बच्चे जब कुछ समझने लगते हैं तो आमतौर पर घर-घर खेला करते हैं। बचपने में वे अपने बनाए घर यानी मिट्टी-रेत के घरौंदों के लिए आपस में लड़ भी पड़ते हैं। एक-दूसरे के घर तोड़ दिया करते हैं। सब लड़कपने में कभी बचपने में भी। मगर बड़े होते ही तब बहुत कुछ समझने लगते हैं, घर की अहमियत, उसके मतलब और घर के सदस्यों का महत्त्व भी जानने लगते हैं। साथ ही कई बार अपना हक भी बताने लगते हैं। पूरे घर को सिर पर उठा लेना शायद यहीं से शुरू हुआ हो। मगर इस बीच इस बात का अहसास भी घर में जीवन का माहौल बनाता रहता है, घर के सभी लोग खुशहाली और भविष्य की उम्मीद के साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी का निर्वाह करते हैं।
उधर शहरों में आने वाले अधिकतर लोग भले ही गांव के घरों को छोड़ कर आए हों या उन्हें बेच कर, पर असल में ये आए तो हैं अपने सपनों को साकार करने। तब ये परम आवश्यक भी दिखता है कि घर के बदले घर बन जाए। रहने से घर की अहमियत होती है। फिर भी यहां-वहां बहुतों को ऊंची इमारतों में बने फ्लैटों में रहते देखा जाता है, जहां प्राय: अपने कम दिखते हैं और बेगाने अधिक। आधे-अधूरे रिश्तों में दिखते लोग अपनी तरह की जिंदगी जीते हैं। देखा जाए तो इनकी एक अलग पहचान होती है, संस्कृति और समाज अलग। इनके सब काम अब आधुनिक जीवनशैली के बीच आमतौर पर आनलाइन होते हैं।
आधुनिकता के दौड़ में लोग घर पर नहीं करते शादियां या फिर पार्टियां
वाट्सऐप पर रात-दिन इस तरह रहने वाले लोग करें तो करें क्या और कैसे? वक्त की ‘कद्रदानी’ ने इन्हें एक तरह से वक्त का ही गुलाम बना लिया है। यहां बात उन घरों की चल रही है जहां ‘हम दो हमारे एक या दो’ हुआ करते हैं। इन लोगों का खाना-पीना ज्यादातर बाहर होटल-रेस्तरां में होता है। घरों पर इंतजार करने वाला कोई नहीं होता, न इन्हें किसी का इंतजार करना होता है। इस जीवनशैली में रहने वाले ज्यादातर लोगों को यह स्थिति सताती नहीं है, क्योंकि वे इसके अभ्यस्त हो चुके होते हैं।
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कभी-कभी समझ से परे लगता है कि स्त्रियां सारी जिंदगी गुजार देती हैं अपनी बस पति, बच्चे-पोतों में रम कर, पर वे अपने घर-मायके को कभी नहीं भूलतीं। जब तब या कभी किसी बात-बेबात पर या फिर गुस्से में अपनी मां का घर याद हो आता है। घर का बखान करने का अभिप्राय यहां यह है कि आज के दौड़ते-भागते समय में बहुत से लोगों ने घर को दरकिनार कर दिया है। जो काम पहले घरों से शुरू हुआ करते थे, अब बाहर से बाहर हो रहे हैं। बल्कि बाहर ही हो रहे हैं। कई जगहों पर व्यवस्थागत रूप से। शादियां या फिर पार्टियां घर को छोड़ कर भव्य समारोह भवनों में हुआ करती हैं। पैसे के आगे रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज यहां तक कि अपनी परंपराएं भी बौनी हो गई लगती हैं। घर को भुला दिया जा रहा है। घर की देहरी पर कभी बारात आती थी या लड़की की विदाई घर से होती थी। अब ये सब बिसरा दिया गया है। शुरू में बच्चों में घर-घर खेलने की बात केवल यह जताने के लिए की गई थी कि घर का अपना कितना महत्त्व और रुतबा होता है।
दिल को सुकून घर पर आता है।
महज चारदिवारी में बने स्थान को घर नहीं कह सकते। उसके लिए उसकी छत मतलब मान-मर्यादा होती है। समय-समय पर उसे उचित सम्मान देना पड़ता है। एक गरिमामय उपस्थिति के लिए उसे उसी के रंग में तैयार करना पड़ता है। यों भी, हम सारी दुनिया में खूब घूम लें, सैर-सपाटा कर आएं, पर जो सुकून, दिल को तसल्ली घर लौट कर आने से मिलती है वह कहीं और नहीं मिलती। घर आते ही जूते-चप्पल, कपड़े-लत्ते कहीं रख दें, कोई फर्क नहीं पड़ता। घर है अपना। पिछले दिनों एक विवाह का निमंत्रण मोबाइल पर आया, जिसे किसी कारणवश समय पर देखा नहीं जा सका।
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फोन पर जब बताया गया तब मोबाइल खोलना पड़ा। एक परिचित की बिटिया के विवाह का कार्ड था। होटल में विवाह का ब्योरा दर्ज था। शाम के तीन बजे से आठ बजे के बीच। इस बीच विवाह की सभी रस्मे भी होंगी। साथ-साथ नमकीन भी बांटे जाते रहेंगे। आखिरी में खाना। यानी सब काम होटल में। बेचारे घर-देहरी भुला गए। ये बातें अब घर-घर की कही जा सकती है। घर के बच्चे अब बाहर के लगने लगे हैं और बाहर के अपने-पराए में अंतर मिट गया है। पेट-पीठ प्रदर्शन के इस जमाने में किस-किस की बताएं, किस-किस की छिपाएं? समझ नहीं आता। और कहीं-कहीं तो पता भी नहीं रहता!
सपनों के खातिर घर को भुला रहे लोग
इस संदर्भ को बढ़ाते हुए इस बात पर गौर किया जा सकता है कि ‘समय की कमी’ के दौर में फेरों के वक्त को आज के नवयुवक कैसे बर्दाश्त करते हैं, यह समझने वाली बात है। जिन्होंने रीति-रिवाज और परंपराओं को बगल कर दिया हो वे क्या जानें और क्यों जानें? वैसे भी जिन्होंने मां-बाप को मजबूर कर दिया हो, गांव-जमीन को दरकिनार कर लिया हो मात्र अपने सपनों की खातिर, वे क्या जानेंगे घर के बारे में? बचपन से जो घर मन-मस्तिष्क में एक मंदिर की तरह जमा था, लगता है जमाने की इस हवा ने घर को बेघर कर दिया है।