वक्त के साथ दुनिया में विकास होने का दावा किया जा रहा है। इसी क्रम में उम्मीद की जाती है कि इसी अनुपात में समाज का भी विकास हुआ होगा। बहुत सारे लोगों की अपेक्षाओं और समझ के मुताबिक ऐसा हो भी रहा है। मगर शहरों-महानगरों में परिवार से लेकर नाते-रिश्ते और जान-पहचान तक में रिश्तों का जो स्वरूप पहले था या फिर जिसकी उम्मीद की जाती है, क्या वह उसी रूप में आज भी हमें दिखता है? सच यह है कि आभासी दुनिया में संबंधों के आभासी विस्तार के दौर में जमीनी स्तर पर आपसी रिश्तों की गांठ ढीली होती जा रही है।
यहां तक कि सात जन्मों की शर्त वाले रिश्ते भी पल भर में दम तोड़ दे रहे हैं। दरअसल, देखते-देखते आज बहुत कुछ बदल चुका है। पहले संयुक्त परिवार होते थे। जब इसे बोझ के रूप में देखा-समझा गया तब फिर एकल परिवार का चलन बढ़ा। यहां तक गनीमत थी। लेकिन इसकी हद तब देखी जाने लगी, जब अपूर्ण परिवार की नौबत आने लगी। एक दशक पहले तक जो मामले कुछ हजार में होते थे, अब लाखों में होने लगे हैं।
सोशल मीडिया ने दुनिया को बदल दिया
वह रिश्ता जो किसी किताब के एक पन्ने के दो पेज की तरह होता है, उनकी पहचान भले अलग-अलग होती है, लेकिन वजूद एक होता है। जब ये रिश्ते टूटते हैं या फिर लोग अलग-अलग होते हैं, तो उनका अस्तित्व मटियामेट हो जाता है। दोनों पहचानें वजूद को चीरते हुए अलग होती हैं। सही मायने में न तो पन्ना रह जाता है, न किताब।
रिश्तों में भावों के क्षणिक उतार-चढ़ाव का रंग गहरा होता जा रहा है। बिल्कुल वैसे ही जैसे चंद सेकंड की अवधि के वीडियो देखते हुए पलक झपकने के पहले रोमांटिक दृश्य और झपकने के बाद बेरुखी का दृश्य। संबंध विच्छेद के कई कारणों में से एक कारण सोशल मीडिया भी है। इसने हमारे भावों के स्थायित्व को कमजोर किया है। हम अपने भावों को सोशल मीडिया की रगों में रंगते जा रहे हैं, जहां सब त्वरित हो रहा है। रंग चढ़ना लाजिमी भी है। लोग लगभग प्रतिदिन इन्हीं भावों के उतार-चढ़ाव के सागर में घंटों डुबकी लगा रहे हैं।
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यह सच है कि सोशल मीडिया ने दुनिया को एक गांव में बदल दिया है, लेकिन गलत यह भी नहीं है कि इसने गांव के भीतर भी विभाजन बढ़ा दिया है। यानी सोशल मीडिया ने दूरियां घटाई तो जमीनी स्तर पर फासले भी बढ़ा दिए हैं। हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि हमारा ध्यान पारिवारिक रिश्तों में कुछ कमजोर हुआ है और हम ‘वर्चुअल’ यानी आभासी रिश्तों को मजबूत करने में लगे हुए हैं। रिश्तों में दरार की एक वजह यह भी है कि हम आभासी दुनिया को आदर्श मानने लगे हैं, जहां हम उन्हीं दृश्यों को देख पाते हैं, जो सिर्फ दिखने- दिखाने के उद्देश्य से पूरी रणनीति के साथ परोसे जा रहे हैं। हम उन्हें ही अपने जीवन में उतारने के प्रयास में लगे हैं, जो व्यावहारिक नहीं है। इस जद्दोजहद ने लोगों में असंतोष, हीनभावना, कुंठा, भौतिकता आदि को बढ़ाया है। इससे न केवल लोगों की आदतें बदली हैं, बल्कि सोच पर भी गहरा असर पड़ा है।
लोगों में सहिष्णुता और सामंजस्य में आ गई कमी
एक पहलू यह भी है कि आज सहनशीलता लगभग खत्म हो चुकी है, जिस वजह से हम एक-दूसरे की जरा-सी बात को भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। इसके कारण नई पीढ़ी रिश्तों को खत्म करते हुए जरा नहीं हिचकिचाती। ‘रील कल्चर’ ने ‘परफेक्शन’ यानी संपूर्णता के आग्रह को भी बढ़ावा दिया है। हम एक ही शख्स में हर खूबी तलाश रहे हैं, जो लगभग असंभव है। रिश्तों में त्याग, सहिष्णुता और सामंजस्य में कमी आई है। भावनाएं कम, नफा-नुकसान का हिसाब ज्यादा हावी होता जा रहा है।
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हर जगह हर बात के औचित्य की अनिवार्यता को शर्त में खोजने के बजाय इसे सहमति आधारित बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए कभी-कभी जीवन में कुछ लापरवाहियां, गलतियां हल्के-फुल्के अंदाज में जीना और छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करना भी जरूरी होता है। कुछ लापरवाहियां अच्छी हो सकती हैं, क्योंकि वे हमें खुश रहने और अपने असली स्वभाव को महसूस करने का मौका देती हैं। ये हमारे जीवन के तनाव को कम करके रिश्तों को नया नजरिया देती हैं। सुकरात कहते हैं कि एक शिक्षित मन की यह पहचान है कि वह किसी भी विचार को स्वीकार किए बिना उसके साथ सहज रहे।
पहले लोग रिश्तों को जिम्मेदारी और कर्तव्यों के रूप में देखते थे, जबकि अब लोग रिश्तों से व्यक्तिगत खुशी और संतुष्टि की उम्मीद रखते हैं। अगर इस प्रकार की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पा रही हैं तो विच्छेद विकल्प बन रहा है। हम यह क्यों भूल रहे हैं कि रिश्तों के कमजोर होने के कारण हमारे मूल्य और हमारी परंपराएं भी खतरे में पड़ सकती हैं और आने वाली पीढ़ी का भविष्य जोखिम में पड़ सकता है। इससे हमारी हजारों वर्षों की निर्मित संस्कृति और संस्थाओं का स्वरूप धराशायी हो सकता है। सार्त्र कहते हैं कि मनुष्य स्वतंत्र है, लेकिन उसकी स्वतंत्रता एक दायित्व के रूप में आती है। समाज के नागरिक होने के नाते हमारे भी कुछ दायित्व हैं कि हम अपनी विरासत को और विकसित कर आगे आने वाली पीढ़ी को सौंपे। अपूर्ण परिवार जीवन को पूर्ण नहीं कर सकता है। मानव जीवन केवल संतुलन और साहचर्य में ही पूर्ण होता है। जीवन में मधुरता रिश्तों में प्रेम, सम्मान और त्याग से ही संभव है। वर्तमान में सबसे अमीर वही है, जिसने संबंधों को सहेजकर रखा है।