टीवी पर खबर के नाम पर जिस तरह अतीक अहमद को चौबीस गुणे सात दिखाया गया, उसका हासिल है कि तीन और लोग माफिया का मुकुट पहनने के लिए अतीक और अशरफ को सरेआम मार गए। इंसाफ के साथ किसी उपसर्ग और प्रत्यय का रंग-रोगन किया जाता है तो वहां से नाइंसाफी ही निकलती है। माफिया को सजा दिलवाने में हर तरफ मर्यादा के मर्दन का नतीजा है कि हत्या के दृश्य विचलित नहीं गर्वित कर रहे हैं। माफी मांगते माफिया कहीं भ्रम तो नहीं, यही सवाल पूछता बेबाक बोल।
मिल गई मुझ को
तो दुनिया से नजात
कत्ल कर के
आप को क्या मिला
-राज रामपुरी
माफिया एकम माफिया, माफिया दूनी माफिया…। अपराध का यह पहाड़ा उत्तर प्रदेश में चले अतीक अहमद के अफसाने से निकला है। जिस तरह से अतीक अहमद की साबरमती से लेकर प्रयागराज तक की पेशी को बजरिए टीवी चैनल प्रशासन अपनी लोकप्रियता का जरिया बना रहा था, उसी वक्त खौफ हुआ था कि यह कवायद माफिया-मर्दन की जगह माफिया-महिमा की ओर न चली जाए। अतीक अहमद खलनायक से नायक का रुतबा न पा जाए। उसी वक्त लगने लगा था, खलनायक नहीं नायक न हो जाए अतीक…।
जब समाज और राजनीति को लेकर की जाने वाली भविष्यवाणी त्वरित गति से सही साबित होने लगे तो यही समझना चाहिए कि आपने जो सुधार की प्रक्रिया अपनाई थी वह एक बड़े बिगाड़ की ओर चली गई है। जिसको मिटाने का संदेश दिया था, वह तो घास की तरह आराम से उगता दिख रहा है। लोग अपराध की दुनिया में ही मिटने को जीने का मकसद बना सकते हैं।
किसी धारावाहिक आपराधिक कथा की तरह इस मुद्दे पर कम अंतराल में दूसरी बार लिखना एक टिप्पणीकार के तौर पर दुखद है। लेकिन, यह सबक साझा करना भी लाजिम है कि पुलिस सुरक्षा में अतीक अहमद का मारा जाना सिर्फ एक अपराधी का सरेआम मारा जाना नहीं है। यह एक साथ कई संस्थाओं की हत्या है। आंख के बदले आंख और जान के बदले जान की सामंती सजा के खिलाफ हम आगाह करते रहे हैं। लेकिन, इस बार उत्तर प्रदेश आधुनिक होने के नारे के बीच जिस ओर जाता दिख रहा है वह ज्यादा चिंताजनक दृश्य पैदा कर रहा है।
अभी तक सामने आए तथ्यों का लब्बोलुआब है कि हत्या इसलिए की गई ताकि वे मशहूर हो सकें।
अतीक अहमद के हत्यारों के बयान पर गौर कीजिए। अभी तक सामने आए तथ्यों का लब्बोलुआब है कि हत्यारे की हत्या इसलिए की गई ताकि वे मशहूर हो सकें। उनके पास हत्या करने की कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि एक समझ थी। समझ यह बनी कि हम ‘बड़े माफिया’ को मारेंगे तभी ‘बड़े माफिया’ बनेंगे। अपराध के अंधेरे से निकलने के बजाए अपराधी उसमें नाम रोशन करने के लिए हत्यारा बन गया।
