नर्मदेश्वर

हर साल तो आठ-दस दिन पहले पहुंचा देता था।’ ‘पंचू अब दरिगांव में नहीं रहता। उसके घर में एक दूसरा डोम आ गया है।’ ‘क्या? बिना बताए कहां चला गया पंचू?’ ‘पता नहीं मालकिन।’ ‘आप कैसे मैनेजर हैं? आपको इस गांव की हर गतिविधि पर नजर रखनी चाहिए। पता कीजिए, वह कहां है। आकाश में हो या पाताल में, उसे ढूंढ़ कर मेरे पास लाइए।’‘देखता हूं मालकिन।’

‘देखिए मत, उसे लाइए। कहिएगा कि मालकिन बुला रही हैं। वह जरूर आएगा। अब तक तो उसने मेरी कोई बात नहीं उठाई है। उसके बाप-दादों ने इस गांव का नमक खाया है, वह नमक-हरामी नहीं करेगा। नहीं आता है, तो पकड़वा कर ले आइए। ‘अगले दिन पंचू मालकिन के आगे हाथ जोड़े खड़ा था, ‘गलती माफ करें मालकिन, अब मैं अपने मामा के घर आलमपुर चला गया हूं। मामा को कोई संतान नहीं। मामी को मरे तीस साल हो गए हैं। मामा न खाना बना सकते हैं और न चल-फिर सकते हैं। ऐसे में उनकी देखरेख करना मेरा फर्ज है।’

‘जाने से पहले मुझे खबर क्यों नहीं दी?’ ‘डरता था मालकिन कि आप मुझे मामा के यहां जाने की इजाजत नहीं देंगी।’ ‘तुमने अच्छा नहीं किया पंचू। तुम तो अपना वादा भी भूल गए।’ ‘कैसा वादा मालिकन?’ ‘तुमने छठ पूजा के लिए सूप-दौरा पहुंचाने को कहा था। तुम तो ऐसे नहीं थे पंचू।’ ‘परसों तक पहुंचा दूंगा मालकिन।’ ‘मेरी एक बात मानोगे?’ ‘कौन-सी बात मालकिन? आप आदेश दें।’ ‘अपने मामा को लेकर आलमपुर से दरिगांव आ जाओ।’
‘हां मालकिन, न जाने यह बात मेरे विचार में पहले क्यों नहीं आई। अब पछतावा हो रहा है कि मुझे दरिगांव और आसपास का इलाका खटाऊ को नहीं बेचना चाहिए था।’ ‘बेच दिया?’ कितने में बेंच दिया?’ ‘पांच सौ में मालकिन।’ पंचू ने झूठ का सहारा लिया, जबकि उसने खटाऊ से एक पैसा भी नहीं लिया था।

‘तो लो यह पांच सौ का नोट और अपना इलाका उससे वापस ले लो।’ मालकिन ने अपने बटुए से पांच सौ का एक नोट निकाल कर पंचू के सामने फेंक दिया। ‘कोशिश करूंगा मालकिन। क्या पता वह तैयार होता है या नहीं।’ जमीन पर पड़ा हुआ नोट उठाते हुए उसके हाथ कांप रहे थे, ‘अच्छा मालकिन, अब चलता हूं। आपका सूप-दौरा लेकर परसों तक आपकी सेवा में जरूर हाजिर हो जाऊंगा।’ ‘वापस आलमपुर लौटने से पहले वह खटाऊ से मिल लेना चाहता था। उसे अपने घर को देखने की इच्छा हो रही थी। नहर तक आकर उसने अपने घर पर नजर डाली और उसके कदम घर की ओर बढ़ चले।

‘अरे पंचू काका?’ वहां क्यों खड़े हैं। आइए बहुरिया से मिल लीजिए।’ दौड़ कर खटाऊ ने पंचू का स्वागत किया और अपनी बीवी को आवाज दी, ‘अरे बाहर आओ पगली, देखो तो कौन आया है।’‘मैंने पहले ही देख लिया था।’ कटोरी में गुड़ और लोटे में पानी लेकर खटाऊ की बीवी बाहर आ गई। तब तक खटाऊ बंसखट बिछा कर पंचू को बैठा चुका था। ‘इस घर में मन लग रहा है न बेटी?’ लोटा नीचे रखते हुए पंचू ने बहुरिया से पूछा। ‘जी, सब ठीक है।’

