जिस प्रदेश में हाथरस जैसा कांड हुआ हो वहां प्रियंका गांधी बिकनी और बुर्का दोनों को महिलाओं की निजी पसंद बता कर एक पूरी राजनीतिक व सामाजिक मुहिम से पल्ला झाड़ लेती हैं। वहीं असदुद्दीन ओवैसी भारत में हिजाबी लड़की के प्रधानमंत्री बनने की कामना करते हैं। ऊपरी तौर पर औरतों के साथ होने का दावा करने वाले ये नेता असल में औरतों को उस जंग में उलझा देना चाहते हैं जहां अंतिम हार औरत की ही होनी है। जहां पर औरतों ने भारत के संविधान को आदर्श मान कर शाहीन बाग जैसा अभूतपूर्व आंदोलन खड़ा किया था वहां औरतों की बहु-पहचान को खत्म कर उन्हें एकांगी धार्मिक पहचान की चादर ओढ़ाने की कोशिश हो रही है। वर्चस्ववादी राजनीति की पहली रणनीति नागरिकों की बहु-पहचान को खत्म करने की ही होती है। उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान कर्नाटक में उभरे हिजाब विवाद व ध्रुवीकरण की राजनीति पर बेबाक बोल

तिरे माथे पे ये आंचल
बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम
बना लेती तो अच्छा था
-असरार उल हक मजाज

भारत, पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश। साझी संस्कृति वाले इन देशों के विश्वविद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों की दीवारों पर मजाज की ये पंक्तियां मिल जाएंगी। मजाज का यह शेर बीसवीं सदी में महिला सशक्तिकरण के आंदोलनों का लोकप्रिय नारा बना। आज इक्कीसवीं सदी में जब इस देश की राजनीति की धारा तय करने वाले प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं तो ओवैसी कहते हैं-एक दिन ऐसा आएगा जब इस देश में कोई हिजाबी लड़की प्रधानमंत्री बनेगी। इसके बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गजवा-ए-हिंद का उद्धरण दे देते हैं। फिर क्या, गूगल खोज पर गजवा-ए-हिंद पर शोध करने वालों की फौज जुट गई।

पिछले काफी समय से भारतीय चुनावों को ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला बना दिया गया है। ओवैसी को पता है कि उनका ‘हिजाबी प्रधानमंत्री’ वाला बयान दक्षिण से लेकर उत्तर तक उद्धृत किया जाएगा। योगी ने भी पूरी समझ के साथ पलटवार किया। दोनों का मकसद मतों का ध्रुवीकरण है। कुछ बरसों से हर चुनाव में एक ऐसा कथ्य खड़ा कर दिया जा रहा है जो हमें उन लड़ाइयों से पीछे ले जा रहा है जो राजा राम मोहन राय से लेकर ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख ने लड़ी थी।

चुनाव होना चाहिए जनतंत्र को मजबूत करने के लिए यहां तो उल्टे जनतांत्रिक अधिकारों पर मजहब से लेकर जाति तक हावी कर दिया जा रहा है। चुनाव आते ही पूरी कौम के सामने एक कृत्रिम बहस खड़ी कर दी जा रही है। चाहे वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ही सही लेकिन जब राजग सरकार ने तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाया तो लगा कि चलो चुनावों की वजह से ही, महिलाओं के हक में एक सही चीज तो आई। लेकिन महज दूसरा चुनाव आते-आते वह सारा कथ्य एक भूली हुई कथा बन गया।

पिछले दिनों नागरिकता संशोधन अधिनियम की मुखालफत में मुसलिम महिलाओं ने अभूतपूर्व आंदोलन शुरू किया। ‘शाहीन बाग’ की उस दादी को अंतरारष्ट्रीय तवज्जो मिली जो धाराप्रवाह तरीके से संविधान की बात करती थीं। शाहीन बाग आंदोलन में उम्मीद की किरण यह थी कि वहां हाशिए पर भेजे जा रहे लोगों के पास संविधान था। पूरे देश में संविधान की प्रस्तावना पर बात हो रही थी। भारत का नक्शा और संविधान की किताब आंदोलन का शुभंकर बन गए थे।

शाहीन बाग अस्मिता और जनतांत्रिक सवालों को लेकर नागरिकों का आंदोलन था, इसलिए ओवैसी जैसे लोगों के लिए वह मुफीद नहीं हो सकता था। उन जैसे नेताओं के लिए यह ज्यादा जरूरी था कि मुसलिम महिलाएं व लड़कियां जल्द से जल्द संविधान को आदर्श मानना छोड़ दें। ओवैसी ही क्या कर्नाटक से उठे हिजाब विवाद को लेकर मुख्यधारा के ज्यादातर दलों ने प्रतिगामी रवैया ही अपनाया।

उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीति का चेहरा चमका रहीं प्रियंका गांधी को हिजाब पर मजाज जैसी कैफियत नहीं हुई कि लड़की हूं हिजाब के खिलाफ लड़ सकती हूं। प्रियंका ने बिकनी और हिजाब पहनने के अधिकार को एक साथ ला दिया। जिस प्रदेश में हाथरस जैसा वीभत्स कांड हुआ है वहां बिकनी और हिजाब क्या ‘मेरा शरीर/मेरी पसंद’ का मामला हो सकता है?