शायद उत्तर प्रदेश प्रशासन इस भ्रम से बाहर निकल जाए कि माफिया माफी मांग रहे हैं और मिट्टी में मिल रहे हैं। वर्तमान के माफिया को मिट्टी में मिलाने का जो प्रशासन का तरीका है वो कब्र की मिट्टी पर नए माफिया की फसल लहलहाने को तैयार कर रहा है। नए माफिया खड़े हो रहे हैं, होना चाह रहे हैं। ये ज्यादा जवान हैं, इनकी पहुंच ज्यादा आधुनिक हथियार तक हो जाती है, ये किसी सामंती खानदान से ताल्लुक रख कर अपराध की दुनिया में आगे नहीं बढ़े हैं। अभी तक छोटे अपराध करने वालों के लिए बड़े अपराध करने का जज्बा माफिया बनने की तमन्ना से पैदा हुआ।
अपराध पर सख्त होना किसी भी शासन की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन, इस सख्ती को आमने-सामने की लड़ाई का नायकत्व देकर अपराध ही ज्यादा चमक रहा। अपराधियों के घरों की कुर्की से लेकर बुलडोजर चलने से संदेश गया कि माफिया खत्म हो रहे। लेकिन, जिस तरह त्वरित न्याय को गौरवान्वित किया गया उससे लगने लगा कि यह तो शासन से सड़क पर की लड़ाई है। इस लड़ाई में हारने वाला भी मशहूर होगा। शायद इसलिए गोली चलाते हुए अपराधियों के बच्चे भी सुधारगृह पहुंच गए।
सबसे आसान है जान से मार देना, या मर जाना। लेकिन, जब आप न्याय के समय-चक्र में घूमते हैं तो आपको अहसास होता है कि आपने क्या गलत किया है? जेल के अंदर बीतने वाला समय ही असली सबक होता है कि मैंने अपराध किया था और यह सजा पाई। शासन और अपराध का रिश्ता हमेशा से जटिल रहा है। दुनिया भर की सभ्य सभ्यताएं इस पर विमर्श करती रही हैं।
जिस भी सत्ता ने लोकतांत्रिक न्याय प्रक्रिया के बजाए सड़क पर सजा देने की कोशिश की है उसके हिस्से एक अपराधी को मार कर सौ नए अपराधी खड़े करने का इल्जाम लगा है। सड़क पर दी गई सजा का अपना-अपना पाठ होता है। कोई उस अपराधी जैसा ही बन जाना चाहता है जिसे सबक सिखाना सरकार अपनी इज्जत का सवाल बना लेती है। कोई जरूरी नहीं कि मरने वाले को देख कर हर कोई खौफ खाए। ऐसा भी हो सकता है कि उसका आकर्षण भी खौफ पैदा करना हो जाए।
कायदे से अतीक को सरेआम गोली मारने का दृश्य बार-बार नहीं दिखाना चाहिए था
इंसाफ के साथ सत्ता जब भी अपना उपसर्ग या प्रत्यय लगाती है तो वह एक तरह से नाइंसाफी की ओर जाती है। उसी का असर है कि टीवी चैनल नियम को नकारने में ही नायकत्व खोजने लगे हैं। नियम-कानून की बात करने वाले बोझिल और थके हुए से दिखाए जाते हैं। कायदे से अतीक को सरेआम गोली मारने का दृश्य बार-बार टीवी पर नहीं दिखाना चाहिए था और ऐसा करने पर इस स्वनियामक संस्था पर नियामकों के सवाल उठने थे। लेकिन, चैनलों पर सवाल उठाने के बजाए सरकार से जुड़े प्रवक्ता दबे स्वरों में एक हत्यारे की हत्या को जायज ठहरा रहे थे। ये तो झांकी है…बाकी है के नारों से सोशल मीडिया गुंजायमान हो उठा।
अतीक अहमद की लघुशंका के जीवंत प्रसारण को उसकी मृत्यु के प्रसारण तक पहुंचा दिया गया। हर मंच पर यह बार-बार दिखाया जा रहा है और सत्ता से लेकर जनता का एक समूह वाह-वाह करने में जुटा है। यह कोई ‘वयस्क फिल्म’ का दृश्य भी नहीं है कि आप चेतावनी के पहले बच्चों को टीवी से दूर हटा देंगे। आपके बच्चे खेलते-कूदते, खाते-पीते कई बार घर की बैठकी में इस दृश्य को देख रहे हैं कि किसी को गोली मार देना, सरेआम उसकी जान ले लेना गर्व की बात है।