‘बचपन से शहर में रही है। यहां गांव में सिनेमा देखने को नहीं मिलता। इसलिए कभी-कभी उदास हो जाती है।’ अपनी बीवी की ओर देखते हुए खटाऊ ने कहा। ‘दरिगांव से सासाराम तक कई बसें चलती हैं। टेंपो भी आते-जाते रहते हैं। इसे शहर ले जाकर कभी-कभार सिनेमा दिखा दिया करो।’ बंसखट से उठते हुए पंचू ने कहा। ‘आते रहिएगा बाबू जी। यह आपका ही घर है। हम आपके ही बच्चे हैं। आपका उपकार हम कभी नहीं भूल सकते। हम पर कृपा बनाए रखिएगा।’ कहते हुए खटाऊ की बहुरिया की आंखें नम हो गईं।

‘एक बात और कहनी थी खटाऊ।’ अपने पीछे चलते खटाऊ की ओर मुड़ते हुए पंचू ने कहा, ‘अगर तुम्हें मालकिन बुलाएं और पूछें, तो कह देना कि दरिगांव और आसपास के इलाके को मैंने पंचू से पांच सौ रुपए में खरीद लिया है। उनके मैनेजर पंडित जी या गांव के दूसरे लोगों से भी यही बात बतलाना।’ नहर तक पंचू काका को छोड़ कर वापस लौटते हुए खटाऊ समझ नहीं पा रहा था कि काका ने यह कहने के लिए क्यों कहा है। अपनी बीवी से राय लेने पर उसने बस इतना ही कहा, ‘इसमें सोचने-विचारने की क्या जरूरत है। काका ने कुछ सोच-समझ कर ही यह सलाह दी होगी। आंख मूंद कर उनकी आज्ञा का पालन करो। इसी में हमारी भलाई है। जिसने मुफ्त में अपना इतना बड़ा इलाका और घर तक हमें सौंप दिया, उसकी बात मानना हमारा फर्ज है। बुरे दिनों में हमें पनाह देने वाले पंचू काका इंसान नहीं, देवता हैं।’

हमेशा की तरह पंचू उस दिन भी किसी गांव से एक हरा बांस खरीद कर तकिया रेलवे पुल के पास पहुंचा था। पूरा पुल तोड़ कर नीचे गिरा दिया गया था। वहां रहने वाले सारे परिवार न जाने कहां गायब हो गए थे। तभी उसने मलबे के बीच में एक छोटी-सी जगह में एक चूल्हा जलते देखा। नजदीक गया तो खटाऊ पति-पत्नी खाना बनाने में व्यस्त थे। पंचू को देखते ही खटाऊ खड़ा हो गया था, ‘आइए काका, आइए। बांस लेकर आए हैं। लेकिन अभी तो मेरे पास इसे खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। आज सिर्फ एक टिकटी बिकी है। उससे किसी तरह खानेपीने का काम आज चल जाएगा।’ ‘जरूरत है तो रख लो, पैसे बाद में दे देना।’ बांस को वहीं रखकर पंचू ने पूछा, ‘और लोग कहां चले गए?’

‘कुछ लोग आसपास के गांवों में चले गए हैं। बहुत से लोग इधर-उधर सड़कों के किनारे गुजर-बसर कर रहे हैं। मैं वेदा नहर पर घर बसाना चाहता था, लोगों ने वहां से खदेड़ दिया। क्या करें काका? हम कहां जाएं। जहां जाते हैं, पुलिस हमें वहां से खदेड़ देती है। हम दोनों इसी मलबे में टिके हैं। अभी तो किसी तरह चल जा रहा है। बरसात के दिनों में कहां जाएंगे?’ ‘गांव में रहना है तो मेरे साथ चल सकते हो। मैं अपना घर और इलाका देकर मामा के घर जाने की सोच रहा हूं।’

