केंद्र और विपक्ष शासित राज्य सरकारों के बीच तीखा टकराव भारतीय राजनीति की स्थायी शैली बनती जा रही है। केंद्र व राज्य के रिश्तों में जिस संघवाद के बारे में स्कूली किताबों में पढ़ाया जाता रहा, लगता है आनेवाले दिनों में उसकी प्रतिकृति सिर्फ राजनीतिक संग्रहालय में देखने के लिए मिलेगी। एक चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक दलों की नजर दूसरे चुनाव पर टिक जाती है। केंद्र व राज्यों के बीच रिश्ते में भी चुनावी तकरार बारहमासा हो गई है। कोरोना महामारी से लेकर आर्थिक व अन्य तरह के संकटों के समय केंद्र व राज्य दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से तेरा-मेरा के झगड़े में उलझे रहते हैं। भारत जैसे बड़े भूगोल और विविध संस्कृति वाले देश में संघवाद के अलावा कोई दूसरी आदर्श स्थिति हो ही नहीं सकती। राज्य हो या केंद्र उसे संघवाद की याद तभी आती है जब वे किसी संकट से पूरी तरह घिर चुके होते हैं। राजनीतिक तकरार के इस काल पर बेबाक बोल

‘प्रिछले साल नवंबर में केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल व डीजल पर उत्पाद शुल्क में कटौती किए जाने के बावजूद महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, झारखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पेट्रोल और डीजल पर वैट कम न करके इन राज्यों की जनता के साथ अन्याय किया है। दरों में कटौती न करना इन राज्यों के पड़ोसी राज्यों को भी नुकसान पहुंचाता है। मैं यहां किसी की आलोचना नहीं कर रहा हूं। मैं केवल आपसे आपके राज्य के नागरिकों की भलाई के लिए प्रार्थना कर रहा हूं। आपसे मेरी प्रार्थना है कि देशहित में आपको पिछले नवंबर में जो करना था छह महीने की देरी हो चुकी है। अब भी आप अपने राज्य के नागरिकों का वैट कम करके इसका लाभ पहुंचाइए। चेन्नई, जयपुर, हैदराबाद कोलकाता और मुंबई में पेट्रोल की कीमतें 111 रुपए लीटर की दर से भी ज्यादा हैं।’

27 अप्रैल, 2022 को मुख्यमंत्रियों के साथ हुई बैठक के दौरान प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विपक्ष शासित प्रदेशों को संघवाद की भावना के साथ काम करने की अपील की। प्रधानमंत्री ने वर्तमान के वैश्विक संदर्भों का हवाला देते हुए कहा कि अब केंद्र और राज्य के रिश्तों में पहले से ज्यादा सामंजस्य की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने पेट्रोल के साथ उर्वरकों की कीमत पर भी कहा कि केंद्र सरकार लगातार अनुदान बढ़ा रही है तो राज्यों को भी साथ देना चाहिए। उन्होंने कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों का उदाहरण रखा, जिन्होंने अपने राजस्व की चिंता छोड़ कर जनता को पेट्रोल की कीमतों में राहत दी।

आखिर ऐसे क्या हालात बने कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक मंच से ऐसी अपील करनी पड़ी, पक्ष और विपक्ष शासित राज्यों के रवैए का तुलनात्मक अध्ययन करना पड़ा? हम समझते हैं कि इसकी वजह में पिछले लंबे समय से केंद्र और राज्य सरकार के रिश्तों में चल रही तकरार है। विपक्ष शासित राज्य व केंद्र का रिश्ता उग्र होता जा रहा है। पहले केंद्र व राज्यों के बीच आपसी समझ का मैत्रीपूर्ण रिश्ता होता था। राजनीतिक विवादों के बीच भी केंद्र हमेशा राज्यों को सहयोग देता रहा है। इसके साथ ही केंद्र व प्रधानमंत्री से जो दिशा-निर्देश आते थे, उनका सम्मान किया जाता था।

