इंसाफ का तराजू जो हाथ में उठाए/जुर्मों को ठीक तोले
ऐसा न हो कि कल का इतिहास-कार बोले
मुजरिम से भी जियादा/ मुंसिफ ने जुल्म ढाया
साहिर लुधियानवी

इतिहास से अगर आप तथ्यों को अलग कर देंगे तो वह अफसाना बन जाएगा। इतिहास लेखन में सबसे अहम है इतिहास दृष्टि यानी अतीत को देखने का नजरिया। नया नजरिया डालने के बजाए तथ्यों को बदल देना, मिटा देना आज आसान हो सकता है, लेकिन कल जब कोई और आएगा तो आप इतिहास बनाने वाले नहीं मिटाने वालों की कतार में खड़े नजर आएंगे। इतिहास का यह सबक है कि उस पर आज तक कोई कब्जा नहीं कर पाया है। इसलिए बेहतर है कि पुराने पन्ने फाड़ने के बजाए नए पन्ने जोड़िए। ‘इतिहास बदलने’ पर चल रही बात के बीच इतिहास के सबक याद दिलाता बेबाक बोल

ऊर्जा की दिशा की तकनीक ने मानव इतिहास रचा

इतिहास पर बात करने से पहले संदर्भ भौतिक-शास्त्र का। भौतिक-शास्त्र में ऊर्जा की अपनी महत्ता है। ऊर्जा की दिशा की तकनीक ने मानव इतिहास रचा है। दो पत्थरों को एक साथ रगड़ने से मिली ऊर्जा ने आग को जन्म दिया, जिसे मानव इतिहास में पहले आविष्कार का खिताब मिला। लेकिन, इतिहास की किताबों में ही आग ने बुनियादी जरूरत से आगे बढ़ कर हिंसा का रूप ले लिया। आग का भाव आगे चाहे जितना भी बदला हो, उसका कथ्य जिंदगी शुरू करने की पहली जरूरत से बदल कर जिंदगी खत्म करने की तरफ चला गया हो, लेकिन उसका तथ्य तो नहीं बदलेगा। तथ्य, यानी पत्थरों की रगड़ से पैदा हुई ऊर्जा। कच्चे, कड़े खाने को नरम करने करने वाली आग, सूरज के छुप जाने के बाद भी दुनिया को नजर में लाने वाली आग, ठंड में जिस्म को गर्माहट देने वाली आग।

इतिहास न तो गर्व की बात है और न शर्म की, बस वो सच है जो गुजर गया

अब इतिहास के दूसरे शब्द से गुजरते हैं-‘होलोकास्ट’। ‘होलोकास्ट’, मानव सभ्यता के उन बर्बर शब्दों में है जिसने आज भी जर्मनी का पीछा नहीं छोड़ा है। इसके बावजूद आधुनिक जर्मनी के स्कूलों में ‘होलोकास्ट’ एक अहम अध्याय है। बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं, कैसे उनके पुरखे एक वैसी विचारधारा के समर्थक थे, जिसे नाजी कहते हैं। जर्मनी के इतिहास ने ‘होलोकास्ट’ को वर्जित नहीं किया, इतिहासकारों ने नई किताबों में इस पुरानी बात को बड़ी संवेदनशीलता से समझाया कि यह हमारा अतीत है। शिक्षकों ने विद्यार्थियों को इसे पढ़ने और समझने की सलाहियत दी है। इस पद्धति से गुजरे जर्मनी के विद्यार्थियों के लिए उनका इतिहास न तो गर्व की बात है और न शर्म की, बस वो सच है जो गुजर गया। बर्लिन के इलाके में इससे जुड़ा संग्रहालय भी है।

यह सच है कि इतिहास, उसके लिखने वालों का होता है। जब सिकंदर अपने परिजनों से लेकर अन्य साम्राज्यों के लोगों की हत्या कर अपना साम्राज्य विस्तार शुरू कर चुका था तो युद्ध में उसके साथ चलनेवाले उसके अपने चुने हुए इतिहासकार उसे विश्व विजेता घोषित कर चुके थे। ऐसा शायद इसलिए कि रोमन इतिहासकारों के ज्ञान में सिकंदर के आधिपत्य में आई लगभग 15 फीसद जमीन ही पूरी दुनिया थी। विश्व-विजेता पर हम अपना नजरिया बदल सकते हैं, लेकिन यह तथ्य नहीं बदल सकते कि सिकंदर ने अपने हर उस रक्त-संबंधी की हत्या कर दी जो उसके उत्तराधिकार में रुकावट डाल सकता था। हम उन तारीखों और नक्शों को नहीं बदल सकते, जब और जहां सिकंदर ने युद्ध लड़े।

