‘मुझको उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है’
उत्तर प्रदेश के बरेली में कमजोर तबके के लोगों को सड़कों पर बिठा जब उनकी देह पर कीटनाशक का छिड़काव किया जा रहा था तो लगा कि ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘शक्तिमान’ के साथ यह धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ के पुनर्पाठ का भी समय है। जिम्मेदारों की आंखों पर बंधी पट्टी को खोल उसे सवालों का परचम बनाने की जरूरत है।
जब कोरोना के विषाणु से सुरक्षा के लिए शहरी आबादी घर से दफ्तर चला रही थी तो घर और दफ्तर बनाने वाले नगर के नूर से बेदखल थे। राजमार्ग पर उनका कारवां पैदल ही चल पड़ा तो सभ्यता ने शर्म से अपनी आंखें मूंद लीं। और, उसके बाद वही हुआ जिसके लिए हम जाने जाते हैं। एक मस्जिद में सैकड़ों लोग जमा थे जिसका प्रशासन को इल्म न था। लापरवाही के इस विषाणु का अंजाम वही हुआ जिसके लिए इन दिनों हम अभिशप्त हो चुके हैं।
कोरोना के विषाणु से पूरा विश्व उलझ रहा है लेकिन हम अपने संदर्भ में देखें तो यहां लापरवाही, गैरजिम्मेदारी और जहालत से जर्जर देश की देह के अंग किसी भी हालात में नाकाम हो सकते हैं।
तो इस बार बहाना कोरोना है। कोरोना का विषाणु नंगी आंखों से नहीं दिखता तो हमारे जिम्मेदारों के हाल देख कर लगता है कि उन्होंने जिम्मेदारियों से बचने के लिए सुरक्षा मास्क अपनी आंखों पर बांध रखा है। अपराध शाखा ने तबलीगी जमात के अगुआ पर तो मामला दर्ज कर लिया लेकिन सुरक्षा और कानून में नाकामी के अपराध पर कब बात होगी? खुफिया एजंसियों से लेकर बीट कांस्टेबल तक को क्यों पता नहीं चल पाता है कि महामारी की आपदा के समय एक छोटी सी जगह पर इतने लोग जमा हैं। इस समय जब भीड़ का मतलब मानव बम सरीखा है तो ऐसी घोर लापरवाही कैसे हुई? शासन और प्रशासन को सूचना देने वाली बड़ी इकाई से लेकर छोटी तक की कड़ी हर वक्त नाकाम क्यों होती है? इस बार सतर्कता में आपकी लापरवाही से सिर्फ एक जगह के जमावड़े ने उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक कोरोना के विषाणु को पहुंचा दिया। आपका सूचना तंत्र इतना जमा हुआ क्यों था कि आपको इस जमावड़े की खबर नहीं लगी? दीन के नाम पर लोगों को ज्ञान और तर्क से विहीन करने वाले धर्मगुरुओं का संदेश आपके मुखबिरों के कान तक क्यों नहीं पहुंचा? पहले की ही तरह जिम्मेदार कौन का जवाब इस बार भी नहीं मिलना है, पर हर नए संकट पर यह पुराना सवाल स्वत:स्फूर्त चस्पां हो जाता है।
दिल्ली में जब राजमार्ग से होते हुए मजदूरों का काफिला अपने गांव की पगडंडी तक पहुंचने को हुआ तो राजधानी की सूनी सड़कों पर सरकार ने होर्डिंग लगाए। जब आसन्न भुखमरी की मार के डर से पैदल ही गांव की ओर बेदखल हुए तो शहर की सड़क पर लोगों से दिल्ली न छोड़ कर जाने की अपील की गई थी। कारवां गुजर जाने और गुबार से उबर जाने के बाद यह होर्डिंग बताता है कि जनता के अधिकारों का नाशक बनने के बाद सरकार उनके साथ कैसे कीटों जैसा व्यवहार करती है। सरकार के मंत्री ट्वीटर पर जब मजदूरों को दिल्ली नहीं छोड़ने का संदेश दे रहे थे, तब तक हम अपने समय का सबसे बड़ा विस्थापन देख चुके थे। सरकार जब तक ट्वीटर पर आने के लिए जूते पहन रही थी तब तक कई तरह की अफवाह वाट्सऐप समूहों में फैल चुकी थी। राजमार्ग से गुजर रहे मजदूरों को जब संक्रमण फैलाने का अपराधी घोषित किया जा रहा था तब हमें अंदाजा ही नहीं था कि धर्म के नाम पर जुटी भीड़ हम सबके लिए कितना बड़ा खतरा बनने वाली है।
