आम जीवन में तकनीक के बढ़ती दखल की सीमा आखिर क्या होगी? क्या सुविधाओं का विस्तार यहां तक हो जाएगा कि संवेदना के लिए जगह कम पड़ जाएगी? ऐसे में इंसान और इंसानियत के मूल्यों का क्या होगा? केवल बड़ी उम्र के लोग नहीं, बच्चों की हालत यह है कि उन्हें अब जीवंत खेलकूद के बजाय तकनीक की दुनिया के खेल ज्यादा भाने लगे हैं। लेकिन इस सबका हासिल क्या होगा? दरअसल, कुछ दिन पहले एक हवाई अड्डे पर किसी वजह से भीड़भाड़ के बीच वहां लगी कुर्सियों पर एक जगह एक दंपति बैठे थे। उनका सात-आठ महीने का बच्चा वहीं ‘प्रेम’ में बैठा मोबाइल पर कार्टून देख रहा था। दूसरी बच्ची इधर-उधर दौड़ रही थी।

मोबाइल देकर बच्चों को व्यस्त रखने से हो रहा नुकसान

माता-पिता अपनी बातचीत में व्यस्त थे और बार-बार खिलखिला रहे थे। अचानक छोटा बच्चा जोर-जोर से चीखने लगा। थोड़ा गौर करने पर पता चला कि मोबाइल में जिस कार्यक्रम को वह देख रहा था, वह खत्म हो गया था। उसका रोना सुन कर पिता नीचे झुका और उसने मोबाइल में दूसरा कार्यक्रम चला दिया। पास में खेल रही बच्ची ने जब यह देखा तो वह भी मोबाइल मांगने लगी और जिद करने लगी।

तब मां ने उसे अपना मोबाइल पकड़ा दिया। अब दोनों बच्चे उसमें व्यस्त हो गए। बीच-बीच में मां-पिता उन्हें एक-दो मिनट के लिए पूछ ले रहे थे। फिर उड़ान का वक्त आया और वह परिवार भी हवाई जहाज में भीतर पहुंचा। लेकिन नियमानुसार मोबाइल बंद करने के आदेश को भी उन्होंने नहीं माना। दोनों बच्चों के लिए मोबाइल एक केंद्र हो चुका था।

यह किसी एक जगह का कोई एक उदाहरण हो सकता है। लेकिन क्या ऐसे दृश्य आम नहीं हैं, जो सबको कहीं भी और कभी दिख सकते हैं? क्या माता-पिता को पता नहीं कि इतने समय लगातार मोबाइल देखना बच्चों की सेहत के लिए कितना हानिकारक है? जब वे यात्रा के दौरान ऐसा कर रहे हैं, तो घर में तो शायद पूरे समय ऐसा करते होंगे! इससे उनकी आंखों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उनकी दुनिया को देखकर सीखने की क्षमता का क्या होगा? उनके दोस्त कैसे बनेंगे? बाहर खेलने की आदतें कैसे पड़ेंगी? इस बहाने दुनिया को जानने-समझने की जो आदतें विकसित होती हैं, उन्हें कैसे सीखेंगे? क्या जल्दी ही उन्हें मोटा चश्मा लग जाएगा?

इस संबंध में विशेषज्ञों का साफ कहना है कि बचपन से लंबे समय तक स्मार्टफोन के ‘स्क्रीन’ को देखना बच्चों के लिए खतरनाक है। वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। चूंकि उनकी एक जिद पूरी हो जाती है, तो वे हर बात को जिद करके पूरी करवाने की कोशिश करते हैं। मान लिया जाए कि माता-पिता हर जिद को पूरी कर भी दें, लेकिन स्कूल में तो ऐसा नहीं होता और न ही वहां हर समय मोबाइल का उपयोग किया जा सकता है। यही नहीं, बाहरी दुनिया भी इस जिद को पूरा नहीं करती। फिर हर वक्त बैठे रहने और मोबाइल या लैपटाप पर कुछ देखते हुए अक्सर बच्चे कुछ न कुछ खाते रहते हैं।

आमतौर पर यह डिब्बाबंद ही होता है जो स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। बच्चों को छोटी उम्र में ही घातक रोगों और जिन्हें जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां कहते हैं, उनका सामना करना पड़ता है। ऐसे ज्यादातर बच्चों के माता-पिता खासे पढ़े-लिखे दिखते हैं। वे बच्चों की बातचीत से बचने के लिए और उनकी बातचीत में कोई व्यवधान न पड़े, इसके लिए मोबाइल पकड़ा देते हैं। क्या वे नहीं जानते कि ‘स्क्रीन टाइम’ पर बहुत कुछ निर्भर है और बच्चों को यह कितने समय के लिए देखने दिया जा सकता है। ऐसे अभिभावक अपने बच्चों के बारे में जागरूक क्यों नहीं होते।

इसमें कोई शक नहीं कि बच्चों का मनोरंजन बेहद जरूरी है, लेकिन उसके तरीके दूसरे भी हो सकते हैं। इसके अलावा बच्चों के साथ माता-पिता की बातचीत भी बेहद जरूरी है। इससे परिवार में आपसी रिश्ते बढ़ते हैं। बच्चे माता-पिता को और माता-पिता उन्हें समझते हैं। इन दिनों बहुत से किशोर होते बच्चे इस बात की शिकायत करते हैं कि माता-पिता उनसे बात ही नहीं करते। पूरे दिन दफ्तर में रहते हैं और लौटने के बाद अपने मोबाइल या कंप्यूटर में व्यस्त रहते हैं।

जो लोग इस समस्या की जटिलता को समझते हैं, वे इस लत के शिकार बच्चों के माता-पिता से कुछ कहना चाहते हैं, मगर उनके मन में डर भी बैठ जाता होगा। मान लिया जाए कि बच्चों की अच्छाई के लिए उन्हें सलाह दी जाए और यह सुनना पड़ जाए कि हमारे बच्चे, हम जानेंगे… आप बीच में बोलने वाले कौन हैं! ऐसे बच्चों के बारे में सोचना पड़ता है कि किन हालात में वे दुनिया से बेखबर अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हो जाते हैं।

तकनीक की बच्चों के जीवन में इतनी घुसपैठ भला क्यों होनी चाहिए? लेकिन समय यह आ गया है कि अक्सर सोशल मीडिया पर माता-पिता इस बात पर खुद को गौरवान्वित महसूस करते दिखते हैं कि देखो उनका छोटा बच्चा कंप्यूटर और मोबाइल पर क्या-क्या कमाल कर सकता है… वीडियो बना लेता है, रील बना लेता है। ऐसे अभिभावकों या माता-पिता को क्यों बच्चों का आगे का जीवन नहीं दिखाई देता?