शिखर चंद जैन
‘चलना सही रास्ते से ही/ चाहे फेर ही क्यों न हो/ बैठना भले लोगों में/ चाहे बैर ही क्यों न हो।’ देशभर की विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न समाज के बुजुर्गों ने यह संदेश हमेशा ही अपनी युवा पीढ़ी को दिया है। इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि भले ही जरा घूम कर जाना पड़े या लंबी दूरी तय करनी पड़े और कुछ देर हो जाए, लेकिन हमेशा सही मार्ग पर ही यात्रा करनी चाहिए।
इसी प्रकार भले ही किसी बात पर मनमुटाव हो और ज्यादा बोलचाल न हो, लेकिन संगत हमेशा सकारात्मक ऊर्जा वाले सज्जन और समझदार लोगों की ही करनी चाहिए। दुनिया भर में अलग-अलग विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने भी अपने अध्ययनों में ऐसा पाया है। वैज्ञानिकों के अनुसार, हर व्यक्ति के इर्द-गिर्द एक ऊर्जा क्षेत्र होता है। जब हम किसी के बहुत नजदीक जाते हैं तो उसके और हमारे ऊर्जा क्षेत्र में ऊर्जा व सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
जाहिर है, अगर सकारात्मक और अच्छी ऊर्जा का आदान-प्रदान होगा तो यह हमारे तन और मन के लिए फायदेमंद होगा और नकारात्मक या बुरी ऊर्जा आएगी तो नुकसानदायक होगा। आधुनिक भाषा में इस ऊर्जा क्षेत्र को ‘माइक्रोबायोम’ नाम दिया गया है। हमारा ‘माइक्रोबायोम’ हमारे परिवार, मित्रों और पड़ोसियों से तैयार होता है।
प्रख्यात विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि हमारे सामाजिक संपर्क हमारे तन और मन के ‘माइक्रोबायोम’ को ऊर्जा देते हैं। ये संपर्क हमारे स्वस्थ या अस्वस्थ रहने की वजह हो सकते हैं। हमारे शरीर के भीतर और बाहर जो जीवाणु होते हैं, वे ताउम्र हमारे सामाजिक संपर्कों के अनुसार बदलते रहते हैं।
जिनके साथ हम लंबे समय तक रहते हैं, उनके जीवाणु हमारे संपर्क में आते हैं। जैसे जीवनसाथी, माता-पिता, व्यवसाय सहभागी, बच्चे, नजदीकी रिश्तेदार आदि। ये जीवाणु भी परस्पर वैसे ही संपर्क में रहते हैं, जैसे हम इन लोगों के संपर्क में रहते हैं और धीरे-धीरे जीवाणुओं का यह पूरा समूह एक जैसा होने लगता है।
दुनिया भर के हजारों लोगों के पेट और मुंह के जीवाणुओं के अध्ययन के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘माइक्रोबायोम’ के नाकाम होने से संबंधित बीमारियां आंशिक रूप से संक्रामक होती हैं। सबसे पहले हमें माता-पिता से अपना ‘माइक्रोबायोम’ मिलता है, उसके बाद हम जैसे लोगों के बीच रहते हैं, यह वैसा ही रूप लेता जाता है।
इटली की ‘यूनिवर्सिटी आफ ट्रेंटो’ के माइक्रोबायोम अनुसंधानकर्ता मीरिया वैलेस कोलोमर, निकोला सेमाटा और उनकी टीम ने दुनिया भर के अलग-अलग देशों से ग्रामीण और शहरी इलाकों के दस हजार लोगों के डीएनए नमूनों का विश्लेषण किया। वैज्ञानिकों ने पाया कि नवजात शिशुओं के पेट में पहले वर्ष में ‘माइक्रोबायोम’ संरचना मां से प्रभावित होती है। लेकिन इसके बाद में वे धीरे-धीरे दूसरे लोगों से प्रभावित होने लगते हैं।
समाजशास्त्रियों का मानना है कि हमारे बुजुर्ग वाकई समझदार थे, इसलिए उन दिनों नियमित सत्संग की परंपरा थी, जहां धार्मिक और सात्विक विचारों वाले लोग एक साथ एकत्रित होते थे। रोज चौपाल लगती थी, जहां खूब बातें होती थीं, विचार-विमर्श और वाद-विवाद होते थे और योग या प्राणायाम का अभ्यास, हंसी-ठट्ठा होता था। विभिन्न विचारों को सुना और सुनाया जाता था। इससे सकारात्मक ऊर्जा के ‘माइक्रोबायोम’ बनते थे।
सिर्फ एक-डेढ़ दशक पहले समाज में आपसी दूरी इस कदर नहीं देखी जाती थी। अलग-अलग बहानों से रिश्तेदारों का एक दूसरे के यहां आना-जाना था। वे महीने या पंद्रह दिन एक दूसरे के यहां ठहरते भी थे। तब एकल या छोटा परिवार और रिश्तेदारों के शहर में जाकर भी होटलों में ठहरने की परंपरा नहीं थी। बल्कि किसी शहर में परिवार के किसी सदस्य के होने के बावजूद अगर कोई होटल जैसी जगह पर ठहरता था, तो उसे अच्छा नहीं माना जाता था। शिकायत की जाती थी कि शहर में आने वाला व्यक्ति उस परिवार को अपना नहीं मानता है। यह अपने आप में एक सूत्र में बंधे व्यक्ति और समाज का एक बेहतर रूपक है, जिससे कोई समाज ज्यादा मानवीय बनता है।
यों भी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे आपस में सुख-दुख साझा करने की जरूरत पड़ती है, तभी वह अपने भीतर मानवीय मूल्य को कायम रख पाता है। यह संवाद और संवेदना के सूत्र से ही संचालित होता है। तन और मन को स्वस्थ और दुरुस्त रखने के लिए आज फिर से जरूरत है इन बातों को समझने और अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से लागू करने की।
लेकिन आज की हकीकत क्या है? आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर परिवार की क्या हालत हो गई है? सुविधा, एकांत की जरूरत और विकास की दलीलों के बीच समाज और परिवारों के तार जिस कदर कमजोर होते जा रहे हैं, वह कहां जाकर रुकेगा? आखिर क्या कारण है कि किसी मुसीबत में पड़ने पर व्यक्ति को अपने परिवार या फिर समाज के अन्य लोगों की जरूरत पड़ती है, तब उसे लगता है कि वह कितना अकेला हो गया है? क्या समय रहते इस ओर सोचने की जरूरत नहीं है?