भारत ने आजादी के बाद कई राजनीतिक परिवर्तन देखे हैं। गरीबी के बाद भ्रष्टाचार ही राजनीतिक दलों का प्रिय मुद्दा रहा है। 2014 में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के साथ देश में बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ। विदेशों में डंका पीटा गया कि देश बदल गया है। हम हर वैश्विक मंच पर अपनी पीठ थपथपा ही रहे थे तभी अमेरिकी संस्था ने पीठ पर धप्पा मारा और अपने निवेशकों के साथ धोखाधड़ी का आरोप लगाया। भारत में जब नेता जनता को मुफ्त बिजली का वादा कर रहे थे आरोप है कि तब देश की नौकरशाही ने भिन्न-भिन्न राज्यों को महंगी बिजली खरीदने के लिए मजबूर किया। भारतीय कारोबार का पर्याय बने अडाणी समूह पर नौकरशाही को रिश्वत देने का आरोप लगा। 2014 की भ्रष्टाचार विरोधी आंधी के दस साल बाद लोगों ने मान लिया कि भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव नहीं है चाहे सत्ता की कुर्सी को किसी भी राजनीतिक दल से मुक्त कर दें। सत्ता किसी भी दल की हो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत की नौकरशाही एक तरह से व्यवहार करती है। नौकरशाहों के स्वर्ग में एक देश एक व्यापारी के निर्माण पर बेबाक बोल।
हम देश को दिखाना चाहते हैं कि अडाणी जी गिरफ्तार नहीं होंगे…(प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी)। जब भी अडाणी मुश्किल में घिरते हैं तो भाजपा उनके साथ हो जाती है। अडाणी की आलोचना करने वालों को देश के खिलाफ बताती है…(वाशिंगटन पोस्ट)।
एक बयान देश के नेता प्रतिपक्ष का है और दूसरा अमेरिकी अखबार का। दोनों का एक जैसा ही आरोप है। वैश्विक व्यापार के केंद्र में स्वघोषित ‘विश्व गुरु’ भारत इस बुरी छवि के साथ आया है। लगातार दूसरी बार भारतीय व्यापार के प्रतिनिधि चेहरे पर कारोबारी अनियमितताओं का आरोप लगा है। हिंडनबर्ग के आरोप ही हमें सावधान करने के लिए काफी थे कि वैश्विक बाजार में भारत की ऐसी छवि नहीं बननी चाहिए। तब कहा गया कि हिंडनबर्ग जैसी निजी एजंसी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए कारोबारियों के साथ ऐसा करती है।
इस बार अमेरिका की सरकारी संस्था ने मुकदमा दर्ज किया है जिसके घेरे में भारतीय संस्थाएं हैं। एक व्यापारी, उसका कारोबार और उसे फायदा पहुंचाने वाली अलग-अलग राज्य सरकारें। जगनमोहन रेड्डी से लेकर भूपेश बघेल तक की अगुआई वाले राज्य खुशी-खुशी कथित रिश्वत के एवज में महंगी बिजली खरीदने को तैयार हो गए। एक तरफ रिश्वत लेने के बाद महंगी बिजली खरीदना और दूसरी तरफ ज्यादातर दलों का चुनाव में मुफ्त बिजली का एलान करना। अमेरिका से आए इस आरोप ने भारत की अंदरूनी व्यवस्था को बेपर्दा कर दिया है।
राष्ट्रवादी, मोहब्बत की दुकान, कट्टर ईमानदार जैसे अलग-अलग ‘ब्रांड’ वाले राजनीतिक दल हो सकते हैं। उन्हें रिश्वत वाले समझौते की मेज तक ले जाने वाली नौकरशाही एक है। अमेरिकी संस्था के आरोपों को देख कर हम कह सकते हैं कि हम हमेशा से एक देश एक नौकरशाही वाली व्यवस्था में रह रहे हैं। भारत में 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ा गया था। सच यह है कि राजनीतिक आंदोलन सिर्फ देश की सत्ता बदल रहे हैं, नौकरशाही हमेशा से अपने अमृत-काल में रही है।
अक्षय ऊर्जा के कारोबार से जुड़े ताजा मामले में अमेरिकी निवेशकों ने आरोप लगाया कि महंगी बिजली खरीदने के लिए भारतीय अफसरों को पैसा दिया गया। सौर ऊर्जा के संदर्भ में दुनिया का विशालतम करार इतने बड़े कथित भ्रष्टाचार से होगा तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इससे जनता के लिए महंगाई कितनी बढ़ जाएगी।
अक्षय ऊर्जा से जुड़े करार का यह मामला अंतरराष्ट्रीय था। आरोप है कि वैश्विक मंच पर भी कारोबारी समूह ने वही हथकंडा अपनाया जो उस पर देश के अंदर अपनाने के आरोप लगते रहे हैं। सवाल है कि कोई कारोबारी समूह हर तरह की विचारधारा की सत्ता के साथ तालमेल कैसे कर ले रहा है?
