आज प्रामाणिकता ऐसी चीज है, जिसे ईमानदारी से नहीं, बल्कि इस बात से मापा जाता है कि यह स्वीकार्यता के साथ कितनी अच्छी तरह मेल खाती है। हममें से कई लोग खुद को दुनिया की अपेक्षाओं के अनुसार ढालना सीखते हैं। तब तक परिष्कृत करना, संपादित करना और प्रदर्शन करना, जब तक कि वह अभिनय हमें अपना एकमात्र संस्करण न लगे। वास्तविकता का प्रदर्शन करने का दबाव आधुनिक जीवन के हर पहलू में व्याप्त हो गया है। हमने प्रामाणिकता को एक ब्रांड में बदल दिया है। प्रामाणिकता हमें स्वतंत्र बनाने वाली थी। इसके बजाय यह कुछ ऐसी बन गई है, जिसे हमें लगातार साबित करना चाहिए।

सभी सामाजिक संपर्क एक तरह का प्रदर्शन है। विभिन्न सामाजिक भूमिकाओं के बीच स्वाभाविक रूप से बदलाव करने के बजाय अब हम अपने परिवार, सहकर्मियों, पुराने दोस्तों और आभासी दुनिया के अजनबियों के बीच एक अनुकूलित और एकल पहचान का प्रबंधन करते हैं। हालांकि विरोधाभासी समस्या यह है कि जितना अधिक हम वास्तविक होने का प्रयास करते हैं, उतना ही अधिक हम प्रदर्शन करते हैं। अपनी प्रामाणिकता साबित करने में यह भूल जाते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं।

निरंतर आत्म-निगरानी हमारे व्यवहार को बदल देती है। पूरी तरह से जुड़ने के बजाय हम गणना करते हैं कि हमें कैसे स्वीकारा जाएगा। वास्तविक अभिव्यक्ति पर पालिश की गई एक छवि को प्राथमिकता देते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हम स्वीकृति की कला में विशेषज्ञ बन रहे हैं, लेकिन संबंध बनाने की क्षमता में शौकिया।

लंबे समय तक एक निश्चित तरीके से करते हैं काम

समायोजन केवल छोटे-मोटे बदलाव होते हैं कि हम खुद को दूसरों के सामने कैसे पेश करते हैं। लेकिन समय के साथ वे कुछ बड़े रूप में बदल जाते हैं। खुद का एक ऐसा संस्करण जो पसंद से कम और जरूरत से ज्यादा लगता है। यानी ‘झूठा स्व।’ रोजमर्रा के सामाजिक मुखौटे ओढ़े हमारा एक ऐसा संस्करण, जो बाहरी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए विकसित होता है। जब लोगों को लगता है कि उनकी सच्ची भावनाओं या व्यवहार को स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो वे इसके बजाय खुद का एक सुरक्षित, अधिक सामाजिक रूप से स्वीकृत संस्करण बनाते हैं।

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हमारे दिमाग को विरोधाभास पसंद नहीं है और इसलिए अगर हम लंबे समय तक एक निश्चित तरीके से काम करते हैं, तो हम खुद को यह विश्वास दिलाना शुरू कर देते हैं कि मैं वास्तव में यही हूं। अगर हम अपने पूरे जीवन में ‘ओवरअचीवर’ यानी जरूरत से ज्यादा हासिल करने वाले रहे हैं, तो यह कल्पना करना कठिन है कि हम उस ठप्पे या पहचान के बिना क्या होंगे। अगर हम हमेशा ‘मजबूत व्यक्ति’ हैं, तो कमजोर होना अप्राकृतिक लग सकता है, भले ही हमें वास्तव में इसकी आवश्यकता हो। हम अनजाने में खुद को इस तरह ढाल लेते हैं कि काम और जीवन में सबसे ज्यादा स्वीकृति किसको मिलती है। जितना ज्यादा हम एक निश्चित पहचान का प्रदर्शन करते हैं, उतना ही ज्यादा हमें लगता है कि यही हमारी एकमात्र पहचान है। असली कीमत यहीं से चुकानी पड़ती है।

हम मनोरंजन करने वाले हैं, तो मौन को अपनाएं

समस्या यह नहीं है कि हम वास्तविक होना नहीं जानते, बल्कि यह है कि हमें हर समय खुद को संपादित करने, अभ्यास करने और अनुकूलित करने के लिए तैयार किया गया है। इसलिए मुक्त होना खुद को खोजने के बारे में नहीं है। यह उन आदतों को बाधित करने के बारे में है जो हमें प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती हैं। अपनी सामान्य भूमिका से बाहर निकलकर अपनी आत्म-अवधारणा को चुनौती देने की जरूरत है। अगर हम हमेशा जिम्मेदार रहे हैं तो जोखिम लेना चाहिए। अगर हम मनोरंजन करने वाले हैं, तो मौन को अपनाएं।

यह विद्रोह या उपेक्षा नहीं है, बस परिपूर्ण होने और होने की आवश्यकता को छोड़ने के बारे में है। आदतों से परे, झूठे स्व को तोड़ने का मतलब है निरंतर मान्यता की आवश्यकता को समाप्त करना। जो हम वास्तव में सोचते हैं, उसे कहें, न कि जो अपेक्षित है। मुद्दा सुधार नहीं है, बल्कि यह समझना है कि किसी चीज का आनंद लेने के लिए हमें सिर्फ ‘अच्छा’ होने की आवश्यकता नहीं है।

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सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि खुद को हर बार सही ठहराना बंद कर देना चाहिए। बगैर किसी स्पष्टीकरण के चुनाव करने और बगैर किसी बहाने के न कहने, बगैर किसी बचाव के अपना विचार बदलने की जरूरत है। जितना कम हम अनुमोदन की तलाश करेंगे, उतना ही हम प्रदर्शन के बगैर रह सकते हैं। प्रामाणिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हम प्राप्त करते हैं। यह वह है जो तब बचता है जब हम प्रयास करना बंद कर देते हैं। हम अपनी पहचान को अलग-थलग करके नहीं बनाते हैं। उन्हें एक ऐसी दुनिया में आकार देते हैं जो उपस्थिति से अधिक प्रदर्शन को पुरस्कृत करती है। जब पर्याप्त लोग खुद को वैसा ही दिखाने का फैसला करते हैं, जैसा वे हैं, तो संस्कृति बदल जाती है। लक्ष्य दूसरों के सामने अपनी प्रामाणिकता साबित करना नहीं है। यह एक बार फिर से खुद में इसे खोजना है। खुद से यह सवाल पूछना है कि जब कोई नहीं देख रहा है, तब मैं कौन हूं?