आमद पे तेरी
इत्र ओ चराग सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश
को सादा न किया
-परवीन शाकिर
देश की जांच एजंसियां जब चुनावी कैलेंडर के हिसाब से सक्रिय होने लगे तो यह लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है। दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक चुनावों के समय में इतनी बार ऐसा संयोग हो चुका है कि यह अब सत्ता का प्रयोग करने लगा है। कानपुर में इत्र व्यापारी के घर से मिली अकूत नकदी सरकार के नोटबंदी जैसे फैसले की अपार असफलता का समारोह सा है। कानपुर से मिली नकदी बता रही है कि नोटबंदी से काले धन के साम्राज्य को मामूली खरोंच भी नहीं लगी है। बस आम आदमी के चंद हजार और लाख रुपयों को ही सरकार बंधक बना रही थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लाए गए पांच सौ के नए करोड़ों नोट कभी दीवार के पीछे तो कभी टैंकर में मिल कर उस आम आदमी के जख्म को फिर से हरा कर देते हैं जिसे नोटबंदी ने तबाह कर दिया था। चुनावों के समय की छापेमारी और उत्तर से लेकर दक्षिण तक आबाद नकदी व कालेधन पर सवाल उठाता बेबाक बोल।
चुनावी आमद के साथ ही जांच एजंसियां इत्र की खुशबू सी पहचान बिखेरती हैं। कुछ समय पहले सारा काला धन बंगाल में था। सारा भ्रष्टाचार एक खास पार्टी से जुड़े नेताओं में दिख रहा था। और, उस कथित भ्रष्टाचारी पार्टी के कथित भ्रष्ट नेता के केंद्रीय सत्ता वाली पार्टी से जुड़ाव होते ही वह ईमानदारी के साबुन से धुल जाता था। आगामी चुनाव उत्तर प्रदेश में है जो केंद्रीय सत्ता के समीकरण को लेकर अहम है। एक बच्चा भी अनुमान लगा सकता था कि चुनावी कैलेंडर के तहत जांच एजंसियों की सक्रियता का अगला पड़ाव उत्तर प्रदेश ही होगा।
मजबूत सी दिखती विपक्षी पार्टी ने चुनाव प्रचार की शुरुआत ही समाजवादी इत्र के साथ की। अब यह संयोग ही रहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ यज्ञ की आहूति इत्र कारोबारी को ही देनी पड़ी। सत्ता पक्ष ने ‘समाजवादी इत्र’ को भ्रष्ट घोषित किया तो विपक्ष ने भी जवाब दिया कि पैसा आपका ही निकलेगा।
कानपुर में जो नकद-आबाद मिला है उसे लेकर पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। पैसा जिसका भी हो, इससे यह सच तो एक बार फिर सामने आया कि देश में काले धन के विशाल साम्राज्य को हल्की सी खरोंच भी नहीं पहुंची है।
याद करें, आठ नवंबर, 2016 का दिन, जब शाम आठ बजे अचानक से देश की 80 फीसद नकदी के विमुद्रीकरण का एलान कर दिया गया। देश की अर्थव्यवस्था पर उस एलान का खौफ ऐसा है कि आज भी किसी एलान के लिए आठ बजे शाम का वक्त डरा जाता है। किसी बुरे फैसले की आशंका होती है तो नोटंबदी जैसे ही किसी फैसले का फलसफा याद आता है। नोटबंदी को काले धन के खिलाफ यज्ञ की संज्ञा दी गई थी जो आम लोगों के लिए आर्थिक तबाही का सर्वनाम बन गया था।
नोटबंदी का एक बड़ा पक्ष नकदी रहित अर्थव्यवस्था का निर्माण भी बताया गया था। दावा किया गया कि डिजिटल लेनदेन बढ़ने से भ्रष्टाचार कम होगा। साथ ही दावा किया गया था कि छपे हुए नोट घटेंगे। देखा जा रहा है कि नोटबंदी से लेकर आज तक छपे हुए नोटों की संख्या बढ़ ही रही है।
नोटबंदी में जिन दावों का एलान किया गया था, कानपुर में मिली अकूत नकदी उसकी पूरी विफलता का समारोह है।
इंरटनेट पर आज भी वो वीडियो उपलब्ध है जिसमें 2016 में नोटबंदी के एलान के बाद टीवी पत्रकार दो हजार के नोट में चिप लगा होने का दावा कर रहे थे। बता रहे थे कि उस चिप की मदद से मिट्टी के अंदर गड़ा काला धन भी पकड़ लिया जाएगा। आम लोग अपनी जमापूंजी पर इतनी बड़ी क्रूरता के साथ ऐसे मजाक झेलने के लिए अभिशप्त थे।
