकर मुख्यमंत्री पद के बिना सरकार का हिस्सा बनना और आज तीन राज्यों में कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनना। अभी तक कहा जा रहा था कि कांग्रेस किस हैसियत से गठबंधन की अगुआई करेगी और पहचान पर हावी राजनीति वालों के साथ गठबंधन का कोई विकल्प नहीं। कांग्रेस का आत्मविश्वासी चेहरा पिक्चर अभी बाकी है वाले मोलभाव वाली पहचान की राजनीति के लिए भी सबक है अगर वे लेना चाहें तो।

हम और हमारे जैसे कई टिप्पणीकार बार-बार इन तीनों राज्यों के चुनावों को 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे और हम सबका यह आकलन सही निकला। मंदिर-मस्जिद, गंगा, गोशाला से निकाल कर रिमोट कंट्रोल जनता ने अपने पास रख लिया है। वरना जिस तरह से कांग्रेस के नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस में हाथ में गंगाजल लेकर पत्रकारों के सामने कसम खा रहे थे उससे तो यही लगता था कि इस चुनाव का भी वही हाल होगा कि जितनी चाबी भरी ‘राम’ ने उतना चले खिलौना।

इन तीनों राज्यों के परिणामों से भी लोकतंत्र की उसी तरह से वापसी हुई है जिस तरह से मई 2014 में हुई थी। भले ही यह एक राजनीतिक दल का नारा बनाया गया लेकिन जनता हमेशा अच्छे दिन के लिए ही वोट देती है। उसके अच्छे दिन अपने देश, काल, समाज, वर्ग और तत्कालीन हालात से तय होते हैं। मई 2014 भी एक सजग लोकतंत्र का चेहरा था, कांग्रेस को सबक सिखाने का, जन से दूर जाने का।

2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से पूरे देश में चुनाव ही चुनाव हैं। इसका विकल्प कौन, उसका विकल्प कौन, टीना (देयर इज नो अल्टरनेटिव) की गूंज में पूरा देश चुनावी जंग लड़ रहा था। हर एक चुनावी नतीजों के बाद नया चाणक्य और नया सिकंदर, नेपोलियन और वाटरलू आ रहा था। यूपीए के खिलाफ जो अवाम और वाम के विकल्प का चेहरा बने थे, आज उनसे ज्यादा वोट नोटा को मिले।

कुल पांच राज्यों का चुनाव राजनीतिक दलों के साथ छविबोध की राजनीति के दुकानदारों के लिए भी सबक है। उन राजनीतिक विद्वानों के लिए भी सबक है जिनका सारा आसमानी ज्ञान छत्तीसगढ़ जनसंपर्क विभाग की जमीन पर बना था। इन नतीजों के बाद उस सरकारी निवास वाले नहीं बल्कि असली ‘जनपथ’ की बात भी कांग्रेस आलाकमान के मुंह से सुनी गई जो नवउदारवादी नीतियों की आंधी में भुला दिया गया था। अब देखना है कि आत्मविश्वास लौटने के बाद राहुल राजपथ की ओर बढ़ते हुए असली जनपथ पर चलने का साहस करते हैं या नहीं। लब्बोलुआब में संदेश तो यही है कि कांग्रेस के राजपथ का रिमोट कंट्रोल ‘जनपथ’ के पास ही है।