मनुष्य की प्रथम इच्छा होती है कि दुनिया में सारे लोग उसका सम्मान करें। वह चाहता है कि सबसे ज्यादा उसके निकट संबंधी उसका सम्मान करें। पर ऐसा होता नहीं है। यह विरोधाभास ही है कि जहां से सम्मान की सबसे ज्यादा आशा होती है, कई बार वहीं सबसे ज्यादा अनादर मिलता है। ऐसा हमें लगता है, जबकि हकीकत यह होती है कि हमारे निकट संबंधी बाहरी दुनिया के प्रभाव से बिना प्रभावित हुए वास्तविक व्यवहार करते हैं। जैसे हम होते हैं, वैसा व्यवहार करते हैं। जहां पर सम्मान की इच्छा होती है, वहीं पर इच्छा के अनुरूप आदर न मिलना दुख देता है। अनादर करने वाले ज्यादातर लोग बेहद करीबी होते हैं।
आप यहां उदाहरण स्वरूप समझ सकते हैं। किसी घर में पति अपनी पत्नी से हमेशा सम्मान की इच्छा करता है, लेकिन पत्नी अपने पति की नहीं सुनती है और वह कई बार पति का अनादर कर देती है। सम्मान की अपेक्षा पाले पति का मन लहूलुहान हो जाता है। लेकिन यह भी देखना होगा कि पत्नी से सम्मान की आस पाले पति अपनी पत्नी के प्रति कितना सम्मान भाव रखते हैं।
पति-पत्नि होते हैं एक दूसरे की वास्तविक्ता से परिचित
हकीकत में पति-पत्नी का रिश्ता सम्मान से ज्यादा अपेक्षा वाला होता है। दोनों को एक दूसरे से बहुत सारी अपेक्षाएं होती हैं और अगर उनमें से कुछ नहीं पूरी होती है तो एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप सामान्य तौर पर होता ही रहता है। अब ऐसी स्थिति में सम्मान की संभावना कितनी रह जाती है! सम्मान की यह इच्छा आश्चर्यजनक रूप से मन से नहीं जाती है। पुरुष स्त्री से सम्मान की अपेक्षा करता है, स्त्री पुरुष से अपेक्षा करती है कि वह उसका सम्मान करे। मगर दोनों एक दूसरे के वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं। ऐसे में सम्मान की चाह या अपेक्षा निराश कर सकती है।
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इंसान सम्मान पाने के चक्कर में कई बार वह काम करता है जो वह वास्तव में होता ही नहीं है। ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ लोगों को वही वस्तु चाहिए, जिसका वह उम्मीदवार नहीं होता है। दुनिया भले नहीं जानती हो कि वह कैसा है, लेकिन उसकी आत्मा हमेशा यह जानती है कि वह कैसा इंसान है। वह अपने आप से नहीं छिपा सकता है। ऐसे भी लोग मिल जाएंगे जो झूठ के महल और चकाचौंध पर दुनिया से अपना सम्मान करवाना चाहते हैं। सच पूछा जाए तो इस जगत में हर मनुष्य का एक सत्य है।
मनुष्य का मन सत्य की कटुता नहीं कर पाता है सहन
झूठ लुभावना है और सत्य कष्टकारी है। किसी मूर्ति पर अगर उचित वस्त्रों का कोई आवरण न हो तो देखने वाले को कभी अच्छा नहीं लगेगा और मन वितृष्णा से भर जा सकता है। वहीं उस मूर्ति को कपड़े, गहने आदि से सुसज्जित कर दिया जाए, तो देखने वाले व्यक्ति को तुरंत मूर्ति से अनुराग होने लगेगा। वह उसके सौंदर्यबोध पर मोहित हो जा सकता है। उसे अच्छा लगने लगेगा। यह सहज लुभावना है, जबकि मूल रूप में जो मूर्ति है, वह सत्य है और सुसज्जित मूर्ति एक आवरण है। विचित्र है कि मन को आकृष्ट आवरण ही कर रहा है।
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यही हाल मनुष्य का भी है। मनुष्य का मन सत्य की कटुता सहन नहीं कर पाता है। कुछ सत्य के सामने आने के बाद वह वहां से भाग खड़ा होता है। वह उस जगह पर टिक नहीं पाता, जहां पर उसका सत्य स्वरूप उसको दिखाई देने लगता। हम अपनी नजर में सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन कई मौकों पर ऐसा होता है कि हम अपने आपको कठघरे में खड़ा पाते हैं। वैसी स्थिति में अगर खुद को ईमानदारी से देखा जाए तो अपने ऊपर कई तरह के दाग-धब्बे नजर आ सकते हैं। इसकी वजह यही है कि दुनिया से हम चाहे लाख छिपा लें, लेकिन खुद की सारी गलतियां कड़वे रूप में सामने आकर हमारा मन वितृष्णा से भर दे सकती हैं।
अपने मन का खुद को सम्मान करना है सबसे महत्त्वपूर्ण बात
दरअसल, दुनिया से तो हम जब भी मिलते हैं तो लोगों के साथ हम अपने चमक-दमक वाले आवरण को ओढ़े ही मिल पाते हैं। वास्तविकता उससे कोसों दूर होती है। हम कहां कभी किसी को बता पाते हैं कि हमारे अंदर कितनी बुराइयां हैं! इसीलिए बाहरी व्यक्ति हमारे उस ओढ़े हुए आवरण के अनुसार ही हमसे व्यवहार करता है। उस वक्त अगर कोई बाहरी व्यक्ति हमारा आदर कर रहा है तो वह हमारे झूठ का आदर कर रहा है। सच तो हम या हमारे करीबी जानते हैं। दुनिया आदर कर लेगी, लेकिन जो करीबी हमें रात-दिन देख रहा है, वह भला किस प्रकार हमारा आदर करेगा? हो सकता है भय या लोभ की वजह से कोई सम्मान करता दिख जाए, लेकिन तब भी सब मिथ्या ही होगा। यह खाली मन को आश्वासन देने वाली बात होगी।
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वास्तविकता नहीं होगी। बाहर वालों से आदर पाना आसान है। लेकिन निकट संबंधी के लिए तो हमें बदलाव से गुजरना पड़ेगा। भीतर-बाहर एक समान होना पड़ेगा। भीतर-बाहर एक समान होना इतना आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। एक बार अगर भीतर, बाहर समान हो जाते हैं तो हम खुद महसूस करेंगे कि हमारे अंदर बहुत सारे सकारात्मक बदलाव अपने आप ही होने आरंभ हो जाएंगे। अगर स्वयं से ही हम अपने को परिष्कृत कर लेते हैं, तो हमारे अंदर यह चाह खत्म हो जाएगी कि कोई हमारा सम्मान करे, क्योंकि सबसे पहले हमारा मन ही हमारा सम्मान करने लगेगा। अपने मन का खुद को सम्मान करना सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। बाकी दुनिया तो एक दर्पण है। जैसा हमारा व्यवहार रहेगा, वैसी उनकी प्रतिक्रिया रहेगी।