मानसून सत्र के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ राहुल गांधी साइकिल यात्रा कर संसद तक पहुंचे। इसके साथ अटल बिहारी वाजपेयी की वह तस्वीर भी ताजा हो गई जब वो विपक्ष की मजबूत आवाज हुआ करते थे और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों के खिलाफ विरोध दर्ज करवाने के लिए बैलगाड़ी से संसद परिसर पहुंचे थे। लेकिन आज बतौर विपक्ष की आवाज, राहुल गांधी की राह अटल बिहारी वाजपेयी से ज्यादा मुश्किल है। जब देश कृषि कानूनों और जासूसी जैसे अहम मसलों से गुजर रहा है तो विपक्ष सरकार को इस पर चर्चा करवाने के लिए मजबूर नहीं करवा सका। संसद के इस बदले मिजाज के बाद विपक्षी दलों के नेताओं को ‘करो या मरो’ वाला अहसास हुआ कि नहीं यह तो जनता के बीच उनकी मौजूदगी से पता चलेगा। हाल के दिनों में सड़क से लेकर टीवी चैनलों पर जिस तरह तैयारी के साथ ये अपनी मौजूदगी दिखा रहे हैं उसमें विपक्ष-वापसी की पड़ताल करता बेबाक बोल।
हम ने जो भूल के भी शह का कसीदा न लिखा शायद आया इसी
खूबी की बदौलत लिखना कुछ भी कहते हैं कहीं शह के मुसाहिब ‘जालिब’
रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना
– हबीब जालिब
टीवी चैनल पर समाचार प्रस्तोता खेल मंत्रालय की नई आमद वाले मंत्री से कह रही थीं कि आपके आते ही ओलंपिक में मेडल्स की बौछार लग गई। कभी गोली मारो…का नारा देने वाले मंत्री जी ने भी शर्माते हुए इस श्रेय को सहर्ष स्वीकारा तो एंकर के चेहरे का हर्ष और बढ़ गया। नए-नए खेल मंत्री को ओलंपिक में तमगों का ताज तब पहनाया जा रहा था जब भारत में किसान छह महीने से ज्यादा समय से सड़क पर बैठ कर आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन भारतीय सदन में इस पर कोई चर्चा नहीं। फ्रांस से लेकर इजराइल तक ने जासूसी उपकरण बनाने वाली कंपनी एनएसओ पर जांच बिठा दी लेकिन भारतीय सदन का ‘बहुमत’ इस पर चर्चा के लिए तैयार नहीं है। यहां एक बार सवाल फिर उठता है कि अगर इन अहम मुद्दों पर चर्चा नहीं होगी तो फिर संसद का काम क्या है?
2014 में देश का राजनीतिक मुहावरा बदलने के बाद जो शब्द सबसे ज्यादा खारिज हुआ वह विपक्ष था। प्रचंड बहुमत से चुंधियाई हुई तख्तनशीं सत्ता को हमेशा के लिए सत्ताधारी बन जाने का यकीं हुआ और ऐसा माहौल बनाया जाने लगा कि अब विपक्ष की वापसी हो नहीं सकती। बहुत हद तक उसका साथ दिया जनसंचार साधनों ने। राहुल गांधी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ साइकिल से संसद पहुंचे तो अटल बिहारी वाजपेयी की वह तस्वीर भी ताजा हुई जब वे पेट्रोल की बढ़ी कीमतों के खिलाफ बैलगाड़ी से संसद भवन पहुंचे थे। तब और अब का फर्क यही है कि न्यूज चैनल विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं को अपनी तरफ से समझाना नहीं भूलते कि तेल की बढ़ी कीमतों का पैसा किसी की जेब में नहीं जाता बल्कि जनता की भलाई में खर्च होता है।
यह तो तय है कि आज के दौर में विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी की लड़ाई अटल बिहारी वाजपेयी से बहुत ज्यादा मुश्किल है। क्योंकि अब विपक्ष के पास कोई उम्मीद बची है तो वो सिर्फ जनता के बीच। अभी तक विपक्ष की दिक्कत यही है कि जब संसद चल रही होती है तभी उसे रोक कर, वहां हंगामा कर वह अपना वजूद दिखा पाता है। सवाल यही है कि मानसून सत्र के खात्मे के बाद विपक्षी बौछारों का क्या होगा? वैसे भी पिछले काफी समय से कोरोना की वजह से संसद का काम बाधित था तो विपक्ष की मौजूदगी भी बाधित थी।
यह तो तय है कि विपक्ष की जगह कम से कमतर होती जा रही है। संसद में बहस के बिना विपक्ष खुद पर ध्यान केंद्रित नहीं करवा सकता है। अब जब संसद के अंदर बहस नहीं हो पा रही है तो विपक्ष अपनी सकारात्मकता कैसे दिखा सकता है। यह तो एक शाश्वत सत्य है कि विकल्प कभी खत्म नहीं होता है। वह अपना रूप-रंग और तेवर बदलता है। जब कृषि कानूनों पर संसद में बहस नहीं हो पाई और सरकार उनकी आवाजों की अपनी मौत मरने का इंतजार कर रही थी तो किसानों ने सड़क पर आकर पूरी दुनिया को अपनी आवाज सुना दी। दुनिया भर के राजनेताओं से लेकर पर्यावरण कार्यकर्ताओं व लोकप्रिय गायकों तक ने किसान आंदोलनकारियों के साथ भारत सरकार के रवैए को लेकर सवाल उठा दिए। आंदोलनकारियों की राह में सड़क पर गाड़ी गई कीलें उलटे सरकार को ही चुभने लगीं, जब यह मामला वैश्विक हो गया।