‘हमें कितने रुपए देने पड़ेंगे?’ ‘ऐसी स्थिति में तुम क्या दे सकते हो? मामा का घर नहीं होता तो मुफ्त में नहीं दे सकता था। दो-दो घर रख कर मैं क्या करूंगा। दारू पीना मैंने छोड़ दिया है, नहीं तो एक बोतल दारू मांगता।’ हंसते हुए पंचू ने खटाऊ से कहा, ‘तुम्हें एक पैसा भी नहीं देना पड़ेगा। आज भी चल सकते हो या फिर जब मन करे दरिगांव आ जाना।’ ‘कहां चला गया था रे पंचू।’ मामा ने आने की आवाज सुन कर लेटे-लेटे पूछा। ‘दरिगांव चला गया था मामा। मालकिन ने बुलाया था।’

‘क्या कह रही थीं। तुम्हें फिर से दरिगांव आने को तो नहीं कह रहीं थीं? अब मैं तुझे कहीं जाने नहीं दूंगा।’ ‘तुम्हें छोड़ कर मुझे कहीं नहीं जाना है।’ अपनी मां की कसम खाते हुए पंचू ने मामा को विश्वास दिलाया और फिर टांगी और आरी लेकर मामा के कोट से बांस काटने लगा। आज से ही काम नहीं लगाया, तो परसों कैसे मालकिन को सूप-दौरा पहुंचा पाऊंगा?’ अगले दिन पंचू दिन भर बांस काटता-छीलता और सूप-दौरा बनाता रहा। खाना बना कर उसकी पत्नी ने भी हाथ बंटाया। डरते-डरते उसने अपने पति से पूछा, ‘क्या सचमुच तूने अपना इलाका खटाऊ को मुफ्त में दे दिया है, घर की भी कीमत नहीं ली?’

‘तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा?’ पंचू ने उसकी आंखों में झांका। ‘तुम्हारे जैसा बेवकूफ आदमी खोजे नहीं मिलेगा। न कोई रिश्ता-नाता, न जान-पहचान, और अपना पुश्तैनी इलाका मुफ्त में दान दे दिया। धन्य हो राजा हरिश्चंद्र!’ ‘अपनी जाति का असर तो मुझ पर रहेगा ही। बहुत पहले पूरे हिंदुस्तान में बहुत से डोम राजा हुआ करते थे। अपनी दानवीरता के चलते आज उनके पास कुछ भी नहीं बचा। हमारी जाति को धन-दौलत और संपत्ति बटोरने से कोई मतलब नहीं। हमें अपने हाथों पर विश्वास है। हम किसी की गुलामी नहीं करते, न कभी भीख मांगते हैं। मेहनत करते हैं और मस्ती में रहते हैं। चलो, खा-पीकर सोया जाए, मुझे कल मुंह- अंधेरे ही दरिगांव जाना है। कल मेरा खाना मत बनाना, दोपहर में मुझे खटाऊ के घर खाना है। अपने औजार और सूप-दौरा बटोरते हुए पंचू ने पत्नी से कहा।‘सूरज निकल आया था और पंचू मालकिन की हवेली के दरवाजे पर उन्हें आवाज दे रहा था।

‘अरे पंचू! इतनी सुबह-सुबह आने की क्या हड़बड़ी थी। कल भी सूप-दौरा पहुंचा देते, तो कोई हर्ज नहीं होता। अभी तो छठ का नहाय-खाय परसों है।’ ‘जुबान का पक्का हूं मालकिन। आपका नमक खाया हूं। कुछ असर तो रहेगा ही मालकिन!’‘अच्छा, अच्छा। यह बताओ कि उस लड़के का पैसा लौटा दिया कि नहीं।’‘नहीं मालकिन, आपका नोट अभी भी मेरी जेब में है।’ जेब से पांच सौ का नोट निकाल कर पंचू ने मालकिन के पैरों के पास रख दिया।
‘यह क्या कर रहा है? यह मैंने वापस लेने के लिए नहीं दिया था।’

‘मैंने भी अपना घर और इलाका खटाऊ से वापस लेने के लिए नहीं दिया है। करार करके इंकार करना मेरे लिए संभव नहीं। और फिर मेरे मामा भी यहां आने देने को तैयार नहीं। मुझे माफ कर दें मालकिन। आपका आदमी हूं, आप जब बुलाएंगी, पंचू आपकी सेवा में हाजिर हो जाएगा।’‘ये रुपए अपनी जेब में रख लो और मेरे सामने से दूर हो जाओ।’ मालकिन के स्वर में गुस्सा और प्यार दोनों था।