हम ने माना कि
तगाफुल न करोगे लेकिन
खाक हो न जाएं हम
तुम को खबर होने तक
(गालिब से माफी के साथ)

‘कश्मीर फाइल्स (Kashmir files)’ के बारे में बात करते समय उस समय की सच्चाई को याद करना चाहिए कि जब हिंदुओं पर इतना घट रहा था तो वे इससे कैसे निकले? तब के मुख्यमंत्री हिंदुओं को उनके नसीब पर छोड़ गए…।’

कश्मीर मनोरंजन का मसला नहीं है

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Finance Minister Nirmala Sitharaman) ने कांग्रेस पर वार करने के लिए संसद में उस फिल्म का जिक्र किया जिसमें कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandits) के पलायन की व्यथा है। हालांकि, इस फिल्म के आने तक घाटी में कश्मीरी पंडितों पर हमले बढ़ चुके थे और सरकार को अंदाजा नहीं था कि अब तक हौसला रखे, कश्मीरी पंडित अर्जियां देंगे कि हमें यहां नहीं रहना। जिस सरकार ने लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद आजाद भारत का सबसे मजबूत फैसला किया उसके नेता जब कश्मीर पर एक फिल्म का सहारा लेने लगे तभी हकीकत की जमीन कहने लगी कि माननीय नेतागण ध्यान दें, कश्मीर मनोरंजन का मसला नहीं है।

2014 में देश में जब मजबूत तरीके से सत्ता परिवर्तन हुआ था उस समय यह अंदाजा नहीं था कि इस सरकार का कश्मीर को लेकर जज्बा चुनावी वादों तक जज्बाती नहीं रहेगा। इस सरकार के संघर्ष की इमारत ही राम-मंदिर व कश्मीर पर संकल्प से बनी थी। सुखद था कि इसने सत्ता में आते ही दशकों तक अपने घोषणापत्र का हिस्सा रहे वादे को पूरा किया। सरकार दूसरी बार पहले से दमदार तरीके से चुनाव जीती और चाहती तो अगले चुनाव (2024) तक इसे रोके रख सकती थी, तात्कालिक राजनीतिक फायदा लेने के लिए।

rajauri
मंगलवार, 3 जनवरी, 2023 को जम्मू-कश्मीर के राजौरी में हाल ही में हुई आतंकी घटनाओं के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने के लिए जम्मू में कैंडल मार्च निकालते कश्मीरी पंडित। (पीटीआई फोटो)

लेकिन,सरकार ने दूसरी बार चुनाव जीतते ही अनुच्छेद-370 को खत्म किया, इस बड़े राजनीतिक हौसले का तमगा भाजपा के कंधे पर चमकने लगा। एक उम्मीद बनी कि भारतीय भूगोल के एक अहम हिस्से पर ‘कश्मीर हमारा है’ जैसा नारा नहीं लगाना पड़ेगा जो पड़ोसी देश के नापाक इरादे के कारण राजनीतिक मंचों पर गुंजायमान होता रहा है। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर को लेकर अलगाववादी विमर्श पर बहुत हद तक लगाम लगी। जनमत संग्रह कराने की मांगें भी खामोश होती गईं। कभी-कभी ये स्वर उभरते भी हैं तो अपनी ही प्रतिध्वनि के शोर से परेशान हो जाते हैं। इन सब चीजों को देख कर लगा कि प्रचंड बहुमत वाली सरकार वाकई कश्मीर पर जमीनी काम करना चाहती है।

सरकार के समर्थित लोगों का दावा था कि आतंकवाद कश्मीर के पांच जिलों तक ही महदूद है तो सरकार ने अपनी राजनीति को सही करने के लिए वहां के राजनीतिक-भूगोल का भी उलटफेर कर दिया। इतनी सकारात्मक चीजों के बीच सरकार पर शुरू से आरोप लगते रहे कि उसने अपने जनादेश के सहारे कश्मीर में पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया को धक्का दे दिया। इस बात पर विपक्ष सख्त हुआ कि वहां एक चुनी हुई सरकार को हटा कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इन आरोपों के बीच सरकार ने एक पूर्णकालिक राजनीतिक व्यक्ति मनोज सिन्हा को कश्मीर का उपराज्यपाल बना कर भेजा। वहां राज्यपाल का पद अब तक पूर्व नौकरशाहों के हवाले किया जाता रहा था।

मनोज सिन्हा की नियुक्ति से फिर एक भावना आई कि इस सरकार का मतलब जमीन पर काम करना है। केंद्र जल्द ही वहां चुनी हुई सरकार लाकर राजनीतिक स्थिरता लाएगा। हालांकि, उस समय भी मनोज सिन्हा के खिलाफ कई बातें थीं। मसलन, जम्मू-कश्मीर से उनका संबंध एक आम पर्यटक जितना ही था। उन पर चुनाव हारने का भी ठप्पा लगा हुआ था। इन सबके बावजूद उनके पक्ष में एक अच्छी बात थी, उनका पूर्णकालिक राजनीतिक होना।

ऐसे सख्त राजनीतिक कदमों के बाद अब ऐसा क्यों लग रहा कि कश्मीर पर केंद्र सरकार की पकड़ ढीली होती जा रही है। पकड़ ढीली दिखने का कारण यह है कि इतने बड़े राजनीतिक संघर्ष का असर जनता तक पहुंचाने के लिए विवेक अग्निहोत्री को चुना गया। जब आप शांत कश्मीर का दर्शन करवाने के लिए यूरोपीय सांसदों का दौरा तक करवा चुके हैं तो फिर उस फिल्म को तवज्जो देने की क्या जरूरत थी जो सिनेमा घरों पर कश्मीर के दर्द से विशुद्ध मुनाफा कमाना चाहती थी। आपको कांग्रेस के समय का कश्मीर नहीं अपने समय का नया कश्मीर ही दिखाना था और इतने गंभीर लक्ष्य के लिए मनोरंजन का सहारा लेना बड़ी गलती थी। ‘कश्मीर फाइल्स’ के निर्माता औसत फिल्मों के लिए ही जाने थे तो वे अपनी फिल्म से उत्कृष्ट बहस नहीं दे सकते थे।

