सुरेश सेठ

आजकल एक विवाद साहित्यिक गलियारों में उभर रहा है कि मुंशी प्रेमचंद ने अपनी धर्मपत्नी के साथ फोटो खिंचवाते हुए फटे जूते क्यों पहन रखे थे? सवाल एक जगत विख्यात लेखक से लेकर सड़क पर चलते आम आदमी की नियति का नहीं, बल्कि यह है कि एक युग बीत जाने के बाद भी आम आदमी अपनी गरीबी रेखा से अभी तक आलिंगनबद्ध क्यों है? अभी तक अपने पांव के लिए जूतों की तलाश क्यों कर रहा है? अभी तक नंगे पांव चिलचिलाती धूप में उखड़ी धरती पर चलने के लिए अभिशप्त क्यों है? लेकिन अब बहुत शिद्दत से इन पांवों के लिए जूतों की तलाश होने लगी है।

अब भी फटे ही मिलें तो गनीमत। उन पर पालिश लगा चमकाने का नया तरीका ढूंढ़ा जा रहा है, जिसे मुखौटा संस्कृति के मसीहा आपको चोर गलियों से निकल कर बार-बार बताते हैं। हिम्मत आपकी कि आप अपने फटे जूते पर पालिश लगा सके या नहीं। यह एक अजब हृदयहीन विसंगति है कि यहां मौत की पालिश से लोकप्रिय राजनीति के जूते को चमकाया जाता है। सदियों से ऐसा ही होता चला आया है, लेकिन मारने वाले से बचाने वाला बड़ा है, जैसे स्थापित स्वर्णिम सूत्र आजकल नहीं चलते।

अब तो यह देखना होता है कि मरने वाला है कौन? किस वर्ग का है, किस जाति का है? क्या वह किसी मुद्दे को उठाते हुए मरा या किसी विद्रोही अभियान में नारा लगाते हुए? वह क्या किसी चलती सड़क पर अवरोध बन रहा था, या अवरोध को उखाड़ कर रास्ता साफ कर रहा था? क्या वह किसी नारे को सार्थक कहते हुए बलिदान हुआ, या कि वैसे ही किसी अंधाधुंध वाहन की चपेट में आकर मर गया।

देखिए, तो जो सड़कों पर पड़े नए-पुराने गड्ढा पहलवानों की चपेट में आ गए या नशे में मदमस्त किसी धनकुंवर के वाहन की चपेट में आए, वे सबसे अभागे हैं, क्योंकि इस मौत के प्रतिकार की चिल्लाहट लोकप्रिय राजनीति का कोई बड़ा बूट नहीं चमकाती। ये मामूली और पुरानी बातें हैं। अगर नशा माफिया की कृपा से मदमस्त धनकुंवर आधी रात को वाहन भगाते हैं, और कोई दीन-हीन फुटपाथी इसकी चपेट में आ गया, तो यह अवैध नशों द्वारा बांटा जाने वाला वह पुराना दुर्भाग्य है कि जिसके फलस्वरूप हर रोज या सप्ताह या महीने में फुटपाथी लोग काल-कलवित होते रहते या मृतकों का आंकड़ा बढ़ाते हैं।

अगर सड़कों पर खुदे नए पुराने गड्ढों से जान गई, तो यह मामला प्रशासन के निकम्मेपन या बढ़ते हुए स्थानीय भ्रष्टाचार का है, जिसमें ऐन बरिश से पहले बनी-बनाई सड़कों को खोद कर स्मार्ट सिटी अभियान चलते हैं, की टिप्पणी बनती है। मौसम से लेकर बिजली कटौती के झंझावत में लोग लुढ़क कर अपनी जान से जाते हैं। अधिक से अधिक यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध रोना रोने का मामला है, जो इतना पुराना हो गया कि अब तो खबरों का फुटनोट बनता है, लोकप्रिय राजनीति का जूता क्या चमकाएगा?

देश भ्रष्टाचार के सूचकांक में एक पायदान और चढ़ गया। यह जानना आजकल इतनी सामान्य बात हो गई है, जितनी कि यह जानना कि इस भीड़ भरे देश में अगर टीका भी कतार तोड़ आसानी से लगवाना हो तो किसी प्रभावशाली संपर्क की सीढ़ी का सहारा लो। नौकरशाही की फांस में कोई बेचारा फंस गया है तो इस देश में सिफारिश की तदबीर और हथेलियों पर पैसे की ग्रीस से ही उसकी बात आगे चलेगी। तो साहब स्पष्ट हुआ, कि हर मौत चाहे अपने परिजनों को उतना ही आहत करती है, लेकिन लोकप्रिय राजनीति के जूते को पालिश बन वही चमकाती है।

ये बेचारे वंचित, अभागे, साल भर से अपनी भूख, बीमारी और कम कमाई से संत्रस्त हो अपने पर थोप दिए गए काले कानूनों के विरुद्ध धरना प्रदर्शन किए बैठे थे। सड़कों का अवरोध बने थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन सत्ता के जुनून में अगर समय के शहजादों ने अपनी महंगी आयातित गाड़ी से उन्हें रौंद डाला और फिर कानून भी उन पर हाथ डालने से परहेज करता नजर आया तो भला इससे अधिक मर्माहत करने वाला ज्वलंत विषय और कौन सा हो सकता है। लीजिए पूरा प्रांतर चौंक उठा।

हर आघात उतना ही दर्दनाक होता है, उतना ही अमानवीय भी। लेकिन कौन सा गर्मागर्म राजनीति के फ्रेम में फिट हुआ, और कौन सा बासी खबरों की कतार में गया? ऐसी पहचान करने वाला ही तो अपनी लोकप्रिय राजनीति के बूट को निरंतर चमकाता है। उसका बूट चमकेगा, तभी तो आगे बढ़ने का रास्ता हमवार होगा। नहीं तो जो दबे कुचले लोग महंगाई की ताब न सह अस्पतालों में परिचर्या के बिना मर गए, उन्हें कौन गिनता है। इसकी पहचान तो आंकड़ा शास्त्री भी न कर पाए, भला राजनीति को क्या करना था?