मोनिका भाम्भू कलाना
यात्राएं बहुत से लोगों के लिए स्वप्न होती हैं। घूमना आजकल एक चलन और उपभोग का माध्यम भी बन गया है। लोगों को लगता है जैसे कहीं बाहर जा आने मात्र से उनकी बहुत-सी समस्याओं का हल निकल आएगा। बहुधा लोग यह कहते सुने जाते हैं कि अपने साथ के सब लोग हर बार कहीं न कहीं जाकर आते हैं। हमें कितने साल हो गए हैं कि हम कहीं नहीं जा रहे, हमें भी जाना चाहिए।
यह सही है कि यात्राएं व्यक्ति को अपनी बंद दुनिया से निकालकर उन्हें खुली हवा में सांस लेने का अवसर मुहैया कराती रही हैं। लेकिन इस उपभोक्ता युग में हर खरीदी जाने वाली वस्तु की तरह ‘यात्रा’ और यात्री, दोनों पर ही अपेक्षाओं का बहुत दबाव है। अतिरिक्त तैयारी और सतर्कता ने यात्राओं की सहजता का गला घोंट दिया है। लोग कुछ देखने जाते हैं या खुद को दिखाने जाते हैं, इस मामले में वे स्वयं ही स्पष्ट नहीं हैं।
यात्रा अपने आकर्षण में एक प्रक्रिया रही है। यात्रा और कहीं पहुंचना, दोनों एक ही चीज नहीं है। इनमें फर्क है। यह सही है कि कहीं पहुंचने के लिए यात्रा आवश्यक है और इस दृष्टिकोण से यात्रा केवल साधन है, साध्य नहीं। वह माध्यम है। ऐसा रास्ता जिसे पार किए बगैर हम अपने लक्ष्य तक नहीं जा सकते। एक ऐसी प्रक्रिया, जिसे पूरा करने की बाध्यता हम सब पर होती है, लेकिन यह सिक्के का एक पहलू मात्र है, एकमात्र नहीं।
यात्रा अपने आप में केवल साधन नहीं होकर साध्य भी हो सकती है, बशर्ते उसी का आनंद उठाया जाए। अगर उसे जीया जाए, अगर इस बात पर गौर किया जाए कि यात्रा समय काटने का जरिया या मन-मिजाज बदलने का तरीका मात्र नहीं होकर अपने आप में इससे कहीं बहुत अधिक है। अगर व्यक्ति उस प्रक्रिया को, उस प्रविधि को समझ सके कि क्यों ऐसा होता है कि थकान के बावजूद यात्राएं आमतौर पर अधिकतर लोगों को नयापन देती हैं। उन्हें ताजा और जीवंत महसूस करवाती हैं।
यात्रा कहीं पहुंचने का ही माध्यम नहीं, खुद से रूबरू होने का साधन भी है। कोई भी इस बात का अनुभव कर सकता है कि घर की चारदिवारी में गुजारे जीवन के हिस्से के मुकाबले वह जीवन कैसा होता है, जब वह कहीं भी घूमने या यात्रा पर निकलता है। यह केवल खुद को राहत या सुकून देने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मस्तिष्क और विचार के विस्तार का अवसर भी उपलब्ध कराता है।
यह एक रोचक बात है कि जिस आंख से व्यक्ति दुनिया को देखता है, उसी दृष्टि से खुद को देखने-समझने की कोशिश कर सके। यात्राएं ही अक्सर ऐसा अवसर मुहैया करवाती हैं। यात्राओं में व्यक्ति अकेला नहीं, खुद के साथ सफर करता है। अब तक जीया हुआ अपना जीवन ही उसके सामने विभिन्न रूपों में चलने लगता है।
यात्राओं में व्यक्ति के साथ-साथ उसका दिमाग भी दौड़ता है और उसके लिए अब तक बाहरी रही दुनिया से उसको नए सिरे से जुड़ाव महसूस कराता है। रास्ते में होना, लगातार चलते रहना और कहीं न पहुंचना ही यायावरों को सम्मोहित करता रहा है। सफर उनके लिए दूरियों के हिसाब से कभी अहमियत नहीं रखता। यात्रा का मतलब है बस किसी रास्ते में होना।
फिर फर्क नहीं पड़ता कि हम किसी छोटे-से गांव जा रहे हैं या किसी महानगर में। केवल कहीं पहुंचने में दिलचस्पी के बजाय यात्रा मार्ग में चलते हुए अपने समांतर बाहर के ठहरे हुए बुत सरीखे लोगों और शेष सब कुछ के, जो गतिहीन है, के साथ स्वयं को गति में देखना ही व्यक्ति को बहुत कुछ को समेटते हुए समग्र को देख सकने वाली दृष्टि दे सकता है। चीजों को दूर से देखना सचमुच रोमांचकारी अनुभव होता है।
कितना अद्भुत होता है हर चीज को बच्चों-सी उत्सुकता और नएपन से देखकर मुस्कराना या किसी को देखकर उसके दर्द को महसूस कर पाना। घूमना इसलिए खास नहीं होता कि व्यक्ति किसी जगह जाकर कुछ देख आता है, बल्कि इसलिए कि सफर में व्यक्ति दूसरों को ही नहीं, खुद को भी अलग होकर देख पाता है। यह भी सही है कि सफर में हमेशा एक डर और रोमांच रहता है कि यह रास्ता कभी भी पूरा पार न हो।
चीजें इसी तरह चलती रहें। सफर में कई बार अनचाहे ही अजीब स्थितियां भी पैदा हो जाती हैं। काफी कुछ व्यक्ति विशेष के मन और स्वभाव के प्रतिकूल होता है, लेकिन अपनी दुनिया में अपनी बादशाहत का आदी मन औरों के नजरिए से दुनिया को देखना भी इसी प्रक्रिया में सीखता है। व्यक्ति महसूस करता है कि यह जीवन रूपी सफर भी ठीक एक छोटे-से सफर की तरह पूरी तरह उसके नियंत्रण में कभी भी नहीं होता। यात्राएं सिखाती हैं कि मनुष्य प्रयास करे, सतत सुधार करे, अनुभवों से सीखे, यह बहुत जरूरी है, क्योंकि निजता की कानूनी बातों से परे सामंजस्य आज भी व्यावहारिक जरूरत है।