‘कश्मीर फाइल्स’ को उस समय सरकार ने ‘सरकारी सिनेमा’ घोषित कर दिया जब वह कश्मीरी पंडितों की घर-वापसी कराने में बहुत कामयाबी हासिल करती नहीं दिख रही थी। जब कश्मीरी पंडित ही वहां नहीं रहना चाहते तो बाहरी क्या जमीन खरीदेंगे भला जिसका सरकार की ओर से वादा था। जहां फिर से मातम बरस रहा हो वहां शादी-ब्याह के सपने देखना तो बेमानी ही है।

‘कश्मीर फाइल्स’ पर सरकारी बिल्ला लगते ही वह कश्मीर में सरकार के खिलाफ चली गई। इस फिल्म को जहां कश्मीरी पंडितों ने अपने दर्द की दास्तान समझा वहीं उग्रपंथियों ने इसे अपने लिए चुनौती कबूल किया। सिनेमा के खिलाफ अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए जमीन पर सरकार पर वार शुरू हो गया। अब जब लगातार कश्मीरी पंडितों की हत्या हो रही है तो लगता है, बदलाव की बातें बेबुनियादी साबित न हो जाएं। कश्मीर में इससे ज्यादा नुकसान हो उससे पहले सरकार को सिनेमा की पटकथा से निकल कर वहां जल्द से जल्द राजनीतिक प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए। कश्मीर के इतिहास में ऐसे हालात में भी चुनाव हुए हैं जब आतंकवादियों ने धमकी दी थी कि चुनाव नहीं होने देंगे और जनता ने इकाई फीसद की संख्या में मतदान कर जम्हूरियत की जान बचाई थी।

Terrorism in jammu and kashmir
राजौरी के धंगरी इलाके में रविवार शाम 1 जनवरी को मारे गए नागरिकों के परिवार के सदस्यों से मिलने के लिए सोमवार, 2 जनवरी, 2023 को पहुंचे जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा। जम्मू-कश्मीर भाजपा अध्यक्ष रविंदर रैना भी नजर आ रहे हैं। (पीटीआई फोटो)

आजादी के बाद से ही कश्मीर में ऐसा माहौल बनाया गया था कि उसे दिल्ली से नियंत्रित किया जाता है और अब वहां फिर से इसी भाव की वापसी हो रही है। पहले जो आरोप कांग्रेस पर भाजपा लगाती थी अब वही आरोप संपादित होकर उसके हिस्से हैं। भाजपा की कश्मीर घाटी में कभी मजबूत पकड़ नहीं रही। उसकी निर्भरता स्थानीय कश्मीरी नेताओं पर रही। भाजपा के नेताओं का प्रभाव जम्मू तक है। अनुच्छेद-370 को लेकर भाजपा की सरकार फैसला ले पाई तो उसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दशकों की मेहनत थी। संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर अपनी बात पहुंचाने में कामयाब हुए थे।

काश, सरकार संघ के अनुभव का फायदा उठा कर कश्मीर में जनतांत्रिक आबोहवा बनाती। लेकिन, अनुच्छेद-370 के खात्मे की तालियां इतनी भली लग रही थी, कि इसकी गूंज से बाहर नहीं निकली और इतनी देर कर दी कि ताली बजाने वाले हाथ ही अब ऊंगली उठा रहे हैं। सरकार के पास इस देरी के लिए कोई वाजिब कारण भी नहीं हैं कि कोई विवेक अग्निहोत्री ‘मजबूती की मजबूरियां’ जैसी फिल्म बना डाले।
कश्मीर में संघ के लंबे राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष के बरक्स भाजपा के नेता अगर संसद से लेकर सड़क तक एक औसत सिनेमाकार की कृति को ले आए हैं तो यह वैसा ही है जैसे सरहद पर देश की रक्षा करने वाले सैनिकों के बजाए मुहल्ले में झगड़ा निपटाने की निगरानी में लगे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया जाए।

गलत कदम हर सरकार से उठते हैं, बड़प्पन इसी में है कि गलती मान कर राजनीतिक कवायद शुरू कर दी जाए। उत्तर प्रदेश वाले कश्मीर के उपराज्यपाल को भी मीडिया की सुर्खियां बनने के सुख से ऊपर उठना चाहिए। कड़ी निंदा और कड़ी कार्रवाई जैसे चुके हुए शब्दों को सेवानिवृत्ति दे दें। किसी भी मंच पर आप महज मीडिया में आई खबरों के आधार पर नहीं कह सकते कि हां जी, सब ठीक है। विवेक अग्निहोत्री जीवन भर की कमाई करके जा चुके हैं, आपके सामने चुनौती है कि बची-खुची कमाई भी गंवा न दें।

पिछले साल की सुखद खबरों में थी कश्मीर में सिनेमाघरों का खुलन। गुलजार सिनेमाहाल को खुशहाल शहर का मानक माना जा सकता है। सरकार जनता को मनोरंजन करने दे और सिनेमा के प्रभाव से बाहर निकले, नहीं तो उसके पास एक त्रासद पटकथा के अलावा कुछ नहीं बचेगा। जिस अनुच्छेद को खत्म किया है, नए सिरे से उसके चंद शब्द लिखे हैं कृपया उस अनुच्छेद को पूरा करें।