मुगल-काल को ‘मुगल-ए-आजम’ के जरिए देखेंगे तो अनारकली सबसे अहम दिखेंगी

वेदव्यास रचित महाभारत को सांस्कृतिक-सामाजिक इतिहास का बड़ा स्रोत माना जाता है। आज हम यह नहीं कह सकते कि वेदव्यास ने किसी एजंडे के तहत कौरवों को खलनायक तो पांडवों को नायक की तरह दिखलाया। यह दूसरी बात है कि आज हम उनमें से अपनी-अपनी पसंद के नायक खोज कर उसकी अलग गाथा लिख लेते हैं। कोई कर्ण को नायक मानता है तो कोई द्रौपदी में आधुनिक नारीवाद खोजता है तो द्रोणाचार्य-एकलव्य संबंधों से दलित-आदिवासी विमर्श भी पैदा होता है। कोई दुर्गा को नकार कर महिषासुर को स्वीकार रहा है। आज की पीढ़ी मुगल-काल को जब ‘मुगल-ए-आजम’ के जरिए देखती है तो वह उस अनारकली को सबसे अहम समझती है, जिसका इतिहास की किताबों में आधिकारिक तथ्यात्मक उल्लेख ही विवादास्पद है।

NCERT | Rewriting of History | Books |
कोई कर्ण को नायक मानता है तो कोई द्रौपदी में आधुनिक नारीवाद खोजता है।

इतिहास के सच में जब साहित्य की कल्पना आती है तो उसे अफसाना कहा जाता है। आज इतिहास की लड़ाई अफसानानिगारों से है। तथ्यों की बुनियाद पर खड़ा इतिहास कह रहा है कि मेरी मीनारों पर अफसानों के इतने भी कंगूरे नहीं डालो कि मेरी बुनियाद ही ढह जाए। फिर मलबे में सबका अस्तित्व धूल में मिल जाएगा।

इतिहास को लेकर सबसे दुहाराया जाने वाला वाक्य है-इतिहास खुद को दोहराता है। मतलब, जो आया है वो जाएगा। फिर बार-बार दोहराई बातें समझ क्यों नहीं आती कि इतिहास संप्रभु है। किसी भी काल का कोई भी प्रभु उस पर कब्जा नहीं कर पाया है। हर वक्ती प्रभु उस संप्रभु का किरायेदार ही है। फिर उसे, किसी और के लिए जगह खाली करनी ही होगी। जर्मनी में जोसेफ गोयेबल्स को लगा था कि वह इतिहास की किताबों में इतिहास निर्माता की तरह देखा जाएगा। लेकिन, इतिहास ने उसके कर्मों को ‘प्रोपगैंडा’ का नाम दिया है। वर्तमान में आप एक झूठ को सौ बार कह कर उसे सच साबित कर देने का वहम पाल लेंगे। लेकिन आपका काल-खंड खत्म होते ही वह स्वयंशुद्धिकरण से झूठ के खाते में रख दिया जाएगा।

NCERT | Rewriting of History | Books |
प्रो. दिनेश प्रसाद सकलानी निदेशक, एनसीईआरटी। (Photo: Facebook@Dinesh Saklani)

एंटोनियो ग्राम्शी का प्रसिद्ध कथन है कि मनुष्य प्रकृति नहीं इतिहास की उपज है। आज इस पर बहस हो सकती है कि मनुष्य का इतिहास आदम-हव्वा, मनु की मिथकीय गाथा से शुरू हो या डार्विन के विकासवाद से। इतिहास दोनों सिद्धांतों के आने के तथ्यों को रख सकता है। लेकिन, आप अपनी सुविधानुसार डार्विन के सिद्धांत का पन्ना फाड़ नहीं सकते हैं। आज आपने औरंगजेब के नाम का गलियारा बदल डाला तो हो सकता है कि कल सत्ता की मुख्य सड़क पर कोई और रंग की स्याही आ जाए और आपके जमाने के हर गली-कूचे की बुनियाद के पत्थर पर फिर से नाम बदल दिए जाएं।

