वसंत एक राग है, तो फागुन उस राग का सिरमौर है। तन में फाग, मन में उमंग और चित्त में मृदंग की गूंज ही सगुन फागुन की पहचान है। पेड़ जब नए पत्ते धारण करते हैं, फूलों पर रंग और रस घुल जाता है, हवा में उल्लास का सुवास छा जाता है। ऐसे समय में अबीर और गुलाल लिए फागुन द्वार पर खड़ा हो जाता है। फागुन का आगमन वसंत के सुवास में होता है। सर्दी की विदाई वेला में तपन का अहसास ही फागुन है। इसके राग और रंग में मन को नया संगीत और हमारी आशा को एक नूतन अहसास मिलता है। फागुन के साथ ही वसंत, पतझड़, चैत और फाल्गुन और गरमी, सब एक दूसरे से मिल जाते हैं और इस धरती को एक सुंदर बाग में बदल देते हैं, जहां फूलों, पत्ते, रंगों, रसों, हवाओं के संग प्रकृति एक उत्कृष्ट काव्य की रचना करती है।
भारतीय जीवन में ऋतुएं संगीत की तरह आती हैं और जीवन के तन-मन में पूरी तरह से रच-बस जाती है। और फिर जीवन यात्रा में ऋतुराग रचती रहती है, ताकि भीतर के उदास मन को सृजन की फुहार से दूर कर सके। हजार वर्षों की इस सभ्यता में ऋतुओं ने भाव और कर्म को आधार दिया है। यही कारण है कि नीरसता और उदासी के किसी पल में ऋतुओं का सुवास उसके तम को पसरने नहीं देता है, बल्कि रसरंग से एक रास्ता दिखाता है। इतिहासकारों को लिखना पड़ता है कि भारतवर्ष पर प्रकृति का ऐसा वरदहस्त रहा है कि मानव को जीवनयापन की सामग्री देकर प्रतिकार में कुछ भी आशा नहीं करती है। ऋतुओं के कारण ही भारतीय चरित्र में सुविधा और सरलता के प्रति प्रेम का विकास हुआ। इस प्रवृत्ति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक ओर आत्मत्याग और संन्यास की भावना और दूसरी ओर समय-समय पर कठोर श्रमसाध्य चेष्टा रही है।
प्रकृति के चाहे कितने ही रंग हों, कितने ही उत्सव हों, लेकिन फागुन जैसा कोई नहीं भिगोता है। इस फुहार में तन, मन के साथ आत्मा भी भीग जाती है। माना गया है कि जैसा ऋतु, वैसा मन। जैसा मन वैसा वचन। ऋतु अगर फागुन हो, तो जीवन सगुण हो जाता है। यह सगुण हमारे लिए सात्विक अंतर्मन का निर्माण करता है। ऋतु चक्र जीवन की सनातन निरंतरता है। उसमें फागुन के रूप निराले हैं। रंग बिरंगी, खिली अधखिली।
विविध गंधों, विपुल रंगों और विभिन्न स्वादों के साथ प्रकृति हमारे आंगन में सगुण सौंदर्य ले आती है। सौंदर्य के स्वर और रूप रचना में प्रकृति के हाथ जब रुकते हैं, तब फागुन अपने माधुर्य और रसधार से अंतर और बाह्य मन को भिगोता ही रहता है। पत्ते, फूल, कली, फल और टहनी का रूप-रंग के साथ चाल-ढाल जब मस्ताना हो जाता है तो फागुन का सुवास क्षितिज और हर पहर पर इतराता फिरता है। दरअसल, भारत का फागुन ऋतु चक्र के साथ उलझकर ठहर-सा गया है। इसलिए इसके राग और रंग वर्ष भर ऋ तुओं के साथ हमारे मन में बहते हैं।
वसंत के कांधे पर सवार फागुन आता है तो संग में तितलियां, परिेदें, सरसों के फूलों की पीली चादर, पलाश की आग, रंगों का त्योहार- सब कुछ संग लाता है। यह जीवन में आता है और उमंग तथा उत्साह का उन्मुक्त वातावरण बनाकर चला भी जाता है। यह सावन-भादो की तरह भीगा, पूस-माघ की तरह सुबका-ठिठुरा, ज्येष्ठ-आषाढ़ की तरह तीखा-रूखा नहीं होता है। यह चैत-वैशाख की तरह पिघला और ठहरा भी नहीं होता है। यह तो बस उन्मुक्त और उड़ता-सा चलता जाता है। प्रकृति की झोली में सतरंगी काया पर चमकीले लाल चेहरे, गुलाबी और पीतांबरी सांसों की धुन और हरीतिमा से सराबोर अंग-प्रत्यंग होते हैं। होली के साथ ही खेत-गांव-आंगन की माटी अबीरी और रंगीन हो जाती है।
रंग के बादल घिर जाते हैं। गुलमोहर-सा जीवन दहक उठता है। फिर पिचकारियों में पूरी सप्तरंगी आभा सिमट जाती है। हमारे जीवन में रंग और रस का आग्रह ही जिजीविषा का सेतु बनाता है, जो एक अपरिभाषित सुवास से आप्लावित होकर वातावरण में तैर जाता है। खुद रंगीन होना और दूसरे को रंगने की धुन में स्वर आती है- मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।
फागुन का ऋ तुराग हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यह अकेलापन को हरता है, दुख को भरता है, आंसू को रोकता है और आहत को जोड़ता है। इसके गीत और नृत्यों की धुन ग्रंथों के शब्दों में गूंजते हैं। वही राग कालीदास, कल्हड़, सूर-तुलसी के काव्य से होते हुए भक्तिकाल के संतों और नवजागरण के महापुरुषों के लिए जीवनधारा का काम करते हैं। उसकी ही एक धारा नृत्य, चित्र, गीत, काव्य, भक्ति, प्रेम और कर्म हर क्षेत्र में भावभूमि का आधार बनाते हैं। ऋतुराग और ऋतु का सौंदर्य हमारी पीढ़ियों के मन पर बिखरे पड़े हैं। इसकी प्रतिध्वनियां हमारे अंतर्मन को सुवासित करती हैं और हमारी अस्मिता को चैतन्य रखती हैं। भारतीय मन का सृजन भी इन ऋतुओं ने किया है।
उसके रंग और राग ही हमारे खून और सांस में बहते हैं। हमारे अस्तित्व की वास्तविक पहचान उन परंपराओं और विरासत में छिपा है, जहां ऋतुओं ने अठखेलियां कीं। हमारे तन-मन के सूने आंगन में सृजन का मौसम लाए थे। राग और रस की धारा जो यमुना और ब्रज की दहलीज पर रचा गया, वही राग मीरा और सुर के काव्य में रचा बसा। उस राग की एक धारा आज भी हमारे अंतर्मन के द्वार पर और यमुना की पानी एवं वृंदावन के पेड़ों पर अटका पड़ा है। अगर ऐसा नहीं होता तो आखिर रसखान क्योंकर कहते कि- ‘फिर मनुष्य बन लौटूं तो इसी कदंब की छांव में बसूं..!’