यह तो तय है कि हमारे जीवन में पानी की आवश्यकता जन्म से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है। पानी की उपलब्धता के लिए बह रही नदियां, लहराते सागर, झर-झर बहते झरने, गहरे नाले सभी प्रकृति की देन हैं। दूसरी ओर, नहरें, कुएं और बावड़ियां मानव निर्मित हैं। एक समय था जब हमारे देश में कुएं और बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में थे और इनमें बरसाती पानी जमा होता था। इसी तरह उन इलाकों में जहां बारिश और पानी की कमी होती थी, घरों में कुंड बनाए जाते थे। घर की छत पर जमा हो रहे बारिश के पानी को इस कुंड तक ले जाने के लिए नालियां बनाई जाती थीं और इस पानी को पीने के काम में लिया जाता था। यहां यह भी बिंदु महत्त्व रखता है कि यह पानी हमें नुकसान नहीं पहुंचाता था।

आज घरों में बरसात के पानी का संचय करने वाले कुंड नाममात्र के हैं। अब कुएं नहीं हैं, बावड़ियां नहीं हैं। जो हैं, उनमें काई जमा है। वह पानी पीने के लायक तो नहीं है और उसका उपयोग नहाने-धोने के लिए भी नहीं किया जा सकता है। जानवर भी उस पानी के नजदीक नहीं जाना चाहते, क्योंकि वह सड़ांध मार रहा है। दरअसल, पानी की प्रकृति निर्मल होती है और चंचलता भी उसमें कूट-कूट कर भरी होती है। आज प्रकृति निर्मित नदियों को हमने कचरा घर मान लिया है।

नदियों के किनारों पर बसे शहरों के कल-कारखानों ने अपने उत्पादों से निकलने वाले तमाम कचरे को हमेशा पानी में बहाया है और लाख सख्ती के बावजूद नदियां आज भी प्रदूषित हो रही हैं। अब न तो नदियों में निर्मलता है और न ही मन को मोहने वाली चंचलता। अब पानी गाहे-बगाहे अपना रौद्र रूप दिखाता है। इस कारण से नदियों के किनारे बसे शहरों में रहने वालों की प्रकृति भी दिनोंदिन कठोर होती जा रही है। देश में पानी को लेकर झगड़े आम बात हो गई है। यहां तक कहा जाने लगा है कि आने वाले वक्त में अगर विश्व युद्ध हुआ तो उसका मुख्य कारण पानी होगा। पानी के मामले में जिस तरह के अभाव की स्थिति, छीना-झपटी, पानी के लगातार कारोबार बनते जाने की हालत बनती जा रही है, भूजल सूखने की खबरें आ रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि पानी के मसले पर टकराव एक स्वाभाविक स्थिति होगी।

पानी की शुद्धता और पोषक तत्व से नहीं है किसी को मतलब

पानी तो सबको चाहिए और वह मिल भी रहा है, लेकिन उसकी शुद्धता और उसमें पोषक तत्त्व की मौजूदगी की परवाह किसी को नहीं है। हम प्रकृति की निर्मम हत्या करके स्वयं को बलिष्ठ समझने लगे हैं। नदियों के रास्ते में बने घने जंगलों को हमने उजाड़ना शुरू कर दिया है। विकास के बहाने से हमने नदियों का पानी स्वयं से ही दूर कर लिया है। हमारी निर्दयता देखकर नदियां अपना रास्ता बदल रही हैं। नदियों में जब भी तेज बहाव होता है, तब पानी गांव, खेतों और घरों में घुस जाता है। शहरों की सड़कों में पानी की निकासी के पर्याप्त प्रबंध न होने से पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है। बाद में जब बाढ़ का पानी उतरता है तो पीछे रह जाते हैं छोटे-बड़े पत्थर, मटमैला, काला और गहरा गाद, सूखे-गीले कांटों का जमावड़ा और साथ ही ठहरे हुए पानी से जन्म लेने वाली बीमारियां।

हमने पानी को केवल उपभोग की वस्तु मानना प्रारंभ कर दिया है। यह जानते हुए भी कि पानी हमारे जीवन का आधार है, हम उसकी प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एक जमाना था जब पानी की संस्कृति हमारे दिलों और घरों में मौजूद थी। हमारी प्राचीन सभ्यता की ओर मुड़ कर देखें तो हम पाते हैं कि हमारी संस्कृति को पानी ने ही पाला-पोसा है। पहाड़ों से शुरू होने वाला कलकल पानी पतली और अलग-अलग धाराओं के रूप में जंगलों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से निकलते हुए नदियों के रूप में बहता हुआ जल सागर में समाता देखकर हमें सुकून मिलता था। यह पानी ही बताता है कि निरंतर चलते रहना ही जीवन है।

समुद्र हमें देता है सीख

समुद्र का विशाल रूप हमें सीख देता है कि हमारा जीवन दुख-सुख, आशा-निराशा, उतार-चढ़ाव का अद्भुत संगम है। बहते पानी को रोकने के लिए किए जाने वाले षड्यंत्रों की ही तरह ढेर सारे लोग हमारे जीवन की सुचारु गति में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। ईर्ष्या करते हैं। हमारा अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास करते हैं। हमें पनपने देना नहीं चाहते। साथ ही इसके विपरीत कुछ लोग जो संख्या में भले ही कम हों, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमें सहयोग करते हैं। वे हर पल हमारा साथ निभाते हैं। दुआएं देते हैं। हौसला प्रदान करते हैं। हमारी उन्नति के लिए प्रार्थना करते हैं।

हमें पता है कि समुद्र सभी नदियों, नालों को उनसे उनका उद्गम स्थल, रंग-रूप, उनकी कमियां पूछे बगैर अपने भीतर समेट लेता है। पानी के साथ बहकर आ रही प्रत्येक वस्तु को भी वह अपने तल में पनाह दे देता है। यही समुद्र हमें भी ज्ञान प्रदान करते हुए सीख देता है। वह चाहता है कि हम भी मिलने वाले स्नेह, हर्ष और घृणा को अपने हृदय में बसा कर रख लें तो बेहतर है। अन्यथा जो हमने बाहर छोड़ दिया, वह कीचड़ बनकर हमेशा हमें सालता रहेगा। जिस तरह से पानी का कोई रंग नहीं होता, ठीक उसी तरह हमें भी हमेशा सादा रहना आना चाहिए।