चैनल वाले औपचारिक शब्द लिख देंगे-दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं। लेकिन, दर्शकों की आंखें तो सिर्फ गोली चलने पर हैं। ऐसे दृश्यों की बारंबार दृश्यता और उससे होने वाले मुनाफे के बाद शायद चैनल वाले नया सच लिखने लग जाएं-ये दृश्य आपको गर्वित कर सकते हैं। चैनल वाले अपने दर्शकों के ‘गर्व’ के लिए कुछ नया खोज ही लाते हैं। फिलहाल हत्यारे की हत्या को एक बड़े तबके के लिए नया गर्व बना ही दिया गया है।
आरोपी पत्रकार बन कर हत्या कर गए और माफिया बनने के ख्वाहिशमंद हैं
माफिया की खबर दिखाने में मर्यादा का मर्दन करने वाले चैनलों के लिए यह विडंबना है कि हत्यारे पत्रकारिता की पहचान और कैमरे के सहारे आए थे। वे पत्रकार बन कर हत्या कर गए और माफिया बनने के ख्वाहिशमंद हैं। टीवी चैनलों ने संविधान और नियम-कायदों की बात करने वालों के लिए हिकारत की नजर रखने वालों का कारवां तैयार कर दिया है। जब अतीक अहमद को साबरमती जेल से प्रयागराज लाया जा रहा था और सड़क पर कथित त्वरित इंसाफ का तमाशा बनाया जा रहा था, तभी यह सवाल उठ रहा था कि इसकी क्या जरूरत थी?
अतीक इतना दुर्दांत था, माफिया द्वारा उसके छुड़ाए जाने की आशंका थी तो क्या उसकी पेशी वीडियो कांफ्रेंसिंग से या बिना तमाशे के नहीं हो सकती थी? ध्यान रहे, अतीक ने अदालत में अपने मारे जाने की आशंका जताई थी, जिसे अनसुना कर दिया गया। सरकार सुशासन और सुरक्षा का दावा, वादा किसके भरोसे करती है? पुलिस और प्रशासन के भरोसे ही न? इस पूरी कवायद में उत्तर प्रदेश पुलिस का वही रूप सामने आया जो कुछ समय पहले बंदूक नहीं चलने पर अपने मुंह से ठांय-ठांय की आवाज निकाल रही थी। कभी इस देश में और इसके राज्यों में खुफिया एजंसी नाम की संस्था हुआ करती थी।
पत्रकारिता का पहला सवाल उनसे हुआ करता था कि इतनी बड़ी साजिश की आपको खबर क्यों नहीं लगी? यह सवाल कश्मीर से लेकर पंजाब और उत्तर प्रदेश तक है कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो व प्रवर्तन निदेशालय की तरह इनका कौशल विकास कब होगा? इनके पास रिपोर्ट क्यों नहीं होती कि अतीक अहमद जैसे मामले को सड़क पर निपटाने के जयकारे का नतीजा उत्तर प्रदेश पुलिस का बेसाख हो जाना होगा।
भारत के संविधान ने जिस अपराधी को उम्र-कैद की सजा दी थी उसकी पुलिस हिरासत में सड़क पर हत्या कर दी गई। अपराधी को खत्म करने में तीन नए अपराधी पैदा हो गए। चैनलों के टीआरपी के गणित को छोड़ सत्ता और समाज इस गणित का क्या खोया, क्या पाया समझ ले। गणित तो एक जमा एक दो ही बताता है। दो खत्म और तीन तैयार, यानी मिट्टी में मिलना नहीं मिट्टी से उग जाना।