कहा जा रहा है कि आज पूंजीवाद खतरे में है। पूंजीवाद के प्राण तभी बच सकते हैं जब उसके नियम-कायदों को माना जाए। पूंजीवाद भी अपनी किताब में स्वस्थ प्रतियोगिता की मांग करता है। अगर सत्ता व उसके तंत्र से सारे संसाधनों पर भ्रष्टाचार का कब्जा हो तो वह कुलीनतंत्र में बदल जाता है। इस तरह का भ्रष्टाचार आर्थिक व राजनीतिक निरंकुशता लाता है। धीरे-धीरे जनता एक निरंकुश तंत्र के हवाले हो जाती है।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि आज जनता व निवेशकों का पैसा शेयर बाजार से जुड़ा हुआ है। कितना भी बड़ा राजनेता या कथित जननेता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाए, उसकी चुनाव लड़ने की योग्यता रद्द हो जाए शेयर बाजार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
वह अपनी राह चलता है। दूसरी तरफ कारोबारी समूह पर निजी संस्था से लेकर सरकारी संस्था के आरोप लगते ही बाजार धड़ाम से गिर जाता है। निवेशक दिवालिया होने के कगार पर आ जाते हैं। इस बार मामला अमेरिकी निवेशकों का भी है तो जाहिर सी बात है कि बात विश्व तलक गई है।
हिंडनबर्ग के आरोप के बाद भारत में जिस नियामक संस्था को इसकी जांच का जिम्मा दिया गया उसकी प्रमुख पर इस याराना पूंजीवाद की पहरेदारी के आरोप लगे। पुख्ता आरोपों के बाद भी सरकार ने उस संस्था को आरोपी के हवाले रखा। इस मामले के बाद उन पर ही बेउम्मीद सी नजर है। नियामक संस्था में भी नौकरशाही की ठसक दिखती है चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए हम तो ऐसे ही काम करेंगे।
भारत में भ्रष्टाचार के आरोप को आम माना जाता रहा है। वैश्विक बाजार में भी अब यहां के भ्रष्टाचार की छवि आम हो गई है। भारतीय कारोबारी और नौकरशाही पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप के बाद केन्या के राष्ट्रपति ने राष्ट्र को संबोधित करना जरूरी समझा।
राष्ट्रपति विलियम रुटो ने अडाणी समूह से हवाईअड्डा विस्तार और अक्षय ऊर्जा से जुड़े करार को रद्द करने का एलान किया। केन्या की जनता को ऐसा न लगे कि उनका पैसा भ्रष्टाचार से जुड़ी परियोजना में जा रहा है, इसलिए वहां के राष्ट्रपति ने सबसे पहले इससे अलगाव किया। आस्ट्रेलिया भी इस तरह के कदम उठाने पर विचार कर रहा है। आस्ट्रेलिया की जनता 2017 से ही अडाणी की परियोजनाओं के खिलाफ विरोध कर रही है। आस्ट्रेलिया की जनता के विरोध से लेकर हिंडनबर्ग तक के आरोपों पर भारतीय संस्थाओं ने ध्यान दिया होता, उस पर काम किया होता तो आज भी बजरिए नौकरशाही कारोबार में रिश्वतखोरी भारत का अंदरूनी मामला ही रहता।
मुश्किल यह कि इस बार हम भ्रष्टाचार को अपना घरेलू मामला कह कर खारिज भी नहीं कर सकते हैं। अब बात अमेरिकी निवेशकों की भी है। आरोप शेयर बाजार को गुमराह करने के भी हैं। सेबी जैसी संस्था ने स्वायत्त तरीके से शुरू में खीरा चोरी के आरोपों पर ध्यान दिया होता तो आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर इतनी बड़ी खीरा चोरी का आरोप नहीं लगता।
बाजार साख पर चलता है, खास कर जब उसके साथ शेयर बाजार भी जुड़ जाए। साख पर दाग के चंद घंटों के अंदर अर्थव्यवस्था इधर से उधर हो जाती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस आरोप के बाद दुनिया भर में भारत के अन्य निवेशकों की छवि पर कैसा असर होगा? हम कितनी भी संख्या की ‘जी’ बैठक में राजनीतिक शक्ति बनने का भ्रम पाल लें लेकिन दुनिया भर में यही संकेत गया है कि भारतीय सत्ता नौकरशाही के भ्रष्टाचार के सामने जी-जी करने के लिए मजबूर है। देश में हल्ला इस बात का हो रहा था कि कारोबारी ने महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों के साथ रात्रि-भोज किया और विपक्ष के बुजुर्गवार भी उन पर मोहित हो गए।
असल समस्या अमेरिका ने बताई कि राजनीतिक दलों के नेताओं से अहम वह नौकरशाही है जिसे कथित रिश्वत देने के लिए कंपनी के अगुआ तक को प्रत्यक्ष बात करनी पड़ी। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि मासूम राजनीतिक दलों को ऐसे आरोप लगने का अंदाजा भी नहीं होगा। जिस जनता से वो मुफ्त बिजली के वादे कर रहे हैं उसी जनता का पैसा महंगी बिजली खरीदने के लिए कथित रिश्वत में दिया जा रहा है। सरकार सौर ऊर्जा से घर-घर रोशन करने का इरादा जता चुकी है।
अमेरिकी मीडिया कह रहा है कि अडाणी को भारत सरकार के विस्तार के रूप में देखा जाता है। एक देश एक चुनाव तो दूर की बात है लेकिन एक देश एक व्यापारी को देश के राजनीतिक दलों ने जमीनी हकीकत बना दिया है। हमारे बाजार की अंदरूनी गैरबराबरी दुनिया में सबके सामने है। अमेरिकी संस्था के आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो भारत के कारोबारी माहौल को बेसाख करने में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक संगठित एक देश एक नौकरशाही का यह अतुलनीय योगदान आने वाले समय में अर्थशास्त्र की किताबों में याराना पूंजीवाद के उत्तम उदाहरणों में एक हो सकता है।