सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
निद्रा उस स्थिति को कहते हैं, जिसमें मनुष्य का शरीर आराम करता है और उसे शांति और सुख की अनुभूति होती है। यह एक स्वाभाविक जैविक प्रक्रिया है, जो हर मनुष्य को नियमित रूप से करनी पड़ती है। निद्रा के विभिन्न प्रकार होते हैं, जिसमें एक प्रकार में निश्चित निद्रा प्रमुख है। यह वह निद्रा होती है, जो हम नियमित रूप से रात्रि के समय में लेते हैं, जब हमारे शरीर की हृदय गति सामान्य होती है।
इसके बाद है अशुद्ध निद्रा जो अप्राकृतिक कारणों से हमारी निद्रा में बाधाएं पैदा करती हैं। इसमें उच्च तापमान, ध्यान विकृति, रोग, तनाव आदि कारक होते हैं। तीसरे प्रकार की निद्रा है- अचिंतित निद्रा। इस निद्रा को वैसे रूप में देखा जाता है जिसमें हमारे मन में कई तरह की चिंताएं उमड़-घुमड़ रही होती हैं और हम शांत अनुभूत नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति के मूल कारक पारिवारिक तनाव, द्वेष, कलह आदि होते हैं।
फिर अतिरिक्त निद्रा वह निद्रा होती है, जब किसी को असामान्य रूप से बहुत अधिक समय सोने की आवश्यकता होती है। इसमें निद्रा विकृति या किसी शारीरिक या मन से संबंधित समस्या के कारक होते हैं। एक और है अधिकतम उच्च निद्रा। यह एक रोग है, जिसमें व्यक्ति को असामान्य रूप से निद्रा आने लगती है। यह निद्रा स्थान, समय और संदर्भ की परवाह नहीं करती है। जहां-तहां आ जाती है। इसके लिए शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य प्रमुख कारक हैं।
आंख बंद कर और चादर तान कर ही निद्रा नहीं आती। दिन भर आलस में पड़े रहना नींद से कम नहीं है। ‘जो सोवे सो खोवे और जो जागे सो पावे’ कहावत को खूब याद करा लिया जाए, पचास बार लिखवा लिया जाए, पर जिसकी समझ में यह बात नहीं भरती, वे अनजान बने रहते हैं। जो सच में सोए हुए हैं, उन्हें झिंझोड़ कर ढोल-नगाड़े बजा कर भले जगाया जा सकता हो, पर जो सोने का नाटक किए रहते हैं, उन्हें जगाना टेढ़ी खीर है।
अज्ञानी को ज्ञान दिया जा सकता है, पर जो सभी रास्ते बंद करके बैठे हों, उन्हें समझाना-बुझाना व्यर्थ है। कबीर ने ऐसों के जगाने के बहुत से उपक्रम रचे हैं। वे कहते हैं- ‘यह तन कांचा कुंभ है, लिए फिरे था साथ, ढबका लागा फूट गया, कछु न आया हाथ।’
कबीर जीवन की नश्वरता को अनेक ढंग से समझाते हैं, पर जिन्हें नहीं सुनना-समझना होता, वे कान में तेल डाल कर बैठे रहते हैं। कोई व्यक्ति उसे समझाने के लिए कितना भी बकता रहे, वे फिर भी कदम पीछे नहीं हटाते, हार नहीं मानते। ‘संतो भाई आई ज्ञान की आंधी, भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी माया रहै न बांधी/ हित चित की दो थूनी गिरानी मोह बलींडा फूटा’।
पर जो अपनी जिद की दुनिया में कैद होते हैं, उनके लिए इस तरह की बातें व्यर्थ हैं। उन्हें रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या कह रहा है, उसकी दिक्कतों का आईना दिखाते हुए साफ शब्दों में समझा रहा है। वे अपनी राह ही चलते रहते हैं। ऐसी सोच और बर्ताव रखने वाले लोगों के आगे ज्ञान की बातें करना एक तरह से अपना ही सिर दीवार में मारने जैसा है।
जबकि दुनिया की गति-प्रकृति को देखते हुए यह जरूरी है कि जागा जाए। बहुत सो लिए, तो शायद वह किसी की जरूरत हो सकती है। लेकिन क्या हमेशा सोते रहने का ही इरादा है? कबीर को सुनने की जरूरत है- ‘कबीर सूता क्या करे, जाग न जपे मुरार, एक दिन ऐसा सोएगा लंबे पांव पसार’। यही सच है कि हम सबको एक न एक दिन चिरनिद्रा में सो ही जाना है। जागना चाहेंगे, उससे पहले हम अनंत नींद में खो चुके होंगे।
उस वक्त सब नाते-रिश्तेदार जगाएंगे, तो भी नींद नहीं खुलेगी। एक लंबी नींद, चिर निद्रा में खो जाएंगे। इसलिए शुक्र मनाना चाहिए कि आज का सूरज हम देख सकते हैं, सब अपनों से मिलजुल सकते हैं। कल किसने देखा है। क्या पता कि सोएं तो ऐसी नींद सो जाएं कि सोते ही रह जाएं। निद्रा ही नहीं खुले।
जब तक कुदरत ने जिंदगी बख्शी हुई है, नींद से जागना ही एकमात्र रास्ता है। ‘जागना’ केवल एक शब्द नहीं है और इसका अर्थ केवल ‘जागते रहने’ तक सीमित नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जागना हमारी निद्रा को पूरी तरह से प्रभावित करने का अर्थ है। यह शब्द हमारी सामरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थिति को व्यक्त कर सकता है।
साथ ही इसका अर्थ उम्मीद, उत्साह, जागरूकता और जागरूकता की अवस्था के भी मानसिक चेतना से जोड़ा जा सकता है। जागना हमारी बुद्धि को जगाने, हमारी क्षमता के प्रदर्शन को बढ़ाने और हमारे लक्ष्यों की ओर आगे बढ़ाने का एक मुख्य साधन भी हो सकता है। एक दिन तो पांव पसार कर सोना ही है। तब कोई जगाने नहीं आएगा, बल्कि जल्दी से जल्दी हमारी अंतिम यात्रा की तैयारी करेंगे सब, क्योंकि हंस तब उड़ चुका होगा!