सरकार और जनता के रिश्ते को परिभाषित करने के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ा एक प्रसंग याद आता है। सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र को लेकर सुनवाई चल रही थी। अदालत को सरकारी पक्ष ने बताया कि आबादी वाले इलाकों में पोस्टर लगा कर जनता को जागरूक किया जा रहा है। अदालत ने पूछा कि डूब क्षेत्र में आने वाले वन्यजीवों के लिए क्या करेंगे। सरकारी वकील की जुबान से सरकारी तकरीर फिसल गई कि वहां भी पोस्टर…। आज मजदूरों के पलायन कर जाने के बाद नहीं जाने की गुजारिश करता हुआ सरकारी पोस्टर हमें एक बार फिर घोर निराशा में ले जाता है। लेकिन इस बार निराशा इतनी परतों में है कि इसका हर छिलका हमारी संस्थागत नाकामी को नंगा कर रहा है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि इंसान कोरोना से नहीं अपने शरीर की जर्जरता से मरता है। जिसके शरीर में पहले से जितनी ज्यादा परेशानी उस पर उतना ज्यादा संकट। यहां तो कोरोना के साथ परिवार, समाज और सरकार के रुग्ण ढांचे से निपटना है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में कोरोना से जिस व्यक्ति की मौत हुई उसके परिवार ने पहले प्रशासन को सूचना नहीं दी, अस्पताल में भी नर्सों के हंगामे के बाद देर से इलाज शुरू हुआ। आरोप है कि बिहार में उस युवक को पीट-पीटकर मार दिया गया जिसने शहर से लौटने वाले दो लोगों की सूचना प्रशासन को दी थी। आगरा में मेघालय के एक युवा ने पूर्णबंदी के दौरान अपने कमरे में खुदकुशी कर ली। उसे कोरोना के संक्रमण का नहीं बेरोजगारी के संकट से भय था। एक युवा यह उम्मीद खो चुका था कि सामाजिक अलगाव के दौर से बाहर निकलने के बाद उसे नौकरी मिलेगी।
आज जब स्वास्थ्यकर्मी ही इस जंग के खिलाफ सबसे बड़े योद्धा हैं तो हमारे मोबाइल तक इंदौर का वह वायरल वीडियो भी पहुंच जाता है जिसमें डॉक्टरों पर थूका जा रहा है। पिछले हफ्ते हम कोरोना के जरिए कुदरत के संदेश के कसीदे पढ़ रहे थे, विश्व की महाशक्तियों को जंगी हथियार नहीं वेंटिलेटर और अस्पताल की बात करते सुन रहे थे। हमें लग रहा था कि यह बीमारी हमारे सामाजिक और राजनीतिक ढांचे के लिए बहुत बड़ा संदेश है।
दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक कोरोना किट सिर्फ मरीज नहीं बल्कि राज और समाज के खोखलेपन के नतीजे सामने रख रहा है। यह बता रहा है कि परिवार से लेकर सरकार तक की सेहत कितनी जर्जर है। कोरोना का कहर तो आज न कल खत्म हो ही जाना है। लेकिन परिवार से लेकर सरकार की रुग्णताओं की बात नहीं की तो जल्दी ही कोई नई समस्या हमें और खोखला कर देगी। इस महामारी के बाद भी मरीज को हिंदू और मुसलमान की तरह देख रहे हैं, मौत के डर से जिंदगी थमने के बाद भी जिंदगियों से प्यार नहीं बढ़ा पाए तो हम किसी न किसी तरह मरते ही रहने के संकट से घिरे रहेंगे।
मजहब की रहमत को जहमत बनाने वाला साद इस स्तंभ के छपने तक गिरफ्तार हो सकता है। लेकिन सोचिए कि ऐसा धर्मगुरु जनता के दिमाग को कैसे बंधक बनाता है कि वह राष्ट्र और उसकी सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है। साद जिस तरह से डॉक्टरों के खिलाफ जहर उगलकर लोगों को मस्जिद में जमा होने के लिए प्रेरित कर रहा था, वह ‘फंसे हुए’ नहीं बल्कि पूरी कौम को संक्रामक बीमारी के चक्र में फंसाने का मामला है। इस्लाम की आस्था के केंद्र सऊदी अरब में धार्मिक जमावड़े पर रोक लग गई लेकिन यहां इस्लाम की रक्षा के नाम पर लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल दिया गया। मौत के मंजर पर धर्म की फसल काटने वाला साद सिर्फ भारत के समाज और सरकार का नहीं बल्कि पूरे ग्लोब का मुजरिम है। डॉक्टरों की फौज और वेंटिलेटर भी कुछ नहीं कर पाएंगे अगर साद जैसे धर्मांध विषाणु को तुष्टिकरण का आॅक्सीजन मिलता रहेगा।