पेट्रोल पर वैट कम करने की अपील करते ही विपक्ष शासित राज्यों ने जैसी तीखी प्रतिक्रिया दी, उसे देख कर लगता है कि केंद्र और विपक्ष शासित राज्यों के बीच तीखी दुश्मनी कायम हो चुकी है। इसकी झलक पहले भी सामने आती रही है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान केंद्र और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों की बैठक इंटरनेट पर पूरा देश देख रहा था। तभी दिल्ली के मुख्यमंत्री हाथ जोड़ कर केंद्र सरकार से विनती करने लगते हैं कि दिल्ली में आक्सीजन की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति हो।

ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली किसी और ग्रह पर बसती हो, और उसके मुखिया को जनता की सेहत के अलावा कोई चिंता नहीं। बंगाल, तमिलनाडु, केरल के मुख्यमंत्रियों की तीखी तकरार का दौर चलता ही रहता है। हाल ही में केंद्र सरकार और राज्यों के प्रतिनिधियों की बैठक के बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल फिर से सुर्खियों में आ जाते हैं। वजह यह है कि वे बैठक के सीधे प्रसारण के दौरान हाथ सिर पर रख कर एकदम आराम की मुद्रा में बैठे हुए दिखे। जैसे, किसी औपचारिक सम्मेलन में न होकर अपने घर की बैठक में टीवी देख रहे हों और विवाद का रिमोट कंट्रोल हमेशा की तरह उनके हाथ में हो। जाहिर सी बात है कि इनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना होता है, ये नहीं चाहते कि सूरत बदली जाए।

जब महंगाई और आर्थिक संकट से भारत के नक्शे पर स्थित पूरा भूगोल जूझ रहा है तब यहां की राजनीति तू-तू-मैं-मैं के झगड़े में व्यस्त है। अहम राज्यों के चुनाव निपट जाने के बाद लगा था कि अब मिल-बैठ कर पूरे देश की जनता के बारे में सोचा जाएगा और समाधान का कोई रास्ता निकलेगा। तभी हिमाचल, गुजरात जैसे राज्य में फिर छिड़ी बात चुनाव की तो कोई बुलडोजर, कोई लाउडस्पीकर तो कोई हनुमान चालीसा में उलझ गया। पंजाब जैसे संवेदनशील राज्य में अचानक से खालिस्तान को जिंदा करने की कोशिश हो रही है। तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए अगर पंजाब को फिर से अशांत कर दिया जाएगा तो उसका खमियाजा एक बार फिर पूरा देश भुगतेगा।

पिछले छह महीने के अंदर वाणिज्यिक गैस सिलेंडर की कीमतों में 550 रुपए से अधिक का इजाफा कर दिया गया है। वाहनों में प्रयुक्त होने वाली सीएनजी की दर 25 रुपए से ऊपर तक बढ़ चुकी है। पिछले एक दशक के अंदर ऐप आधारित टैक्सी सेवा रोजगार का बड़ा साधन बन चुकी है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का वह ऐतिहासिक बयान दस्तावेजों में महफूज है जिसमें उन्होंने वाहन उद्योग की मंदी के लिए नई पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराया था। वित्त मंत्री ने कहा था कि युवा अपनी गाड़ी खरीदने के बजाए ओला या ऊबर से चलना पसंद करते हैं। लेकिन आज यह हाल है कि युवाओं की बुक की गई गाड़ी को ओला और ऊबर वाले खारिज कर देते हैं क्योंकि गैस की बढ़ी दरों और कई तरह के टैक्स की वजह से उन्हें खास दूरी और दिशा की तरफ जाने में घाटा होता है।