ओवैसी से लेकर प्रियंका और योगी तक। ये पीड़ित पक्ष को उसके शोषकों के दुर्ग में कैद करना चाहते हैं। आधुनिकता और जनतंत्र उल्टे कदम नहीं चल सकते हैं। आप दावा कर रहे हैं स्त्रियों के पक्ष में खड़े होने का। लेकिन हकीकत यह है कि आप स्त्रियों को अपनी उस सोच की तरफ करने की साजिश कर रहे हैं जो उन्हें सैकड़ों साल पीछे ले जा रही है। कर्नाटक के मामले में लड़की ने मीडिया के सामने बताया कि वह डर गई थी। डर के कारण उसने अल्लाह-हू-अकबर बोलना शुरू किया।

संकट के समय धार्मिक लोगों के मुंह से स्वाभाविक तौर पर ईश्वर-अल्लाह का नाम निकलता है। इसे डर के मारे निकली हुई आध्यात्मिक अभिव्यक्ति कह लीजिए या फिर स्वाभाविक अभिव्यक्ति कि संकट के समय भगवान याद आते हैं। सवाल यह है कि आखिर लड़की के अंदर डर पैदा हुआ कहां से? वे कौन लोग हैं जो उसे डरा रहे हैं। डर से मुक्ति का जो सवाल है उसे क्या हिजाब के पक्ष में या विपक्ष में करके दबाया जा सकता है?

भारत जैसे विविधता वाले देश में पहचान भी बहुरूप में है। कोई लड़की एक साथ मुसलिम भी है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की छात्रा भी। उसकी कई पहचान है। आज का संकट यह है कि वर्चस्वादी राजनीति, बहुलता वाली राजनीति को दबाना चाहती है। हर व्यक्ति की बहु-पहचान को एकांगी पहचान में सीमित करना चाहती है। वर्चस्वादी राजनीति के पास ऐसी लोकतांत्रिक जमीन नहीं होती जो व्यक्ति के बहु-पहचान को स्वीकार करे। यहां लड़की के डर और धार्मिक आस्था से जो अभिव्यक्ति निकली उसे कट्टर मुसलिम पहचान की चादर ओढ़ाई जा रही है।

दूसरी तरफ एक छात्रा को ‘शेरनी’ घोषित करके ‘गीदड़ों’ के सामने खड़ा कर देने वाला मर्दवादी कथ्य भी बनाया गया। क्या वह इस तरह अपने डर से मुक्त हो पाएगी? यहीं पर राज्य की भूमिका आती है। राज्य व सरकार की भूमिका पर सवाल करने के बजाए बड़े शातिर तरीके से उसे समुदाय के अंदर का सवाल बना दिया गया। जय श्रीराम या फिर अल्लाह-हू-अकबर की पहचान को ही प्रमुख बना दिया गया।

यह राज्य की भूमिका है कि लड़की के अंदर इतना आत्मविश्वास भरे कि वह हर जगह सुरक्षित रह पाएगी। जो भी उसकी आस्था है उसके प्रदर्शन के साथ सुरक्षित रह पाएगी। लेकिन राज्य की इस वृहत्तर भूमिका को या तो महिला अस्मिता के तौर पर, या पहनने के अधिकार के तौर पर या धार्मिक पहचान के नाम पर सीमित कर दिया गया। यहां जीत वर्चस्ववाद की हुई। महिला पहचान का झांसा दे वर्चस्ववादी ही वैधता पा रहे हैं। दूसरी तरफ उसी वर्चस्ववाद के खिलाफ उसे हिजाब पहनने का अधिकार दिया जा रहा है। इन पहचानों में राज्य की भूमिका पर जो सवाल उठने थे उस पर पूरी चुप्पी है।

ओवैसी जब हिजाबी लड़की वाली प्रधानमंत्री की बात करते हैं तो औरतों के उस हथियार को छीन लेते हैं जो उन्हें प्रधानमंत्री पद का उतना ही दावेदार बनाता है जितना कि कोई मर्द। एक लड़की जब हिजाब पहन कर स्कूल जाने की जिद करने लगेगी तो वह उस लड़ाई के खिलाफ हो जाएगी जो लड़कियों को स्कूल पहुंचाने के लिए लड़ी गई थी।

स्कूल-कालेज तो व्यक्ति को स्वतंत्र करने के लिए बनाए गए थे। अगर वहां हिजाब के हक में लड़ाई शुरू हो गई है तो हारेगी स्त्री ही। वह हारेगी ब्लैकबोर्ड से, कलम-किताबों से, पुस्तकालय से, महरूम होगी प्रगतिशील छात्र राजनीति से और अंतत: वह हाशिए पर भेज दी जाएगी उस राजनीति से जहां वह प्रधानमंत्री तक बन सकती है।

भारत जैसा कई राज्यों वाला देश चुनावों का भी देश है। यहां हर चुनाव में इस तरह ध्रुवीकरण के नाम पर हम स्त्रियों के हक हारते जाएंगे और ओवैसी जैसे वर्चस्ववादी राजनीति वाले नेताओं की बदनीयती जीतती जाएगी तो आगे शायद देश की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बीसवीं सदी के इतिहास का अध्याय की बात हो जाएगी।

ये नेता अपनी छोटी हार के नाम पर औरतों की हासिल अब तक की बड़ी से बड़ी जीत छीन लेना चाहते हैं। लाजिम है कि नागरिक अधिकारों की किताब पढ़ इनकी महिलाओं को अराजनीतिक बनाने की साजिश को बेहिजाब किया जाए। न कि इनकी मौकापरस्त, वर्चस्ववादी राजनीति का दिया हिजाब ओढ़ा जाए।