आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम अक्सर खुद को कई भूमिकाओं में उलझा हुआ पाते हैं। एक अच्छा बेटा-बेटी, एक समर्पित जीवन साथी, एक मेहनती कर्मचारी, एक जिम्मेदार नागरिक। इन भूमिकाओं को निभाते-निभाते हम भूल जाते हैं कि हमारा सबसे जरूरी रिश्ता खुद के साथ है। मगर हम दूसरों की अपेक्षाओं को पूरा करने की होड़ में समाज के बनाए मानकों पर खरा उतरने की कोशिश में और दूसरों को खुश रखने के प्रयास में इतना डूब जाते हैं कि अपनी ही पहचान खो बैठते हैं। इस अनदेखी का नतीजा अक्सर यह होता है कि हम अंदर से खाली, थके हुए और बिखरे हुए महसूस करने लगते हैं। भीतर के खालीपन के बीच एक अनकहा सवाल हमारे भीतर गूंजता है कि क्या हम सच में खुद से प्यार करते हैं? क्या हम अपनी जरूरतों, इच्छाओं और भावनाओं को उतना ही महत्त्व देते हैं, जितना दूसरों की?

हममें से कई लोग एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां दर्द और दुख को छिपाना एक सामान्य बात है। हम अक्सर एक मुस्कुराता हुआ मुखौटा पहन लेते हैं, भले ही हमारे भीतर तूफान चल रहा हो। ऐसा लगता है जैसे समय थम-सा गया है और दिल की भावनाएं चीखना चाहती हैं, पर शब्द साथ नहीं देते। यह चुप्पी उस भीतर के द्वंद्व की ओर इशारा करती है, जहां हम खुद से ही नाराज होते हैं। जब हम खुद से इतनी नाराजगी पाल लेते हैं कि अपनी ही आत्मा को कमजोर कर देते हैं, तो यह आत्म-विनाश की ओर पहला कदम होता है।

नकारात्मकता एक गहरे गड्ढे की तरह हमें अपनी ओर खींचती है

हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर हम किसी और व्यक्ति से लगातार नाराज रहते हैं, तो उस रिश्ते का क्या होगा? वह रिश्ता टूट जाएगा, कमजोर पड़ जाएगा। ठीक वैसे ही, जब हम खुद से नाराज होते हैं, तो हमारा अपने भीतर का रिश्ता कमजोर पड़ जाता है। हम अपनी गलतियों और कमियों को लेकर खुद को कोसते रहते हैं और यह नकारात्मकता एक गहरे गड्ढे की तरह हमें अपनी ओर खींचती चली जाती है।

यह आत्म-घृणा हमारे आत्मविश्वास को खत्म कर देती है और हमें अपने ही दुश्मन में बदल देती है। अगर हम वास्तव में दुनिया को सच्चा प्रेम देना चाहते हैं, अगर हम चाहते हैं कि हमारे संबंध दूसरों के साथ स्वस्थ और मजबूत बनें, तो सबसे पहले हमें खुद को अपनाना सीखना होगा। जब तक हम स्वयं को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक हम दूसरों को भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाएंगे।

कई बार हम भीड़ में होते हैं, लेकिन भीतर से बिल्कुल अकेले महसूस करते हैं। यह अकेलापन तब आता है, जब हमारा अपना ‘स्व’ हमसे दूर चला जाता है, जब हम अपनी वास्तविक पहचान से कट जाते हैं। यह अधूरेपन की अनुभूति धीरे-धीरे हमारे जीवन के सारे रंग चुरा लेती है। जीवन बेरंग और नीरस लगने लगता है।

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हम दूसरों में, बाहरी दुनिया में खुशी और सुकून ढूंढ़ने लगते हैं, लेकिन यह समझना जरूरी है कि सच्चा सुकून और शांति किसी और के पास नहीं, बल्कि हमारे भीतर होती है। जब हम अपने अस्तित्व से जुड़े होते हैं, जब हम अपनी आंतरिक शांति को पाते हैं, तो सारा संसार शांत और सुंदर लगता है। लेकिन जब हमारी आत्मा के भीतर अशांति हो, तो दुनिया की हर सफलता भी खोखली और बेमानी लगती है।

हम अक्सर यह मान लेते हैं कि अगर कोई हमसे अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है, तो इसमें हमारी ही कोई कमी है। क्या दूसरों की नफरत हमें खुद से नफरत करने का अधिकार देती है? बेशक नहीं। दूसरों की राय, उनके विचार, उनके व्यवहार से हमारी आत्म-छवि निर्धारित नहीं होनी चाहिए। अगर कोई हमें नहीं समझता, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम गलत हैं। दर्द को भीतर छिपाकर जीना एक धीमा जहर है। यह धीरे-धीरे हमें अंदर से खोखला कर देता है। कभी-कभी बस कोई ऐसा चाहिए होता है जो हमारी बातों को बिना टोके, बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना कोई राय बनाए, बस सुन ले। और अगर ऐसा कोई व्यक्ति न मिले, तो हमें खुद के लिए वह सुनने वाला, समझने वाला दोस्त बनना होगा।

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हमें खुद के साथ भी उतना ही दयालु होना चाहिए, जितना हम दूसरों के साथ होते हैं। हम अपने माता-पिता, जीवनसाथी, दोस्तों और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाते हैं, उनके वादों को पूरा करते हैं। पर क्या कभी हमने खुद से कोई वादा किया और उसे निभाया? शायद नहीं। और यही सबसे बड़ी नाइंसाफी है जो हम खुद से करते हैं।

यह समझना जरूरी है कि दुनिया साथ छोड़े तो कोई बात नहीं, लेकिन हमारा सबसे स्थायी साथी हम स्वयं हैं। इसलिए हम अपने भीतर के उस दोस्त को दोबारा जगाएं जो हर स्थिति में, हर मोड़ पर हमारा साथ देता है। वह दोस्त, जो खामोशी में भी हमें समझता है। वह कोई और नहीं, हम खुद हैं। हर टूटन एक नई शुरुआत की भूमिका होती है। जीवन में जब हम भीतर से टूटते हैं, तो यह एक अवसर होता है खुद को फिर से जोड़ने का, खुद को नए सिरे से परिभाषित करने का। इस बार शुरुआत खुद से हो- एक नई सुबह, एक नई चेतना और एक नया रिश्ता खुद के साथ।

जब हम खुद से प्रेम करना सीखते हैं, तभी हम वास्तव में दूसरों से प्रेम कर पाते हैं। आत्म-प्रेम कोई घमंड नहीं है, यह एक आवश्यकता है- मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक। यह हमें भीतर से मजबूत बनाता है, ताकि हम जीवन की चुनौतियों का सामना कर सकें। जब हम खुद से प्यार करते हैं, तो अपनी सीमाओं को समझते हैं, अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाते हैं। यह आत्म-सम्मान हमें दूसरों के प्रति अधिक दयालु, अधिक धैर्यवान और अधिक समझदार बनाता है। यह हमें एक पूर्ण और संतुष्ट जीवन जीने की दिशा में ले जाता है।