पुरातन काल में ज्ञान और दर्शन को जनमानस तक पहुंचाने के लिए दो तरीके अपनाए जाते थे। पहला था दर्शन अध्ययन और प्रस्तुतीकरण। इसके अंतर्गत विषय को बहुत ही सलीके से, उत्कृष्ट भाषा में, विचारोत्तेजक सामग्री के साथ एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। इसे समझने वाले बहुत कम होते थे, लेकिन बात बहुत गूढ़ और अंतरात्मा को झकझोरने वाली होती थी। दूसरा तरीका था नाटकीकरण जो सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों के लिए होता था। नाटकीकरण के अंतर्गत नाटक, नृत्य, नौटंकी, खेल, भजन, पहेली और तुकबंदी के नारे आदि प्रयोग में लाए जाते थे। नाटकीकरण में संदेश को सरलतम से भी सरल भाषा में, देहाती तड़के के साथ, उपर्युक्त लिखे किसी तरीके द्वारा जनमानस तक पहुंचाया जाता था। समय बीतने के साथ बुद्धिजीवी वर्ग सिमटता चला गया और सामान्य वर्ग की हुंकार के चलते सिर्फ नाटकीकरण का बाजार बहुत बड़ा हो गया। इस वजह से गुणवत्तायुक्त शोध आधारित कार्य और वास्तविक तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में कमी आ गई। इसे उदाहरण से समझा जा सकता है।
अगर संगीतज्ञ संगीत की गुणवत्ता और राग रागिनियों से ज्यादा ध्यान, फिल्मी संगीत और मिमिक्री को देने लगे तो इसे नाटकीकरण कहा जा सकता है। इसके पीछे की वजह है कि पैसा इसी क्षेत्र से कमाया जा सकता है। नृत्य, वाद्य यंत्रों का वादन, अभिनय, पढ़ाई आदि सभी विधाओं का नाटकीकरण-सा हो गया लगता है। सबसे दुखद बात यह है कि अब कक्षा में अध्यापक भी नाटकीयता को ही बेहतर मानने लगा है, जिसके तहत वह कक्षा में कठिन ज्ञान को भी नाटक के साथ प्रस्तुत कर रहा है। यह सीखने के लिए ठीक है, लेकिन इसका आधिक्य कहीं वास्तविक ज्ञान पर ग्रहण न लगा दे, यह विचार किया जाना आवश्यक है। आज के युग में नाटकीयता के चलते यह माना जाने लगा है कि अध्यापक को ज्ञान के साथ-साथ चुटकुले, ‘ऊल-जलूल मजाकिया बात’ आदि कहनी भी आनी चाहिए। सिर्फ अच्छा पढ़ाने वाले की मांग बाजार में नहीं है। इसका सीधा असर सीखने की प्रक्रिया पर पड़ता है और यही चिंता का विषय है।
समस्या यह है कि समाज ने नाटकीकरण को ही पूर्ण सत्य मान लिया है और जो गुणवत्ता युक्त बात है, उसे हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है। नाटकीयता को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रवृत्ति के चलते वर्तमान में बहुत सारे लोग सिनेमा, वेब सीरीज, रील आदि देखने और जुगुप्सा जगाने वाला कोई साहित्य पढ़ने में व्यस्त हैं। इस कारण उसे लगने लगा है कि जो कुछ इनमें दिखाया जा रहा है, वह मानो सामान्य बात है। पैसा हासिल करने की होड़ के युग में धन की वर्षा अच्छा साहित्य पढ़ने से नहीं, बल्कि घटिया स्तर के वीडियो बनाने, ऊल-जलूल चुटकुलों की रील बनाने से हो रही है। ज्यादातर लोग गुणवत्ता युक्त शोधपरक ज्ञान को सुनना, देखना और समझना नहीं चाहते हैं। यह चिंताजनक है।
- स्वाध्याय को लेकर नई पीढ़ी की उदासीनता
स्वाध्याय के प्रति यानी पुस्तकें पढ़ने के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता का मूल कारण नाटकीकरण ही लगता है। बेकार चुटकुलों के वीडियो से अटा पड़ा सोशल मीडिया बहुत कुछ कहता है। समाचार चैनलों के एंकर भी अच्छा प्रस्तुतीकरण देने के बजाय आग में घी डालते हुए किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दे का नाटकीकरण करते प्रतीत होते हैं।
नाटकीकरण के इस युग में बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण मानो ठहर-सा गया है। ज्यादातर माता-पिता को भी तड़का चाहिए। वे अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण सामग्री और मसालेदार तड़के में फर्क नहीं समझा पा रहे। इससे वैचारिक प्रदूषण जन्म ले रहा है। उत्तम गुणवत्ता से युक्त चीजों को पढ़ना, अच्छी विचारोत्तेजक फिल्में देखना और राष्ट्र गौरव से जुड़ना जरूरी है। पढ़ने से ही व्यक्ति नाटकीकरण को दूर कर सकता है।
दुनिया मेरे आगे: ‘पापा की परी’ बनने से नहीं चलेगा काम, सोचने और जीने का सीखना होगा सलीका
‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं; तुम्हारे पास रहना चाहती हैं’। प्रसिद्ध रंगकर्मी सफदर हाशमी के ये शब्द जीवन में पुस्तकों के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। वर्तमान समय में बढ़ रहे अपराधों को कम करना हो या अपनी संस्कृति और मूल्यों का संरक्षण करना हो, पुस्तकों को पढ़ने की आदत से ही इन समस्याओं का समाधान मुमकिन है। जातिवाद, अंधविश्वास, गृह क्लेश, तलाक आदि मुद्दों के बढ़ने का एक कारण है स्वाध्याय की कमी। टीवी, इंटरनेट की नाटकीय दुनिया से निकलकर कुछ सकारात्मक सामाजिक कार्य करने से समाज में बदलाव आता है। कहा गया है कि ‘रोज दस पन्ने पढ़िए। आपके शब्द नदी की तरह बहेंगे’। मानसिक खुराक को बढ़ाने, ज्ञानार्जन करने आदि के मुद्दों पर समाज मौन है। क्या कमाना, खाना-पीना और सोशल मीडिया देखना ही जीवन है? दरअसल, मनुष्य कमा तो रहा है, शारीरिक कसरत भी कर रहा है, सेहत और अपने चुस्त-दुरुस्त रहने को लेकर भी चिंतित है, लेकिन उसे मानसिक खुराक की चिंता नहीं है। मानसिक खुराक सोशल मीडिया से नहीं, बल्कि पुस्तकें पढ़ने से आती है।
माता-पिता को पढ़ने की आदत डालनी चाहिए
वर्तमान समय में ‘रीडिंग’ यानी स्वाध्याय गायब है। न पिता पढ़ते हैं और न ही मां, लेकिन उन दोनों को अपनी संतान से यह उम्मीद है कि वह रोजाना एक घंटा अध्ययन करे। अपने पुत्र या पुत्री को पढ़ने को कहने से पहले उस माता या पिता को यह सोचना चाहिए कि क्या वे खुद पूरे दिन में दस मिनट भी कोई किताब लेकर बैठे हैं? वे इतना भी कर लें तो संतान सोचेगी कि उनके पिता पढ़ रहे हैं तो वह भी कम से कम किताबों में तस्वीरें ही देखेगी। टीवी और इंटरनेट का नाटक मनोरंजन दे सकता है, लेकिन जीवन की समझ नहीं। इसलिए नाटकीकरण त्यागकर स्वाध्याय करना श्रेयस्कर है।