जीवन एक अनवरत यात्रा है और हम सब उस यात्रा के यायावर हैं। एक अनजानी यात्रा, जिसमें हर व्यक्ति अपने जीवन काल में दो यात्राएं लगातार कर रहा होता है। एक बाहरी यात्रा और दूसरी अपने भीतर की यानी आंतरिक यात्रा। बाहरी यात्रा भौतिक जगत में होती है, जिसके लिए सामने की घटनाएं और गतिविधियों से लेकर परिस्थितियां भी उत्तरदायी होती हैं। आंतरिक यात्रा व्यक्ति अपने भीतर करता रहता है, जो आमतौर पर अंत तक चलती रहती है। ठहरे हुए व्यक्ति के अंदर भी एक सफर चलता रहता है।

दरअसल, मन एक संसार है, जिसमें विचारों का प्रवाह निरंतर रहता है। मन की गलियों में हम भटकते ही रहते हैं। यों इस भटकने को कई बार जीवन की नकारात्मक परिस्थितियों के तौर पर देखा जाता है, मगर सच यह है कि संसार में क्या स्थिर है कि चेतना की यात्रा सतत चलती न रहे! हालांकि अगर राह भटकने से इतर भटकने को जीवन की यात्रा के तौर पर देखा जाए, तो भटकना ही जीवन है। अपने भीतर चलने वाली यात्रा में मन ही रहबर है और मन ही राह। बाहरी और आंतरिक, दोनों यात्राओं की मंजिल एक है और वह है आत्मा का आनंद।

मन सारी पीड़ा का केंद्र बिंदु

इस आनंद की प्राप्ति तभी होती है जब हमें आत्म-तत्त्व का बोध हो जाए। बाहर हम चाहे कितना भी भटक लें, लेकिन आनंद सिर्फ हमारे भीतर ही है। अब बाहर की यात्रा और आंतरिक उद्वेलन की कड़ियां किस तरह अलग हैं या फिर जुड़ी हुई हैं, उसकी व्याख्या भी हमारी चेतना और समय पर निर्भर है। फिर भी बाहरी यात्रा से जो अनुभव मिलता है, उससे गुजरते हुए आंतरिक यात्रा तक पहुंचना ही जीवन का गंतव्य होता है। मन से बाहर के संसार का सफर तय करते हुए आत्म-तत्त्व की खोज करना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।

लक्ष्य के प्रति गंभीर रहने के लिए रखनी चाहिए निरंतरता, जीवन के लिए नियमित होना जरूरी

सुख का कोई आधार होता है और दुख भी किसी न किसी कारण से होता है, वहीं खुशी मिलने के एक हिस्से के रूप में आनंद स्वयं की खोज है। यह खोज कभी समाप्त नहीं होती, बल्कि जीवन के अनुभवों के साथ-साथ और गहरी होती जाती है। जीवन के असल आनंद को जब हम समझने लगते हैं, तब बाहरी परिस्थिति हमें प्रभावित नहीं करती। सुख-दुख से परे आनंद महसूस करना ही जीवन का परम आनंद है। जिस दिन यह खोज पूरी हो जाती है, उसके बाद जीवन की सारी पीड़ा शांत हो जाती हैं। मन सारी पीड़ा का केंद्र बिंदु है। जब यह आत्म-तत्त्व का अनुभव करने लगता है तो बाहरी परेशानियां जीवन में प्रवाह के मानिंद गुजरने लगती हैं।

भविष्य की फिक्र तनाव देती है

जीवन एक सतत् प्रवाह है, जो निरंतर बहता ही रहता है। जैसे नदी का प्रवाह कभी तीव्र तो कभी मद्धिम होने लगता है, लेकिन उसकी मंजिल आखिर सागर में मिल जाना ही रहती है। यों जीवन भी एक नदी है, जिसका प्रवाह कम या ज्यादा हो सकता है, लेकिन मंजिल हमारी आत्म-तत्त्व की खोज ही होनी चाहिए। जब आत्म-तत्त्व की खोज अपने अंदर होने लगती है, हम अपनी खुशी के लिए किसी बाहरी तत्त्व पर निर्भर नहीं रहते। अगर हमें आत्म-तत्त्व का बोध हो जाए तो समझ लीजिए कि हमने जीवन का शिखर छू लिया। जीवन को आनंदमयी यात्रा बनाने के लिए हमें अपने जीवन के उद्देश्य निश्चित करने होंगे। उद्देश्य निर्धारण से ही जीवन की दिशा निर्धारित होगी। उद्देश्य की पूर्ति के क्रम में याद रखना चाहिए कि हम वर्तमान में, यानी यथार्थ के धरातल पर ही रहें। भविष्य की फिक्र तनाव देती है। यों किसी भी मसले पर अत्यधिक सोचना कई बार तनाव और अतीत की यादें अक्सर मलाल देती हैं। इसलिए बेहतर यह है कि वर्तमान को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। व्यवस्थित सुनियोजित दिनचर्या जीवन को सफल और निरोगी बनाती है।

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जीवन इतना भी कठिन नहीं, जितना हम इसे बना लेते हैं। इसका कारण यह है कि हम कभी वर्तमान को नहीं जीते। आत्म-तत्त्व की खोज हमारे जीवन की मंजिल है, लेकिन उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है जीवन के वर्तमान सफर का आनंद लेना। और इसके लिए जरूरी है सकारात्मक स्पंदन का होना। सकारात्मक स्पंदन किसी भी वस्तु, व्यक्ति, रुचि से हो सकता है। यह हमारे जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना जीने के लिए भोजन। सकारात्मक स्पंदन हमारे मन का भोजन है और स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन में ही अच्छे विचारों का प्रवाह होता है। फिर इन्हीं विचारों से ही आत्म-तत्त्व पवित्र होता है और संतृप्त मन जीवन की खोज को मुकम्मल बनाता है।

जीवन सरल है, मन की यात्राएं कठिन

जीवन की यात्रा में हमें अनेक राहगीर मिलते हैं। सबकी अपनी मंजिल है। जब जिसका सफर पूरा हो गया, वह पीछे छूट गया। जब हम आंतरिक यात्रा को सही अर्थों में पूरी कर लेते हैं, तो बाहरी यात्रा के पड़ाव हमें विचलित नहीं करते। हम राहगीर की तरह अपने आसपास के लोगों को आते-जाते देखते हैं। बहुत आसान है बिना मोह के किसी को जाने देना, बशर्ते कि विचार या भाव की भूमि पर उससे कोई अपेक्षा न उभरी हो। इसीलिए इस पूरी सांसारिक यात्रा में हमें निर्मोही राहगीर बन जाना चाहिए, जो थोड़ा मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं।

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संसार की पूर्णता बाहरी यात्रा को तय करते हुए आंतरिक यात्रा में प्रवेश करना है। आंतरिक यात्रा की मंजिल सिर्फ आत्म-तत्त्व की खोज है जो नितांत आवश्यक भी है। इस मंजिल की यात्रा जितनी जल्दी शुरू होगी, जीवन यात्रा भी उतनी ही सरल होगी। जीवन सरल है, मन की यात्राएं कठिन हैं। आवश्यकता है मन के ठहराव की। अगर एक बार हम ठहर गए तो भटकाव का प्रश्न नहीं उभरेगा। फिर जीवन-यात्रा ही मंजिल होगी और मंजिल ही जीवन की यात्रा होगी।