कभी-कभी जीवन एक ऐसे बिंदु पर आ खड़ा होता है जहां शब्द मौन हो जाते हैं, रास्ते धुंधले और मन किसी अनकहे उत्तर की तलाश में भटकता है। ऐसे ही क्षणों में भीतर कहीं कोई हल्की-सी रोशनी जलती है, कोई विचार, कोई बेचैनी, कोई चुप्पी, जो धीरे-धीरे हमें आगे बढ़ने के लिए कहती है। उसी मौन रोशनी का नाम है प्रेरणा। यह केवल कोई मनोवैज्ञानिक उत्तेजना नहीं है। यह दरअसल वैसी जीवन-चेतना है, जो व्यक्ति को शून्यता से सृजन की ओर, संशय से संकल्प की ओर और निष्क्रियता से नवाचार की ओर ले जाती है। यह कोई ऊंचा आदर्श नहीं, बल्कि भीतर से उठती एक चिंगारी है, जो तमाम अंधेरों के बावजूद जलती रहती है।
प्रश्न यह है कि यह प्रेरणा आती कहां से है? क्या वह बाहर से किसी प्रेरक वक्तव्य, किसी आदर्श चरित्र या किसी सामाजिक प्रशंसा के रूप में आती है? या वह भीतर जन्म लेती है- एक मौन ज्योति के रूप में, जो संकल्प और संयम के अंधकार में भी प्रकाशित रहती है? आज के समय में जब हर ओर प्रतिस्पर्धा, प्रदर्शन और मान्यता की होड़ मची है, तो प्रेरणा को भी बाहरी मानकों से जोड़ दिया गया है। आज प्रेरणा भी एक ‘दृश्य उत्पाद’ बन गई है। लोग केवल उतना ही करते हैं, जितना उन्हें दिखाई दे। उतना ही बोलते हैं, जितना उन्हें सराहा जाए। नतीजतन, प्रेरणा का स्रोत धीरे-धीरे बाह्य बनता जा रहा है।
फल की अपेक्षा किए बिना भी कर्मरत रहना ही है प्रेरणा
सोशल मीडिया पर समर्थकों, पसंदगी का चटका, पुरस्कार और प्रचार इसकी नई इकाइयां हैं। पर यह प्रेरणा नहीं, अपेक्षा है और अपेक्षा से उत्पन्न कर्म आमतौर पर अस्थायी होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।’ यह श्लोक उस गहन सिद्धांत को प्रकट करता है, जहां प्रेरणा किसी फल की प्राप्ति से नहीं, बल्कि खुद कर्म की पवित्रता से जन्म लेती है। यह प्रेरणा भीतर से उठती है, जहां कोई दर्शक नहीं, कोई तालियां नहीं, फिर भी व्यक्ति अपने कार्य में रत रहता है, क्योंकि वह जानता है कि यही उसका धर्म है। यही भीतर से उपजी प्रेरणा है, जो फल की अपेक्षा किए बिना भी कर्मरत रहती है।
भीतरी प्रेरणा आत्मबोध से जन्म लेती है, एक ऐसी स्थिति, जहां व्यक्ति न केवल यह जानता है कि वह क्या कर रहा है, बल्कि यह भी कि क्यों कर रहा है। यह प्रेरणा आत्मा की वह अग्नि है, जो बाहरी हवा से नहीं, भीतर की चिंगारी से जलती है। यह लौ वह शक्ति है, जो न देखे जाने पर भी जलती रहती है। इसी भीतर से उठती प्रेरणा ने बुद्ध को ज्ञान की ओर, विवेकानंद को समाजोत्थान की ओर और कल्पना चावला को अंतरिक्ष की ओर बढ़ने का संबल दिया। यही वह मौन शक्ति है, जो गांधी को सत्याग्रह की राह पर ले जाती है, अब्दुल कलाम को प्रयोगशालाओं में रातें गुजारने की शक्ति देती है और एक मां को थकावट की हर सीमा लांघने की हिम्मत देती है।
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भीतर से उपजी प्रेरणा निरंतर बहती है। वह किसी मान्यता की मोहताज नहीं होती। वह तब भी जीवित रहती है जब कोई देखने वाला नहीं होता, और तब भी गतिशील रहती है जब संसार मौन हो। भीतर से उपजी प्रेरणा हमें दूसरों की नकल नहीं करने देती, बल्कि हमारे अपने मौलिक स्वरूप को उजागर करती है। यह प्रेरणा हमें प्रतिस्पर्धा से परे, सृजन की ओर ले जाती है। इसलिए प्रेरणा का स्रोत तय करता है कि हमारा जीवन दिशा में बहेगा या दिशा-भ्रम में उलझेगा। हमने इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं, जहां व्यक्ति ने विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुत कार्य कर दिखाए, क्योंकि उनकी प्रेरणा बाह्य नहीं थी।
बाहरी प्रेरणा रास्ता दिखा सकती है, लेकिन भीतर से ही आती है चलने की ताकत
हालांकि बाहरी प्रेरणा की भूमिका को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। वह दिशा देती है, कभी-कभी गति भी। मगर यह प्रेरणा अक्सर क्षणिक होती है। जैसे ही वाहवाही का शोर थमता है, वह ऊर्जा भी धीमी पड़ने लगती है। बाहरी प्रेरणा तब तक प्रभावी है, जब तक उसका स्रोत हमारे सामने जीवित है। जैसे ही वह स्रोत छूटता है, चाहे वह पुरस्कार हो, प्रशंसा हो या लोकप्रियता- हमारा उत्साह भी मुरझाने लगता है। तब कर्म कोई रचनात्मक यात्रा नहीं रह जाता, बल्कि एक गणना बन जाता है- एक सौदेबाजी, जहां कर्म फल के लिए होती है, न कि कर्म के लिए। और जब संपूर्ण प्रेरणा बाहर से आने लगे, तो व्यक्ति एक तरह से ‘दृश्य उपलब्धियों’ का बंदी बन जाता है। वह जो करता है, वह इसलिए नहीं करता कि वह ठीक है, बल्कि इसलिए कि वह प्रशंसनीय दिखे। धीरे-धीरे वह स्वयं से कटने लगता है। उसकी दिशा समाज तय करता है, संकल्प नहीं।
बाहरी प्रेरणा रास्ता दिखा सकती है, लेकिन चलने की ताकत भीतर से ही आती है। फिर जब प्रेरणा भीतर से उठती है, तब व्यक्ति थमता नहीं, भले ही कोई देख रहा हो या नहीं। वह काम करता है, क्योंकि वही उसका धर्म है। वही उसका उत्तर है, अपने आपसे। आखिर प्रश्न यह नहीं कि प्रेरणा कहां से आती है- बाहर से या भीतर से, बल्कि यह है कि हम किस प्रेरणा को अपनी जीवन-दिशा बनने देते हैं। जो प्रेरणा केवल दिखावे से संचालित हो, तो वह कब तक टिकेगी? और जो प्रेरणा आत्मा की भाषा में बोले, वह कैसे चुप रह सकती है?