अक्सर हम सुनते हैं कि बुढ़ापा जीवन का दूसरा बचपन होता है। पर क्या यह सचमुच उतना ही निर्दोष, निश्चिंत और आनंदमय होता है? दरअसल, यह जीवन का वह पड़ाव है, जहां देह की शक्ति क्षीण होती है और आत्मा की अग्नि भी मंद पड़ने लगती है। यह वह समय है, जब कभी अपनी अंगुलियों पर नचाने वाली दुनिया, उन्हीं अंगुलियों को सहारा देने से भी कतराती है। यह वह समय है जब जीवन का अनुभव, जो कभी ज्ञान का पर्याय था, आज बोझ लगने लगता है। वृद्धों की पीड़ा केवल शारीरिक नहीं होती, यह आत्मा की गहराइयों तक उतरती है, हृदय को छलनी करती है। यह वह चीख है जो होठों तक नहीं आती। वह आंसू है जो पलकों से नहीं बहता। वह दर्द है जो किसी से कहा नहीं जाता। उनकी अनकही दास्तान समाज के उस अदृश्य कोने में दबी पड़ी है, जहां कभी सम्मान का सूरज उगता था, पर अब केवल उपेक्षा की अंधेरी रात पसरी है।
आज के परिवेश में, जहां गति ही जीवन का पर्याय है, वृद्ध अक्सर पीछे छूट जाते हैं। वे उस तेज रफ्तार ट्रेन में बैठे मुसाफिर से लगते हैं, जिसकी मंजिल तो करीब है, पर साथी छूटते जा रहे हैं। यजुर्वेद का कथन है कि हम सौ शरद ऋतुओं तक जिएं। यह कामना तो है। पर क्या वह जीवन सौ शरद ऋतुओं तक सम्मान और प्रेम से भरा होगा? आज का वृद्ध अपने ही घर में अजनबी हो जाता है। जिस घर को उसने अपने पसीने से सींचा, जिस आंगन में उसने अपने बच्चों को खेलते देखा, आज उसी आंगन में उसे एक किनारे धकेल दिया जाता है।
उनकी बातें अनसुनी कर दी जाती हैं, उनके अनुभव को बेमानी ठहरा दिया जाता है। महाभारत में युधिष्ठिर ने यक्ष से पूछा था कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तब यक्ष ने उत्तर दिया था, ‘हर दिन प्राणी मरते हैं, फिर भी शेष अमरत्व की इच्छा करते हैं।’ मगर कई वृद्ध अपनी आंखों के सामने अपनी उपयोगिता, अपने अस्तित्व को मिटता देखते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिन हाथों ने हमें चलना सिखाया, उन्हीं हाथों को आज सहारे की जरूरत पड़ती है, तो हम अपनी आंखें फेर लेते हैं।
अपने बच्चों के भविष्य को संवारने में पूरा जीवन लगा देते हैं माता-पिता
उपेक्षा ही उनकी वेदना का एक पहलू नहीं। क्या हमने कभी उस बूढ़ी आंखों में झांका है, जहां कभी भविष्य के सपने तैरते थे, पर अब केवल एक धुंधली उदासी पसरी है? आधुनिक जीवन शैली ने उन्हें अकेला कर दिया है, एक ऐसे द्वीप पर जहां संचार के सारे साधन होकर भी वे निशब्द हैं। बच्चे करिअर की दौड़ में ऐसे व्यस्त हैं कि उनके पास माता-पिता के लिए दो पल बात करने का भी समय नहीं। वृद्धों ने अपना पूरा जीवन अपने बच्चों के भविष्य को संवारने में लगा दिया, बिना किसी फल की आशा के।
पर आज जब उन्हें प्रेम, सहारा और सहानुभूति के फल की उम्मीद है, तो वे खाली हाथ रह जाते हैं। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या इस कटु सत्य का चीख-चीखकर प्रमाण दे रही है कि हमारा समाज अपनी जड़ों से कितनी दूर जा रहा है। ये वृद्धाश्रम केवल ईंट-पत्थर के भवन नहीं, बल्कि उन सपनों, आशाओं, रिश्तों के टूटने की हृदयविदारक कहानियां हैं, जिन्हें कभी अटूट माना जाता था। वे वहां केवल शारीरिक रूप से नहीं रहते, बल्कि एक गहन मानसिक और भावनात्मक सूनेपन में जीते हैं, जैसे कोई पतझड़ में सूखा पत्ता हो, जिसकी शाखाएं टूट चुकी हों।
वृद्धों के अनुभवों का विशाल भंडार, जिसे कभी समाज की धरोहर माना जाता था, आज उनके ज्ञान को ‘पुरानी बातें’ कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। वृद्धों के मन में सिर्फ थोड़ा-सा प्रेम, थोड़ा-सा सम्मान और साथ की इच्छा होती है। पर क्या हम उन्हें यह प्राप्त करने में मदद कर रहे हैं? उनकी जिंदगी की किताब के पन्ने आज खुद-ब-खुद पलटने के बजाय बिखरे हुए महसूस हो रहे हैं। यह पीड़ा तब और गहरी हो जाती है, जब वे देखते हैं कि समाज का हर वर्ग उनके प्रति असंवेदनशील होता जा रहा है, मानो वे कोई अनावश्यक बोझ हों, जिनके अस्तित्व से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें मिलने वाला थोड़ा-सा सम्मान भी कम होता जा रहा है। अस्पतालों, बैंकों या किसी भी सरकारी दफ्तर में उन्हें अक्सर कतारों में खड़ा देखा जा सकता है, उनकी कांपती टांगें और झुकी हुई कमर इस बात की गवाही देती हैं कि उनकी शारीरिक शक्ति उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। यह सब कुछ उन्हें एक बोझिल अहसास दिलाता है, जैसे वे इस दुनिया, समाज या अपने ही परिवार पर एक अनावश्यक बोझ हों। वृद्धों की चुप्पी, उनकी निस्तेज आंखें और उनके अधखुले होंठों पर ठहरी शिकायतें, एक ज्वलंत प्रश्न बन कर खड़ी हैं- क्या यही है मानव सभ्यता का चरम विकास, जहां प्रेम और करुणा की जगह व्यावसायिकता ने ले ली है?
आज आवश्यकता है कि हम अपनी आंखें खोलें, अपने हृदय के द्वार खोलें और वृद्धों की इस अनकही दास्तान को सुनें। यह केवल उनकी नहीं, बल्कि हम सबके भविष्य की कहानी है, क्योंकि एक दिन हम सब भी इसी पड़ाव पर होंगे। हमें याद रखना होगा कि जिस नींव पर आज हम खड़े हैं, उसे हमारे वृद्धों ने ही अपने खून-पसीने से सींचा है। उनके प्रति हमारा दायित्व केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक भी है। यह केवल उन्हें सहारा देने की बात नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी मानवीयता और अपने मूल्यों को बचाने की बात है। उन्हें वह सम्मान, वह प्रेम और वह सुरक्षा देना हमारी जिम्मेदारी है, जिसके वे हकदार हैं, ताकि उनकी शेष यात्रा पीड़ादायी नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण और गरिमामय हो।