परवरिश एक ऐसा संस्कार है, जो मनुष्य के जीवन की दिशा और दशा, दोनों तय करता है। माता-पिता जब एक बच्चे को इस संसार में लाते हैं, तो वे केवल उसके शारीरिक पोषण के लिए ही नहीं, बल्कि मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। परवरिश का तात्पर्य केवल उसे अच्छे कपड़े पहनाना, विद्यालय भेजना या उसे मोबाइल और खिलौने देना नहीं है, बल्कि उसका अंतर्मन संस्कारित करना, उसे सही और गलत की पहचान देना और उसे वह दृष्टि देना है, जिससे वह इस संसार में अपनी पहचान, मर्यादा और अपने कर्तव्यों को समझ सके।
जब एक बालक इस संसार में आता है, तब वह एक कोरे कागज की तरह होता है। उस पर जो पहली इबारत लिखी जाती है, वह होती है मां की लोरी, पिता की नजर और दादी-नानी की कहानियां। यही इबारत उसका भविष्य तय करती है। परवरिश की शुरुआत मां की गोद से होती है, जहां वह पहली बार जीवन की लय, ध्वनि और स्पर्श को अनुभव करता है। वह वही सीखता है जो देखता है, सुनता है और जिसे बार-बार दोहराया जाता है।
संस्कार केवल उपदेशों से नहीं आते, वे व्यवहार से आते हैं
अगर घर में आपसी प्रेम, आदर, और संयम होगा, तो बच्चा इन गुणों को स्वाभाविक रूप से आत्मसात कर लेगा। मगर घर में कलह, क्रोध और लोभ का वातावरण होगा, तो वह उसी से प्रभावित होगा। संस्कार केवल उपदेशों से नहीं आते, वे व्यवहार से आते हैं। जब बच्चे अपने पिता को ईमानदारी से काम करते, मां को श्रद्धा से पूजा करते, दादा को दूसरों की मदद करते देखते हैं, तभी वह स्वयं नैतिकता और सेवा का मूल्य समझते हैं। जैसे बीज की प्रकृति माटी, जल, सूर्य और समय से प्रभावित होती है, वैसे ही बच्चों का स्वभाव भी अपने पारिवारिक वातावरण से आकार लेता है।
अक्सर शिक्षित लोग भी समाज में अनैतिक कार्य करते या भ्रष्टाचार में लिप्त रहते या संवेदनहीन बन जाते हैं। इसका कारण यही है कि उनकी परवरिश में ज्ञान तो था, पर भावनाओं और चरित्र की कमी थी। गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा का उद्देश्य केवल शास्त्रों की विद्या देना नहीं था, बल्कि एक आदर्श जीवनशैली का निर्माण करना था। वहां बालकों को संयम, सेवा, दया, सहनशीलता और स्वाध्याय की शिक्षा दी जाती थी। परवरिश का मूल यही है- केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन की सच्चाई को समझना और उसे अपनाना।
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आधुनिक समाज में माता-पिता इस बात को भूलते जा रहे हैं। वे अपने बच्चों को बड़ा अधिकारी बनाना चाहते हैं, लेकिन अच्छा इंसान नहीं। यही भूल आने वाली पीढ़ियों को आत्मवंचना की ओर ले जा रही है। बच्चे केवल माता-पिता से ही नहीं, समाज, विद्यालय और अपने आसपास के वातावरण से भी सीखते हैं। जब बच्चा विद्यालय जाता है, तो शिक्षक उसकी दूसरी मां या पिता बन जाते हैं। अगर शिक्षक मात्र पाठ्यक्रम पूरा करने में लगे हैं और विद्यार्थियों को परीक्षा के अंक दिलाने तक सीमित हैं, तो वे परवरिश के अपने धर्म से विमुख हो रहे हैं।
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एक सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थियों के भीतर प्रश्न उठाए, उन्हें सोचने की प्रेरणा दे और उन्हें सत्य की खोज की ओर अग्रसर करे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था, ‘सत्य के मार्ग पर चलना कठिन है, लेकिन यही मार्ग आत्मा को शांति देता है।’ यही शांति जब बच्चों के भीतर होगी, तो वह एक सच्चा नागरिक, एक अच्छा मानव बन सकेगा। परवरिश में संस्कृति, लोककथाएं, संगीत, चित्रकला और व्यावहारिक अनुभवों को भी स्थान देना चाहिए। ये माध्यम बच्चों को केवल सृजनात्मकता ही नहीं देते, बल्कि उनमें संवेदनशीलता और सौंदर्यबोध भी विकसित करते हैं।
जब साथ हो आत्मबल और साहस तब कुछ भी असंभव नहीं, जो ठान लिया, वो कर दिखाया
आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि परवरिश का स्थान मोबाइल, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने ले लिया है। बच्चे मशीनों से बातें करना सीख रहे हैं, पर मनुष्यों से संबंध बनाना भूलते जा रहे हैं। माता-पिता व्यस्त हैं, शिक्षक थके हुए हैं और समाज दिशाहीन। ऐसे में परवरिश के मूल्य खंडित हो रहे हैं। इस अंधकार में भी आशा की ज्योति जल सकती है, लेकिन हर परिवार को यह प्रण लेना होगा कि वह अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाने के साथ-साथ एक भावनाशील, कर्तव्यनिष्ठ और विवेकी मानव बनाने के बारे में सोचे। इसके लिए आवश्यक है कि हम बच्चों को केवल आदेश न दें, बल्कि उनके साथ संवाद करें, उन्हें सुने और उनकी जिज्ञासाओं का सम्मान करें। जैसा कि गुरु नानकदेव ने कहा था- ‘जो तिस भावै सो परवरिश, और सब भ्रम भुलावा।’ यानी परवरिश वही है जो आत्मा को प्रसन्न करे, बाकी सब भ्रम है। बच्चे हमारे नहीं, समय के हैं। हम उन्हें कितना सहेज पाएंगे, वही तय करेगा कि भविष्य कैसा होगा।
परवरिश कोई पाठ्यपुस्तक नहीं, एक जीवंत अनुभव है। यह केवल बीते हुए कल का संरक्षण नहीं, आने वाले कल की आधारशिला है। जब एक बच्चे को सच्ची परवरिश मिलती है, तो वह केवल एक अच्छा बेटा या बेटी नहीं बनता, वह एक अच्छा नागरिक, एक सच्चा भक्त और एक दयालु आत्मा भी बनता है। ऐसे ही बच्चों से समाज में समरसता, सहयोग और सौहार्द का वातावरण बनता है।
कबीर ने कहा था- ‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’ अगर हम यह भाव बच्चों के भीतर डाल पाएं कि दोष बाहर नहीं, अपने भीतर ढूंढ़ो, तो वे दूसरों को दोष नहीं देंगे, बल्कि आत्मनिरीक्षण और आत्मविकास की ओर बढ़ेंगे। परवरिश कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं, यह जीवनभर चलने वाली साधना है।