समय के साथ हम मनुष्यों ने समय, दूरी, भार और तापमान आदि को मापने के मापदंड तथा विधियां विकसित कीं, जिन्होंने मानव सभ्यता की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगर स्वयं को दूसरों के साथ मापने-तौलने की प्रवृत्ति से निजात न पा सकना, आज बहुतेरों के लिए ग्लानि और परेशानी का सबब बन चुका है। मानव स्वभाव में अपनी पहचान और स्थान को परिभाषित करने की प्रवृत्ति जन्मजात है। यह प्रवृत्ति आदिम युग से ही हमारे अस्तित्व का हिस्सा रही है, जब जीवन का उद्देश्य केवल जीवित रहना था। शक्ति, संसाधन और सामाजिक स्वीकृति के लिए प्रतिस्पर्धा उस समय अस्तित्व के साधन थे, लेकिन आधुनिक समाज में इस व्यवहार की अधिक उपयोगिता शेष नहीं रह गई है। बल्कि यह केवल आत्मघाती सिद्ध हो रहा है।
तुलना का एक प्रमुख कारण सामाजिक अपेक्षाएं हैं। समाज ने सफलता, सुंदरता और योग्यता के मानक तय कर दिए हैं। इन मानकों पर खरा उतरने की होड़ में हम अपना आंतरिक संतुलन खो देते हैं। इसके अतिरिक्त, तकनीकी प्रगति और विशेष रूप से सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और अधिक तीव्र कर दिया है। आज हर व्यक्ति अपने जीवन का एक ‘संवारा हुआ’ संस्करण प्रस्तुत करता है, जिसे देख कर दूसरों को लगता है कि वे पीछे छूट रहे हैं। यह भ्रम हमें कमतरी के अहसास यानी हीनताबोध से भर देता है। इस प्रक्रिया में हम यह भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति के संघर्ष का अपना संदर्भ होता है, सफलता की अपनी परिभाषाएं होती हैं।
संघर्षों के होते हैं सामाजिक परिप्रेक्ष्य
फिर संघर्षों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य होते हैं। यह व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि से तय होती है कि उसे सत्ता और तंत्र के मौजूदा ढांचे में कितना तथा किस स्तर का संघर्ष करना है। फिर कई बार सही दिशा में किए गए संघर्ष का नतीजा भी अनुकूल हो, यह जरूरी नहीं। यह एक आम सच्चाई है कि कई लोगों को जीवन को बेहतर बनाने की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता, क्योंकि सब कुछ उन्हें विरासत में उपलब्ध होता है। वहीं, किसी को जीने तक के लिए कठिन दौर से गुजरना पड़ता है। ये दो ध्रुव बताते हैं कि व्यक्ति की हैसियत को आंकने का एक पैमाना दोषपूर्ण है।
समाज में प्रतिस्पर्धा का जो ढांचा स्थापित है, उसने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। हमें यह विश्वास दिलाया गया है कि औसत होना असफलता के समान है। मगर यह धारणा गहरी और त्रुटिपूर्ण है। औसत होना प्राकृतिक है। अधिकांश लोग औसत होते हैं और यही औसत होना मानव समाज के संतुलन और स्थिरता का आधार है। यह समझने की आवश्यकता है कि हर कोई असाधारण नहीं हो सकता। अगर सभी असाधारण बन जाएं, तो ‘असाधारण’ शब्द का कोई अर्थ नहीं बचेगा। अगर हम सांख्यिकीय दृष्टि से देखें, तो अधिकांश लोग किसी न किसी क्षेत्र में औसत ही होते हैं। ‘बेल कर्व’ में अधिकतर आबादी बीच के हिस्से में आती है। असाधारण बढ़िया या असाधारण बुरा होने, दोनों की संभावना काफी कम होती है। हम न जाने क्यों यह माने बैठे रहते हैं कि हम महानता के इकलौते और असली हकदार हैं। इसी दौड़ में फंसे रह कर हम निराशा और तनाव में रहते हैं।
धीरे-धीरे हम अन्य लोगों के प्रति और उदार एवं सहिष्णु हो जाते हैं
औसत होने का सबसे बड़ा आनंद है- संतोष का अनुभव। जब हम अपने औसतपने को स्वीकार करते हैं, तो हमारे ऊपर उत्कृष्टता की कृत्रिम अपेक्षाओं का बोझ नहीं रहता। यह स्वीकृति हमें अपने जीवन के छोटे-छोटे पलों को संजोने का अवसर देती है। जीवन के वे छोटे पल, जैसे एक शांत शाम, परिवार के साथ बिताया गया समय, दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली, एक बढ़िया किताब, एक गर्म चाय की प्याली, अक्सर हमारी वास्तविक खुशी के स्रोत बन जाते हैं। वहीं जब हम इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि औसत होना आमफहम और सामान्य है, तो हम दूसरों की कमजोरियों और संघर्षों को भी बेहतर समझ पाते हैं, उनसे संबद्ध कर पाते हैं। यह समझ समाज के साथ हमारे रिश्ते को प्रगाढ़ और नजरिए को प्रखर करती है। हम धीरे-धीरे अन्य लोगों के प्रति और उदार एवं सहिष्णु हो जाते हैं। सहानुभूति रखने लगते हैं।
सात जन्मों की शर्त वाले रिश्ते पल भर में तोड़ रहे दम, शहरीकरण ने परिवार के बीच बढ़ाई दूरी
मानदंड की मीनार में औसतपना बीच का कोई तल्ला है, जहां ऊंचाइयों की उम्मीदें और गिरावट का भय, दोनों ही कम हो जाते हैं। उत्तम होने की अपेक्षाओं से मुक्त होकर हम नई चीजों को सीखने को लेकर मुखर हो जाते हैं। जब हम गिरते हैं, तो गिरने का आनंद ले पाते हैं। फिर फुर्ती से उठते हैं। और दोबारा, तिबारा, चौबारा खुद को उस क्रियाकलाप में खपा देते हैं। कई क्षेत्रों में हाथ आजमा कर हमारा व्यक्तित्व सर्वांगीण रूप से सशक्त आकार ले लेता है। धीरे-धीरे हमें इस उन्मुक्तता का चस्का लगने लग जाता है। ‘औसत’ एक स्थिर स्थिति नहीं है। यह एक गतिशील मध्यबिंदु है जो लचीलापन और अनुकूलनशीलता प्रदान करता है। औसत होने का मतलब यह कतई नहीं कि हम महत्त्वाकांक्षी नहीं हैं, बल्कि यह कि हम अपने प्रयासों और उपलब्धियों को अपनी क्षमता और परिस्थितियों के संदर्भ में देखते हैं। यह भी कि हमें तीखे ढलानों पर चढ़ाई करने से अधिक सपाट मैदानों में दूर तक चलना, सुस्ताना रास आता है।
कुल मिला कर औसत होना लक्ष्य न हो, पर परिणाम में औसत होना पूरी तरह स्वीकार्य हो। हमेशा अलग और अद्वितीय दिखने की होड़ पकाऊ और थकाऊ काम है। कभी-कभी खुद को भीड़ का हिस्सा मान लेने में भारी सुकून शामिल होता है।