इस संसार में बिना प्रतिफल की आस के कोई भी मानवीय क्रिया संभव नहीं होती। इस तथ्य को वैज्ञानिक नजरिये से भी समझा जा सकता है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। इसी तर्ज पर अगर वैश्विक परिदृश्य में अलग-अलग कानून और व्यवस्था के उल्लंघन पर दंडित होने का डर नहीं होता, यानी अनुशासित रहकर निर्बाध जिंदगी बसर करने का आश्वासन नहीं होता, तो निश्चित ही फिर इंसान में इंसानियत के कहीं लक्षण दिखाई नहीं देते। उसकी मनमर्जी के चलते यह संसार ही जीने लायक नहीं रहता। चहुंओर अराजकता का बोलबाला होता। इस बात को कुछ यों कहा जाए कि भैंस उसी की होती, जिसके हाथ में लाठी होती।

जहां तक भारतीय संदर्भों का सवाल है, तो हमारे यहां धार्मिक क्रियाकलाप भी किसी न किसी प्रत्याशा के चलते ही मूर्त रूप लिया करते हैं। अगर धर्म ग्रंथों में स्वर्ग या नर्क की अवधारणा का उल्लेख नहीं होता, सांसारिक भवसागर से पार जाकर जनम-मरण के झंझट से मुक्त होने का आधार नहीं होता और पाप और पुण्य की अवधारणा पर जोर नहीं दिया गया होता, तो समाज का आज जितना कुछ उज्ज्वल स्वरूप दिखाई देता है, शायद ऐसा नहीं हो पाता। वैसे पाप और पुण्य कर्म की समझ के चलते कुछ हद तक कानून और व्यवस्था का परिपालन स्वयं ही होता नजर आता है।

बिना किसी प्रचार-प्रसार के परोपकार की दृष्टि से किया जाता है काम

सामाजिक जनजीवन में भी तथाकथित निस्वार्थ भाव से परोपकार के चलते भी कहीं न कहीं किसी न किसी अंश में श्रेय लेने की प्रतिस्पर्धा दिीrखाई देती है। कभी-कभी तो धन शक्ति की प्रबलता के चलते उमड़ रही श्रद्धा का मूल्यांकन भी अर्थ त्याग करने के आधार पर ही किया जाता है। इसमें भी परलोक सुधारने के भाव दिखाई देते हैं। वैसे जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से बिना किसी प्रचार-प्रसार के परोपकार की दृष्टि से काम किया जाता है, जिसका प्रत्यक्ष रूप से तो कोई सीधा प्रतिफल नहीं मिलता, लेकिन दाता या कर्ता के अंतर्मन में असीम आनंद की दिव्य अनुभूति अवश्य होती है। काफी संख्या में ऐसे ही किसी आनंद की अनुभूति के निमित्त दाता या कर्ता भाव रखते हैं। सरल शब्दों मे इसे तोहफे के बदले तोहफा पाने के रूप में लिया जा सकता है।

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पारिवारिक जीवन में तमाम संबोधन के रिश्ते-नातों का परिपालन अपनत्व की भावना से जरूर किया जाता है, लेकिन इसमें भी काफी हद तक एक को दूसरे का संबल माना जाता है। वैसे वंशानुगत रिश्ते भावनाओं से भरे होते हैं, जिसमें लोकलाज और लोक व्यवहार के पालन की भी भावना होती है। इसके चलते पारिवारिक परंपरा के परिपालन के साथ-साथ पारिवारिक सुरक्षा का भाव भी विद्यमान होता है। गरज यह कि अंतर्मन की भावनाओं के वेग के वशीभूत पारिवारिक रिश्तों का परिपालन किया जाता है। आजकल कहीं-कहीं कुछ अंशों में ‘लोग क्या कहेंगे’ उक्ति की आशंका के चलते भी मन ही मन बोझ समझे जाने वाले रिश्ते का परिपालन मन मारकर कर लिया जाता है। यह दिखावा समाज की नजरों में गिरने नहीं देता।

आजकल कई रिश्ते हो चुके हैं स्वार्थ प्रेरित

दरअसल, आजकल समय ही ऐसा आ गया है कि कई रिश्ते स्वार्थ प्रेरित होने लगे हैं। व्यवहार में देखा गया है कि कई बार रिश्तों में ‘इस हाथ दे और उस हाथ ले’ का गणित काम करता दिखाई देता है। रहा सवाल व्यक्तिगत रिश्ते-नातों का, तो इन दिनों व्यावसायिक रिश्ते काफी हद तक पारिवारिक रिश्तों पर भारी पड़ते दिखाई देते हैं। वास्तव में ज्यादातर रिश्ते को निहित स्वार्थ की दृष्टि से देखा जाने लगा है। एक प्रकार से कोई न कोई प्रतिफल की अपेक्षा के साथ परस्पर संबंधों का निर्वहन किया जाने लगा है। जरूरी नहीं कि यह प्रतिफल आर्थिक ही हो। प्रतिफल का स्वरूप सामने वाले द्वारा पूर्व में किए गए उपकार के बदले भी हो सकता है और हम जिस पर उपकार कर रहे हैं, उसका भावी प्रतिफल मिलने की आशा से भी हो सकता है।

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जहां तक निहायत व्यक्तिगत संबंधों की बात है, इन संबंधों का आधार एक दूसरे की जरूरत पर निर्भर रहता है। जाहिर है कि यह आधार शारीरिक और मानसिक, दोनों ही प्रकार का होता है। आमतौर पर पति-पत्नी को हमारी धर्म संस्कृति में सात जन्मों के साथ के रूप में निरूपित किया जाता है। हालांकि इसमें भावनाओं का सहारा लेकर कुल की मर्यादा के अनुरूप आचरण और व्यवहार का दोनों ही पक्ष शिद्दत से पालन करते दिखाई देते हैं, लेकिन ऐसा रिश्ता भी कहीं न कहीं दोनों हाथों से ताली बजने वाली मानसिकता लिए हुए होता है। एक के संकट में दूसरे का साथ, यह आश्वासन ऐसे रिश्ते में अघोषित रूप से रहता ही है। जीवनसाथी से एक दूसरे का जीवन भर का साथ निभाने का समझौता होता है। यह आश्वस्ति प्रतिफल ही तो है।

आवरण चाहे जो चढ़ाया जाए, लेकिन सच यही है कि लगभग हर रिश्ता किसी न किसी रूप में प्रतिफल की आस लिए होता है। यही कारण है कि भारतीय परिवेश में तमाम तरह के रिश्तों को कुटुंब या परिवार के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है। दरअसल, जमाने का दस्तूर है कि आप किसी के लिए कुछ करेंगे तो सामने वाले आपके लिए कुछ करेंगे। और सामने वाले ने हमारे लिए कुछ किया है तो हमें सामने वाले के लिए कुछ करना होगा। इस संसार में एकतरफा कभी कुछ नहीं होता। इन तमाम बातों का लब्बोलुआब यही है कि इस संसार में एक हाथ से कभी ताली नहीं बजा करती।