सीमा श्रोत्रिय
लगता है दुनिया में दोष-दर्शन की नकारात्मक प्रवृत्ति शायद सृष्टि के आरंभ से ही है। इसलिए काफी लोग सकारात्मक दृष्टि से कम विचार करते हैं। अवसर मिलते ही नकारात्मक नजरिया से दूसरों के गुण की बजाय दोष देखने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं। यही प्रवृत्ति इंसान में सद्गुणों का विकास नहीं होने देती। इसे छिद्रान्वेषण कहते हैं। दिलचस्प यह भी है कि खुद ऐसे लोग गंभीर दोष को भी सफाई के साथ छिपा लेते हैं और खुद के बजाय दूसरों की समीक्षा करते हैं। यह आदत न केवल खुद के लिए, बल्कि समाज की भी परेशानी का कारण है, जिससे आसपास प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य का परिवेश बनता है। इसका प्रतिकूल असर उनकी मनोदशा पर पड़ता है, जो समाज और देश की सेवा कर जीवनयापन करने के इच्छुक हैं। जो लोग अपने काम में व्यस्त रहते हैं, वे ज्यादा खुश रहते हैं और उनके पास बेकार की बातों के लिए समय नहीं रहता।
पांव रखते हैं खुद कीचड़ में और छींटों का दोष चप्पल पर लगाते हैं
कुएं का पानी सब फसलों को एक समान मिलता है, फिर भी करेला कड़वा, गन्ना मीठा और इमली खट्टी होती है। यह दोष पानी का नहीं है, बीज का है, वैसे ही मनुष्य सभी एक समान है, पर कुछ लोग इतने शातिर होते हैं कि पैरों के नीचे घिस चुकी चप्पल में नुक्स निकालते हैं। पांव रखते हैं खुद कीचड़ में और छींटों का दोष चप्पल पर लगाते हैं। जिस प्रकार महान प्रयत्न से शिला को पहाड़ पर चढ़ाया जाता है, पर एक ही पल में वह नीचे गिराया जाता है, उसी प्रकार स्वयं के गुण और दोष के विषय में होता है।
जिसे हम पसंद करते हैं, उसके अपराध नहीं दिखाई देते हैं
महत्त्वपूर्ण यह भी है कि जिसे हम पसंद या प्रेम करते हैं, वह कितने ही अपराध करे तो भी प्रिय ही बना रहता है और जहां नफरत हो तो उसमें गुण के बजाय दोष ही दिखते हैं। जैसे अनेक दोषों से दूषित होने पर भी अपना शरीर प्रिय लगता है, वैसे बहुधा दूसरों के दोषों के समय हम बहुत भले बन जाते हैं और अपने दोषों पर पर्दा डालने में बहुत कुशल होते हैं। कहीं न कहीं दोष से हम सभी भरे हैं, मगर दोष-मुक्त होने का निरंतर प्रयास होना चाहिए। हजार गुणों का संग्रह करना आसान है, मगर एक दोष दुरुस्त करना मुश्किल है। सबकी अपनी-अपनी सोच है।
दोष निकालना आसान है, उसे ठीक करना मुश्किल
दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उन दोषों से उतना नहीं बचाता, जितना आदमी अपने को बचाता है। महाभारत में दुर्योधन छिद्रान्वेषण का सबसे बड़ा उदाहरण है। उसने अपने दोष देखने का प्रयास नहीं किया। एक बार गुरु द्रोण ने दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों को साधु पुरुषों की गणना के लिए भेजा तो दुर्योधन को कोई साधु पुरुष मिला ही नहीं, जबकि युधिष्ठिर ने ढूंढ़ लिया। जब तक हम दूसरों में दोष देखने की आदत ठीक नहीं करते, तब तक अपने में सुधार का काम पिछड़ता जाएगा। हमारी बहुत-सी परेशानियां इसी से पैदा होती हैं। दोष निकालना आसान है, उसे ठीक करना मुश्किल। स्वार्थी एवं मूर्ख मनुष्य अपने बड़े से बड़े दोषों की अनदेखी करता है, लेकिन दूसरे के छोटे-से-छोटे दोष को हौवा बना देता है।
मसलन, बढ़ई लकड़ी को सीधा करता है, वैसे ही ज्ञानी अपने दोषों पर विजय पाते हैं। अगर हमारी सोच अच्छी है तो खुद की त्रुटि स्वीकारने में कोई लज्जा नहीं होगी। सुलझा वह है, जो अपने निर्णय खुद करता है और परिणाम के लिए किसी को दोष नहीं देता। दोष स्वीकार करने से ही नहीं मिटता, बल्कि उसको मिटाने के लिए जो भी संभव हो, वह प्रयास करना चाहिए। वैसे भी एक खास गुण भी दोषों को ढक लेता है। खुशदिल व्यक्ति अंतर्मन का अच्छा निर्माण करता है, जबकि असंतुष्ट व्यक्ति संसार को दोष देता है। बुद्धिमान दूसरों की त्रुटियों से शिक्षा लेते हैं और मूर्ख अपनी त्रुटियों से भी नहीं सीखते। लोग दूसरों के गुणों की अपेक्षा दोषों को जल्द ग्रहण करते हैं। अगर कोई हमारी गलतियां निकालता है तो हमें खुश होना चाहिए, क्योंकि कोई तो है जो हमें दोषरहित बनाने के लिए अपना दिमाग और समय दे रहा है।
जो अग्नि गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है। यह अग्नि का गुण भी है और उसकी पहचान भी। अंधा वह नहीं है जो देख नहीं सकता, बल्कि वह जो देखकर भी अपने दोषों पर पर्दा डालने का प्रयास करता है। अग्नि भोजन को पचाती है और उपवास दोषों को पचाता है यानी नष्ट करता है। आत्म-निरीक्षण से अपने दुर्गुणों और दोषों का ज्ञान होता है। दूसरों के दोष देखने से बहुमूल्य शक्ति नष्ट होती है। अपनी आंख में मोटा दोष देखने के बजाय दूसरे की आंख में तिनका देखना अति सरल है। लोग डूबते हैं तो समुद्र को दोष देते हैं, मंजिल न मिले तो किस्मत को दोष देते हैं। खुद संभल कर चलते नहीं और जब लगती है ठोकर तब पत्थर को दोष देते हैं। लोग कीचड़ उछालें तो परवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसके पास जो होता है, वह वही देता है। हकीकत है कि लोग तोल देते हैं चंद बातों पर किरदार दूसरों का, लेकिन जब अपनी बारी आती है तो तराजू तक नहीं मिलता।