मानसून सत्र अब खत्म होने को है और विपक्ष की छवि हंगामेबाजों की है। जल्दी-जल्दी कानून पास करने का मामला ‘पापड़ी चाट’ तक आ गया तो उसे जनता और जनतंत्र की अवमानना बता दिया गया। लेकिन संसद को इस ‘पापड़ी चाट’ वाली हालत में लाने की जिम्मेदारी से आप पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं? किसान सड़क पर क्यों आए, उन पर वैश्विक मीडिया की निगाह कैसे पड़ी? आज भी किसान आंदोलन डटे रहने और आप उनसे बात नहीं करने, उस पर चर्चा नहीं करने पर अड़े रहने का रेकार्ड कायम कर रहे हैं। वो चाहे विपक्ष का ही क्यों न हो, लेकिन सांसद की अहम भूमिका संसद में है। अगर आप उसे संसद में अपनी भूमिका नहीं निभाने दीजिएगा तो वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए संसद से बाहर सड़क पर रास्ता खोजेगा। फिर वो सड़क से संसद तक साइकिल चलाएगा और थोड़े देर के लिए ही सही जनसंचार उनके साथ संवाद करेगा।
मानसून सत्र में सक्रिय हुए विपक्षी दलों और दिल्ली में उनकी अगुआई कर रहे राहुल गांधी के लिए भी अपना अस्तित्व बचाने का संदेश सड़क से ही आ रहा है। यह एक ऐसा मुश्किल समय है जब विकल्प और विपक्ष की समझाइश के लिए गुंजाइश ही बहुत कम बची हुई है। लेकिन आप अब सिर्फ संसद रोक कर अपना अस्तित्व नहीं बचा सकते हैं। दो-तीन बार के बाद इसे सामान्य प्रवृत्ति मान लिया जाएगा और एक दिन की संसद चलने में जनता के पैसे का कितना नुकसान होता है जैसे सवालों पर जनता ध्यान देना ही बंद कर देगी।
सुबह के नाश्ते की मेज पर विपक्षी साथियों के साथ बिरादराना दिखा कर साइकिल से संसद जाने जैसा काम राहुल गांधी पहले भी करते रहे हैं। अपने इस तरह के हर अवतार पर राजनीतिक स्तंभकारों की शाबासी भी पाते हैं। लेकिन उसके बाद पंजाब, राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश तक में उसी कवायद में डूब जाते हैं जब जनता को लगने लगता है कि यह पार्टी तो अब तैरने से रही। किसान आंदोलन के बाद जिस पंजाब में कांग्रेस को सहज विजेता समझा जा रहा था अब वहां वही सबसे मुश्किल में दिख रही है। किसान के मुद्दे से ज्यादा सिद्धू और अमरिंदर सिंह की कलह ही कांग्रेस का असली चेहरा दिखने लगी। जिस राज्य में वो अपराजेय दिख सकती थी वहीं अब उसे वजूद का संकट दिखने लगा है।
पक्ष के एकतरफा नायकत्व के काफी समय बाद अब विपक्ष की सुगबुगाहट होने लगी है। टीवी चैनलों पर विपक्षी नेता कथित सत्तर साल के आंकड़ों के साथ आने लगे हैं। संसद नहीं तो सड़क पर ही महंगाई और बेरोजगारी पर बात कर रहे हैं। देखना है कि यह विपक्षी लहर कितनी ऊंचाई पर जा सकती है। यह याद रखने वाली बात है कि दुनिया में भारत का दर्जा सबसे बड़े लोकतंत्र का है। अगर विपक्ष के सांसद देश के सबसे बड़े और संवेदनशील मुद्दों पर भी चर्चा न करवा पाएं तो इसे लोकतंत्र का संकट काल भी समझा जाए। उत्तर प्रदेश और 2024 का शंखनाद हो चुका है। लोकतंत्र की लड़ाई में विपक्ष की ऊंचाई मायने रखती है, इसलिए इस पर चर्चा भी जारी रहेगी।
इंदिरा गांधी की सरकार को 1973 में पेट्रोल की बढ़ी कीमतों के कारण विपक्षी दलों के गुस्से का सामना करना पड़ा था। वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों ने तेल की बढ़ी कीमतों के लिए कांग्रेस सरकार का इस्तीफा मांगा था। पेट्रोल बचाने का संदेश देने के लिए इंदिरा गांधी बग्घी पर घूम रही थीं तो सरकार के प्रति अपना विरोध दिखाने के लिए तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी बैलगाड़ी से संसद भवन परिसर पहुंचे थे।