कोरोना महामारी की दूसरी लहर में महज एक बार अस्पताल में दाखिल होने के बाद जो मध्य-वर्ग गरीबी रेखा के करीब पहुंच गया उसे वित्त मंत्री ने बजट भाषण में संदेश दिया कि नया कर नहीं लगाया, वही काफी है। निर्मला सीतारमण ने महाभारत के श्लोक के जरिए कर-संग्रहण को राजधर्म बता कर मध्य वर्ग को कर्म करो और फल की चिंता नहीं करने का गीता-ज्ञान याद दिला दिया। मध्य-वर्ग को मूर्ति-मुद्रा में छोड़ कर किसानों को आसमान की तरफ दिखा दिया कि ड्रोन से कीटनाशकों का छिड़काव करें, हालांकि किसान जमीन पर उर्वरकों के बढ़ते दाम से परेशान हैं। जीएसटी की मार ने बजट के बाद सबसे लोकप्रिय रहने वाले स्तंभ क्या सस्ता, क्या महंगा को भी अप्रासंगिक बना दिया। 2022-23 का बजट बीच वाले वर्ग यानी मध्य-काल से मुक्त होकर क्रिप्टो के अमृत-काल में छलांग लगा चुका है। एक बड़े वर्ग के फिक्र और जिक्र से बाहर रहने पर बेबाक बोल

‘ए सियासत, तूने भी इस दौर में
कमाल कर दिया
गरीबों को और गरीब, अमीरों को और मालामाल कर दिया’

एक दशक पहले जब हम अपने घरों से लंबे सफर पर निकलते थे तो राजमार्गों के किनारे पड़ने वाले ढाबों पर चारपाई रखी रहती थी। ये ढाबे बने ही होते थे लंबे सफर पर निकले वाहन चालकों और उनके साथ आने वाले मुसाफिरों के लिए। इन ढाबों की दाल फ्राई, बटर चिकन, तंदूरी नान लोकप्रिय हुआ करते थे।

पूर्णबंदी के दौरान यू-ट्यूब पर ढाबे वाली दाल फ्राई और बटर चिकन बनाने की विधि को लोगों ने खूब खोजा। इंटरनेट पर पेशेवर खानसामों से सीख घरों की रसोई में बना कर डायनिंग टेबल पर सजा कर सोशल मीडिया पर फोटो भी डाली। लेकिन पिछले कुछ समय से राजमार्ग और अन्य सड़कों पर शुद्ध वैष्णो ढाबे का चलन बढ़ रहा है।

राजमार्ग पर चलने वाले शुद्ध वैष्णो ढाबे प्रतीक हैं भारतीय मध्य वर्ग का। आज भी भारतीय समाज का सबसे बड़ा हिस्सा मध्य वर्ग ही है। पिछले आठ सालों में इसकी जिंदगी बटर चिकन से खिसक कर बिना लहसुन-प्याज वाली सादी दाल तक आ गई है। 2022-23 का आम बजट पेश करने के बाद सरकार ने दावा किया कि सात-आठ साल पहले भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक लाख 10 हजार करोड़ रुपए था।

आज भारत की अर्थव्यवस्था दो लाख 30 हजार करोड़ के आसपास पहुंचा दी गई है। यह आंकड़ा देने वाली सरकार से सवाल है कि इस दो लाख 30 हजार करोड़ रुपए वाली अर्थव्यवस्था में मध्य-वर्ग की कमाई पिछले सात सालों के दौरान कितनी बढ़ी है?

आंकड़े बताते हैं कि कोरोना के बाद मध्य-वर्ग की आय 15 से 55 फीसद तक घटी है। जिस घर में दो कमाने वाले थे अब एक रह गए हैं। मध्य-वर्ग का कोई भी तबका ऐसा नहीं है जिसकी तनख्वाह कोरोना से पहले वाली हालत में चली गई हो। मध्य-वर्ग की कमाई जहां पर गिरी थी वहीं अटकी हुई है। दुखद है कि सरकार ने आने वाले वक्त में भी उसे लटकाने का पूरा इंतजाम कर रखा है।

इसका कारण यही है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आते ही मध्य-वर्ग को खोया-पाया की पूरी बहस से ही बाहर रखा। अभी तक सरकार को यही उम्मीद है कि वह इस बार भी धर्म के नाम पर वोट डालेगा। वह इसी में खुश है कि तनख्वाह नहीं बढ़ी तो क्या नौकरी तो बची है। पड़ोसी की तो नौकरी ही चली गई है। जिनकी चली गई है वो उनके लिए परेशान हो रहा, जिनकी नौकरी अभी तक बची हुई है।

सरकार को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मध्य-वर्ग के पास वैष्णो ढाबा जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि वित्त मंत्री जी पहले ही कह चुकी हैं कि वो प्याज जैसी चीज नहीं खाती हैं। इसलिए अब मध्य-वर्ग को भी वैष्णो ढाबा जाने की सलाह है, जहां मांसाहार तो दूर की बात प्याज और लहसुन तक भी नहीं मिलेगा।

