साहित्य और आंदोलनधर्मिता – बैठे ठाले का शगल मौजूदा दौर में हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में आंदोलनों की अनुपस्थिति का एक बड़ा कारण हिंदी समाज की जड़ों से… By वीरेंद्र यादवFebruary 11, 2018 05:45 IST
मौजूदा दौर में लेखक संगठन स्वीकार करना होगा कि राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति की बाध्यता के चलते अपनी प्राथमिकताएं और व्यूहरचना होती… By वीरेंद्र यादवFebruary 19, 2017 05:09 IST
चर्चा: युवा पठनीयता के इलाके आज अगर हिंदी का गंभीर साहित्य कुछ हजार पाठक-लेखकों तक सिमट कर रह गया है। By वीरेंद्र यादवDecember 11, 2016 04:12 IST
मनुसंहिता नहीं मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र प्रेमचंद ने बिना मार्क्सवाद का नाम लिए कहा था- ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो,… By वीरेंद्र यादवSeptember 11, 2016 05:55 IST
अवसरः जहां से रोशनी की लकीर निकलती है ‘गोदान’ के प्रकाशन के अस्सीवें वर्ष में प्रेमचंद के इस उपन्यास का पुनर्पाठ भारतीय समाज की उन मूलभूत सच्चाइयों से… By वीरेंद्र यादवJuly 31, 2016 02:19 IST
साहित्य : आलोचना नहीं, प्रशस्तिवाचन सच है कि आलोचकों से लेखकों की नींद हराम होने की हिंदी साहित्य में लंबी परंपरा रही है। By वीरेंद्र यादवMay 15, 2016 02:56 IST
Avatar: Fire and Ash BO Collection: ‘धुरंधर’ की आंधी में नहीं टिक पाई ‘अवतार 3’, जानें पहले दिन किया कितना कलेक्शन
जनसत्ता संपादकीय: किधर जा रहा बांग्लादेश? बिगड़ती कानून-व्यवस्था, हिंदुओं पर हमले और भारत की बढ़ती चिंता
Aaj Ka Tarot Rashifal 20 December: इन 3 राशियों की आज खुल सकती है किस्मत, ‘Wheel of Fortune’ लाएगा अचानक धन लाभ, जानें दैनिक राशिफल