2021 का नवंबर महीना ऐसा था जब सरकार ने अपने अब तक के सबसे बड़े आर्थिक फैसले को याद करना जरूरी नहीं समझा। जाहिर सी बात है कि सरकार अपने नोटबंदी के फैसले को उत्सव के तौर पर याद नहीं कर सकती है। लेकिन, जब कानपुर के एक घर में इतनी नकद आबाद मिले तो सरकार को अपनी विफलता की विरासत ढोनी ही पड़ेगी। नाम बदलने का जुनून रखने वाली सरकार को एक नम्र सलाह है कि वह कानपुर का नाम नकदाबाद रख दे। अपभ्रंश में कनपुरिया को नकदपुरिया बोला जाए। जैसा, एक सरकारी वेबसाइट पर इलाहबादी उपनाम वाले शायर-कवि कुछ देर के लिए प्रयागराजी कर दिए गए थे।
यह तो सामान्य चुनावी नियम बन गया है कि मतदान के लिए जाने वाले राज्यों में छापेमारी में तेजी आ जाती है। आम तौर पर इस तरह की छापेमारी में किसी पार्टी के मुख्य कार्यकर्ता या संगठनात्मक व्यक्ति के घर या संस्थानों पर जांच एजंसियां पहुंचती हैं। इसका सीधा मकसद होता है खास दल से जुड़े व्यक्ति की साख पर सवाल उठाना, उसे भ्रष्टाचार के कठघरे में खड़े कर एक भय का माहौल पैदा कर दिया जाता है। इसका एक असर होता है कि विपक्ष के पूरे संसाधनों पर सवाल उठ जाते हैं। उसके पैसे की आवाजाही को संदिग्ध बना दिया जाता है।
कानपुर में निकली नकदी कितनी वैध है और कितनी अवैध, यह तो आगे लंबी जांच का विषय है। लेकिन चुनावी समय में इस तरह की घटना हमें चुनावी सुधार की बहस में जरूर ले जाती है। चुनावी सुधार के नाम पर ही चुनावी बांड लाया गया था। लेकिन देखा जा रहा है कि अब एक खास दल के पास ही अधिकतम चुनावी चंदा जा रहा है। इसके जरिए सारा पैसा चुंबक की तरह सत्ताधारी दल की ओर ही आकर्षित होता है। बाकी दलों के लिए भय का ऐसा वातावरण बन जाता है कि उनके लिए संसाधनों की पूरी तरह से नाकेबंदी हो जाती है। यानी विपक्ष के लिए पैसे की आवाजाही बंद हो जाती है।
उद्योगपतियों को भी डर लगने लगता है कि विपक्षी दलों को पैसा दिया तो हमारे घरों और संस्थानों पर छापे पड़ सकते हैं। चुनावी बांड और जांच एजंसियों का संगम पैसे को सत्ताधारी के पास केंद्रित कर देता है जिस कारण विपक्षी दलों के लिए चुनावी लड़ाई मुश्किल हो ही जाती है।
दक्षिण भारत में भी चुनावों के समय इसी तरह पैसा दिखा था। दीवारों के पीछे, अलमारियों में तो कहीं टैंकरों में नकदी दिखी थी। इससे चुनाव, पैसे, सत्ता और जांच एंजसी का मकड़जाल तो दिख जाता है।
उत्तर प्रदेश में दोहरे इंजन वाली सरकार के पांच साल पूरे होने वाले हैं। लेकिन अभी तक किसी को इस नकदी की सूचना नहीं मिली थी। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही पैसे का पता मिल गया। इसका मतलब है कि आपके पास इतने लंबे समय तक इस पैसे की कोई सूचना नहीं थी? इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि इस सूचना को मौका-ए-चुनाव तक के लिए रोक कर रखा गया था। यानी आर्थिक भ्रष्टाचार में आप चुनिंदा लोगों के खिलाफ ही यज्ञ कर रहे हैं। इस सीमित यज्ञ का पुण्य आपको चुनावी लाभ के रूप में मिलना है।
यह लंबे समय से चलन बन गया है कि आर्थिक जांच एजंसी को विपक्ष के लिए संदेह का आधार बनाने का औजार बना दिया जाए। जिससे वह स्वाभाविक तौर पर जनता से दूर हो जाए। उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम जांच एजंसी की ईमानदार कोशिश भी है तो इसमें सत्ता के प्रबंधन की तेज गंध को सूंघा जा सकता है।
इस तरह की हर घटना का संदेश यही है कि राजनीतिक दलों की ईमानदारी और सामूहिक समझ के बिना किसी भी तरह के चुनावी सुधार की बात बेमानी है। जो राजनीतिक दल सत्ता में होता है वो विपक्ष को कुचलने के लिए जांच एसंसियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करता ही है। इस राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ नागरिक चेतना से ही उम्मीद की जा सकती है।
जरूरत इस बात की है कि सूचना के अधिकार जैसे जन-कानून को मजबूत करने के लिए नागरिक संगठन एकजुट रहें। बिना नागरिकशास्त्र के सचेत हुए राजनीतिशास्त्र का पाठ्यक्रम नहीं सुधारा जा सकता है। चुनिंदा चुनावी सुधार सरकारी एजंसियों को सत्ता की जकड़न में ही रखने के ख्वाहिशमंद हैं। इस तरह से काम करने वाली एजंसियां जो हर समय सवालों के घेरे में आ जाती हैं जनतंत्र की सुरक्षा के लिए खुद बड़ा सवाल बन गई हैं।