जब कोई उथल-पुथल से भरी स्थिति आती है, तब हम यह कभी-कभार सोचते जरूर हैं कि आज आपाधापी की जिंदगी में हमारे भीतर का धैर्य जवाब देने लगा है, लेकिन इसका कारण इसमें छिपा है कि दरअसल, जीवन की गति को हमने बहुत तेज कर दिया है। सफलता के घोड़े को पकड़ने के लिए हम आंखों में पट्टी बांध कर दौड़ रहे हैं। हम यह भी नहीं देख रहे कि उस घोड़े को पकड़ने के योग्य हैं या नहीं। हमारी उसे पकड़ने की दक्षता है भी या नहीं। बस देखादेखी में यह सब हो रहा है, जो कई बार हमारी दुर्गति का कारण भी बन रहा है। समय की रफ्तार को पकड़ लेने की हमारी जिद हमें कहीं का नहीं छोड़ रही है। हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करते हुए कर्म करते रहने से सफलता के फूल खिलते हैं। समय आने पर ही ऋतुओं का आगमन होता है।

प्रकृति समय के संयोजन में माहिर है। हम प्रकृति से इस संयोजन की शिक्षा नहीं ले पाते। यह सब हमारी अधीरता के कारण हो रहा है। बचपन से ही माता-पिता हमें यह अधीरता विरासत में देने लगते हैं। माता-पिता चाहते हैं कि बच्चा पैदा होने के कुछ ही समय बाद जल्दी से बोलने लगे, चलने लगे। थोड़े बड़े होने के बाद उसका स्कूल में दाखिला हो जाता है। फिर उसके ऊपर पढ़ने का बोझ लाद दिया जाता है। इस तरह उससे उसके बचपन का आनंद छीन लिया जाता है। यहीं से उसके भीतर धैर्य की कमी दिखाई देने लगती है।

दरअसल, उसे सब कुछ जल्दी पा लेने की शिक्षा दी जाती है और वह सब कुछ जल्दी-जल्दी पा लेना चाहता है। यही वजह है कि बड़े होने पर बेहद संवेदनशील अवसरों पर भी उसके भीतर का धैर्य जवाब देने लगता है। इसी वजह से बच्चा जिद्दी भी हो जाता है। प्रतीक्षा और धैर्य जैसे शब्द से वह अपरिचित ही रहता है। वह इसके मायने भी नहीं समझ पाता। माता-पिता हर खुशी देने के प्रयास में बच्चे से बहुत कुछ छीन रहे हैं। हर अवस्था में धैर्य का महत्त्व है। चाहे वह बचपन हो, जवानी हो या फिर बुढ़ापा। धैर्य के धर्म का निर्वहन करने वाला सफलता की सीढ़ियों पर दौड़ने लगता है।

जल्दीबाजी में बहुत कुछ छूटता दिख रहा

आज हमारे आसपास हड़बड़ी और तेज रफ्तार के प्रति दीवानगी में बहुत कुछ छूटता दिख रहा है। मगर हमारे पूर्वजों में गजब का धैर्य था। वे किसी एक बात के लिए घंटों, महीनों की प्रतीक्षा करने में भी निपुण थे। हालांकि वे अपने कर्म के प्रति आश्वस्त रहते थे। उन्हें किसी प्रकार का भ्रम नहीं रहता था। आज हम भ्रम के वशीभूत होकर भ्रमर की तरह भटक रहे हैं। कथाओं में दर्ज है कि हमारे ऋषि-मुनि वर्षों तक धैर्यपूर्वक तप करते थे, तब जाकर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति होती थी। एक संदर्भ की बात करें तो तो भगवान कृष्ण गजब के धैर्यवान थे। अधीरता उन्हें विचलित नहीं कर पाती थी। ‘महाभारत’ में उनके धैर्य के बारे में पढ़ा जा सकता है। शिशुपाल की एक सौ गालियों और अपमान को वे धैर्यपूर्वक सुनते रहे। इस बीच उन्होंने स्वयं को विचलित नहीं होने दिया।

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इसी प्रकार भगवान राम धैर्य के जीवंत प्रतिमान थे। उन्होंने माता कैकई द्वारा दिए गए वनवास को धैर्यपूर्वक स्वीकारा। माता-पिता की अवज्ञा नहीं की। उनके प्रति मन में दुर्भावना नहीं पाली। आज हम राम और कृष्ण की भक्ति को लेकर तो बहुत संवेदनशील होते हैं, मगर उनसे उनके गुणों को अंगीकार करने को लेकर उदासीन रहते हैं। धैर्य का गुण हमें जीवन में गंभीरता, जीवट और जिजीविषा जैसे गुणों का सान्निध्य प्रदान कराता है। अगर हमारे भीतर धैर्य नहीं, तो हम इन गुणों का सामीप्य प्राप्त नहीं कर सकते।

हर किसी को सब कुछ तुरंत पाने की इच्छा

वर्तमान पीढ़ी के भीतर धैर्य का लोप होता जा रहा है। उनके भीतर सब कुछ बहुत जल्द प्राप्त करने की प्रबल इच्छा है। यह पीढ़ी रातों रात धन-वैभव से समृद्ध होना चाहती है। इस सबके पीछे आज की जीवनशैली का बड़ा हाथ है। आज हम सभी चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं। दूसरे को देखकर हम भी उन्हीं के जैसा हो जाना चाहते हैं। बड़ी गाड़ी, बड़ा बंगला, अकूत संपति सब कुछ हमें चाहिए। भले ही इसके लिए हमें अनीति का सहारा ही क्यों न लेना पड़े। हमें समझना होगा कि सफलता का कोई संक्षिप्त रास्ता नहीं होता। हम किसी लघु मार्ग पर चलकर दीर्घकालीन सफलता के सपने नहीं बुन सकते। यह सब बेईमानी होगी। हमें बचपन से ही अपने बच्चों को यह सब बताना होगा कि धैर्यपूर्वक परिश्रम करके प्राप्त की गई सफलता स्थायी होती है। अगर हमने धैर्य खो दिया तो निश्चित ही हम अनीति के मार्ग पर चलने लगेंगे। फिर वह मार्ग आगे चलकर दलदल का रूप ले लेता है, जो दलदल हमें अवनति के मार्ग पर बहुत नीचे धकेल देता है।

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हमारे भीतर किसी वैज्ञानिक, किसी अनुसंधानकर्ता के जैसा धैर्य होना चाहिए जो वर्षों तक प्रयोगशालाओं की खाक छानते हैं, तब जाकर उन्हें सफलता का आनंद प्राप्त होता है। यह आनंद अनूठा और अनिर्वचनीय होता है। यह सफलता असाधारण होती है। आज हम जो भी आविष्कार देख रहे हैं, वह वर्षों, दशकों के धैर्य का परिणाम है। अगर हमें जीवन में कुछ प्राप्त करना है तो अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी। धैर्य के रथ पर आरूढ़ होकर सफलता के दुर्ग तक पहुंचा जा सकता है। अन्यथा हम दुर्ग के स्वामी बनना तो दूर, उसके दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे। हमें जीवन में प्रतिपल धैर्य के महत्त्व को समझते हुए आगे बढ़ना चाहिए। तभी हम कुछ नया कर पाएंगे। जीवन में बड़े लक्ष्य धैर्य को ढाल बनाकर ही प्राप्त किए जा सकते हैं।