विज्ञान शब्द खारिज किया जा रहा गोया ज्ञान के आगे ‘वि’ के योग ने बुरा किया

आज अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थानों से लेकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों तक में मिथकों पर अध्ययन हो रहे हैं। पहले हम मिथकों में विज्ञान को खोजते थे, कि विज्ञान भी सतत विकास का हिस्सा होता है। लेकिन आज हम विज्ञान शब्द को ही खारिज करने पर तुले हैं कि गोया ज्ञान के आगे ‘वि’ के योग ने सब बुरा ही बुरा कर दिया।

इतिहास-लेखन के लिए सबसे जरूरी है इतिहास-दृष्टि, यानी चीजों को देखने और समझने का नजरिया। इस नजरिये में फर्क हो सकता है। इतिहास कभी भी परम सत्य, शुद्ध या संपूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता है। पहले पूरा इतिहास लेखन शासक वर्गों ने अपने हिसाब से लिखा। दरबार में कवियों की नियुक्ति होती थी, जो शासकों को महानतम दिखाते थे। लेकिन, बाद के इतिहास में उन्हें ‘दरबारी कवि’ की ही उपाधि मिली वे इतिहासकार नहीं बन पाए। भारत के संदर्भ में शुुरुआती आधिकारिक इतिहासकार अंग्रेज ही थे तो उन्होंने खुद को उपनिवेश के भाग्यविधाता की तरह दर्शाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में हिंदुस्तानियों ने अलग नजरिए से इतिहास लिखा।

इतिहास का एक सार्वभौमिक मूल्य होता है। ‘समानता’ एक सार्वभौमिक मूल्य है, लेकिन जब महिलाओं की नजर से इतिहास लेखन को देखा गया तो कहीं भी समानता नहीं मिली। दलित और आदिवासी भी बेदखल थे। इतिहास के पुनर्लेखन में सत्ता के शक्ति-सिद्धांत में महिलाओं, दलित, आदिवासी की भूमिका को जोड़ा गया।

यहां पहला संदर्भ नजरिए का है और दूसरा मूल्यों का। अगर आप राजनीति-शास्त्र की किताब से ‘समानता’ को ही हटा देंगे तो आप वैश्विक संदर्भ में अलग-थलग पड़ जाएंगे। इससे उठी बहसों में आप विकलांग (दिव्यांग कह कर खुश हो लें) महसूस करेंगे। इन संदर्भों में वैश्विक ज्ञान व पाठ्यक्रमों से मुकाबले में हम बेदखल हो जाएंगे। इसलिए, सही तरीका यह है कि पुराने को हटाने के बजाए आप अपनी नई दखल दें। इससे आप नायक को खलनायक या खलनायक को नायक बना सकते हैं। सावरकर पर बहस नई नहीं है। लेकिन, अगर आप सावरकर से जुड़े तथ्यों को ही गायब कर देंगे तो आज आपका पलड़ा भारी दिख सकता है। लेकिन, तराजू को तोलने वाले के बदलते ही पलड़े पर आपका भार शून्य होगा।

NCERT | Rewriting of History | Books |
नया इतिहास बनेगा और पुराना हटेगा

पाठ्यक्रम में ‘जनतंत्र’ और ‘समानता’ को अगर हटा दिया जाएगा तो फिर जाति समानता, स्त्री समानता, आर्थिक समानता, सामाजिक समानता जैसे मूल्यों का क्या होगा? इतिहास में मूल्यों के मूल्यांकन का औजार ही खत्म हो जाएगा। तथ्यों को गायब कर आप उस नजरिये को भी गायब कर देंगे जहां इतिहास की किताब में भारतीयों का, भारतीयों के लिए और भारतीयों द्वारा लिखा इतिहास का नया अध्याय जुड़ रहा है।

किसी भी दौर में वैसा कुछ भी याद नहीं रखा गया जहां कुछ मिटाया जा रहा हो। इतिहास बनाने वालों का होता है, मिटाने वालों का नहीं। मिटाने वाले इतिहास के मलबे में ढूंढने पर भी नहीं मिलते। इतिहास की सीख है, जरा संभलिए, कुछ घटाइए नहीं अपना किया नया जोड़िए।