आपको सिर्फ दाल और चपाती मिलेगी ताकि आपका पेट भर सके और आप आगे की ओर चल सकें। पोषण और सुस्वाद वाले भोजन की बात करके आप देशहित के खिलाफ ही दिखेंगे। मध्य-वर्ग को संदेश है कि वह सड़क से लेकर महाविद्यालय परिसर तक गाय की सेवा करे। बजट में आंकड़ा दिया जाएगा कि कालेज में होने वाले हवन के लिए दूध और घी का इंतजाम वहीं की गौशाला से हो गया।

हालांकि, सरकार एक पक्ष से आंखें मूंदी हुई है। वह यह कि पहले के कुछ ढाबे आज हवेली में बदल चुके हैं। उन्होंने अपने आस-पास की सैकड़ों वर्गफुट जगह अपने अधिकार में ले ली है। कई तो मैकडी, कैफे कॉफी डे, केएफसी के शाखाधारी बन चुके हैं। सप्ताहांत की मौज-मस्ती के लिए पूरा इंतजाम रखने वाली जगहें भी खुल गई हैं।

सरकार का ध्यान सिर्फ ढाबे से हवेली की छलांग लगा लेने वालों की तरफ है। उसका ध्यान उन खाने वालों पर नहीं है जो हवेली से सीधे वैष्णो ढाबा जाने के लिए मजबूर हैं। लोगों की खरीद क्षमता बढ़ाए बिना अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सकता है।

अभी तो हम महामारी के पहले वाली हालत में पहुंचे हैं जहां खरीद क्षमता घट चुकी थी। सरकार कह रही है कि खर्च में 27 फीसद का इजाफा हुआ है। लेकिन मौद्रिक मूल्य और मुद्रास्फीति के संदर्भ में इस बढ़त को बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता है।

जिस वक्त शहरों में शहरी रोजगार गारंटी योजना लाने की जरूरत थी, वहां उम्मीदों के उलट महामारी के समय गांवों में बड़ी आशा बने मनरेगा के बजट में ही कमी कर दी गई है। हम महामारी के तीसरे साल में प्रवेश कर चुके हैं और स्वास्थ्य के क्षेत्र को भी निवेश से दूर ही रखा गया है। बड़े पैमाने पर जो असंगठित क्षेत्र हैं उनके लिए ई-श्रम कार्ड बनाया गया है लेकिन बजट में उसे भी उपेक्षित रख दिया गया है।

पहले लगा था कि देश की राजनीति में ताजा मिसाल बने किसानों को बजट में तवज्जो दी जाएगी। लेकिन जमीन के लिए सस्ते उर्वरक की मांग कर रहे किसानों को आसमान में ड्रोन दिया गया है ताकि कीटनाशकों का छिड़काव आसानी से कर सकें। सरकार को जब खेती से जुड़े कानून वापस लेने पड़े तो लगा था कि भारत कृषि प्रधान देश है। लेकिन बजट में इसका कुछ मान नहीं रखा गया है।

इस बजट ने ठहरे हुए मध्य-वर्ग को अभी मूर्ति-मुद्रा में ही खड़े रहने का संदेश दिया है। मध्य-वर्ग को उम्मीद थी कि घर से दफ्तर के काम व वेतन कटौती वाले इस दौर में आय-कर से थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन वित्त मंत्री ने कर-संग्रह पर राजधर्म को लेकर महाभारत के शांति-पर्व का श्लोक पढ़ते हुए मध्य-वर्ग को याद दिला दिया कि घर से काम के दौरान टीवी पर जो महाभारत दिखाई गई उसी से खुश हो लीजिए।

वित्त मंत्री का भाव था कि नया कर नहीं लगाया, यही बड़ी बात है। लगता है कि राजग सरकार ने पुराने फिल्मी धुन ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ को बहुत गंभीरता से लिया है। हो सकता है 2024 तक बजट का नाम बदल कर ‘दाल-रोटी का बही-खाता’ न हो जाए।

अभी तक हमने थोड़े ‘यूपी वाले अंदाज’ में कहा है। अब जरा दक्षिण भारत के अंदाज में बताते हैं कि 2015-16 में केंद्र सरकार की आमदनी 11,95,025 करोड़ रुपए थी जो 2021-22 के लिए 17,88,424 करोड़ अनुमानित है। वहीं 2021 में देश के 60 फीसद नौकरीपेशा लोगों की तनख्वाह 53 फीसद तक कम हो गई है। पहले लोग कर्ज लेने के लिए बैंक के बाहर कतार में खड़े रहते थे। अब बैंक वालों का पूर्व मंजूरीशुदा कर्ज के बारे में फोन आने पर उस नंबर को अवांछित की श्रेणी में डाल देते हैं।

संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच का कहना है कि बजट विकास के लिए अच्छा है लेकिन इसमें रोजगार सृजन की कमी है। बिना रोजगार किसका विकास? इसका जवाब विपक्ष के नेता हर मंच की बहस में देते हैं कि देश के एक कारोबारी घराने की सालाना आय 200 फीसद बढ़ गई है।

हर तरह के आंकड़े बता रहे हैं कि कोरोना काल ने भारत में अमीर और गरीब के बीच की खाई बहुत चौड़ी कर दी है। बजट में इससे मुक्ति की राह नहीं दिख रही है। मध्य-वर्ग, किसान, असंगठित श्रमिक वर्ग सब इसमें अमृत ढूंढने के लिए मंथन कर रहे हैं। लेकिन सभी को शून्य-काल ही दिख रहा है।