ऐप आधारित टैक्सी चालक अब कई अंतरराज्यीय ग्राहकों को भी खारिज कर देते हैं क्योंकि टोल दरों में भी काफी इजाफा हो चुका है। पिछले दिनों कई जगहों से शिकायत आई कि टैक्सी चालक ने एसी चलाने से मना कर दिया तो ग्राहक को मंजिल से पहले ही उतार कर चला गया। जो लोग अब तक अपना निजी वाहन रखने से परहेज करते आ रहे थे, उन्हें भी अपने और अपनों की सुरक्षा के लिए इस विकल्प को चुनने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। जिस टैक्सी सेवा से युवाओं ने अपना घर चलाने की उम्मीद पाली थी, कर्ज लेकर गाड़ी ली थी अब उन्हीं गाड़ियों को वे सफेद हाथी कह रहे हैं।
टैक्सी चालकों की लाचारी का वर्णन बढ़ती महंगाई का एक उदाहरण भर है।

ऐसी निराशाजनक स्थिति कई क्षेत्रों में है। यह संकट अब लंबा खिंच रहा है तो जाहिर सी बात है कि हर कोई इसका जल्द से जल्द समाधान होते देखना चाहता है। सवाल यही है कि इससे निजात कैसे पाया जाए? केंद्र से लेकर राज्य सब एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालना चाह रहे हैं। हर कोई चुनाव लड़ने और जीतने में व्यस्त है और जनता पस्त है। हर चुनावी मौसम के गुजरने के बाद उम्मीद जगती है कि अब सब मिल-बैठ कर जनता के बारे में सोचेंगे। लेकिन चुनाव तो बारहमासा हो गया है और राजनीतिक दलों को अपनी सीट और वोट फीसद बढ़ाने के अलावा किसी चीज की फिक्र नहीं रह गई है।
पिछले लंबे समय से देखा जा रहा है कि किसी भी संकट के समय केंद्र और राज्य सरकारों का टकराव दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से बढ़ जाता है। हर कोई प्रचंड बहुमतयुक्त होकर जनता की ओर से जिम्मेदारीमुक्त होना चाहता है।

इस टकराव की राजनीतिक प्रवृत्ति के बीच जनता के लिए जमीन कैसे तैयार होगी? इसके लिए हमें अपने ही ढांचे में थोड़ा पीछे की ओर देखना होगा। केंद्र और राज्य के बीच योजना आयोग जैसी संस्थाओं की अहम भूमिका हुआ करती थी। किसी भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संकट को योजनाबद्ध तरीके से कैसे ठीक किया जाए इसकी योजना बनाने वाला तंत्र ही खत्म हो गया सा लगता है। केंद्र और राज्य के झगड़े के बीच ऐसी कोई तटस्थ संस्था नहीं दिखती है जो सिर्फ और सिर्फ जनता के हक में फैसला ले।

जहां भी केंद्र और राज्य में समान दल की सरकार नहीं है वहां टकराव होता रहा है। केंद्र और राज्य के लिए तटस्थता से संयोजन करने की कोई नीति बनने की रीति ही खत्म सी हो गई लगती है। जीएसटी प्रबंधन इस नाकाम नीति का सबसे बड़ा उदाहरण है। जीएसटी एक देश, एक कर की अवधारणा को लेकर लाया गया। लगा था कि कर संबंधी हर पहलू तकनीकी रूप से तय हो जाएगा। लेकिन उसी जीएसटी में कानून बनने के बाद जितने संशोधन हुए वह अपने-आप में रेकार्ड है।

देश अभी जिस तरह के आर्थिक व अन्य संकटों से गुजर रहा है उससे उबरने का कोई सामूहिक प्रयास नहीं दिख रहा है। सिर्फ एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोप कर कितने दिनों तक गुजारा चल सकता है, हम चुपचाप यह बैठ कर देखने की सलाह भी नहीं दे सकते हैं। चुनावों की तारीखों का एलान और सरकारें बनने-गिरने के इतर उस संभावित तंत्र पर गंभीरता से सोचा जाए जो पूरे देश की जनता को एक भाव से देख कर उसे अभाव से निकालने की कोशिश करे। केंद्र सरकार की ओर से दोस्ती की जो देर से अपील हुई है वह राज्यों के साथ रिश्ते को दुरुस्त करती है या नहीं यह आगे देखना होगा।