अनुभूति और सहानुभूति दोनों ही दूसरों की भावनाओं को समझने से जुड़ी मानवीय भावनाएं हैं, लेकिन इन दोनों में निहित भावनाओं को समझने में हम असमर्थ और असहाय महसूस करते हैं। अनुभूति का अर्थ है किसी अन्य व्यक्ति की भावनाओं को स्वयं अनुभव करना, जैसे कि हम खुद उसी स्थिति में हों। अगर हमारे किसी मित्र के किसी बहुत प्रिय स्वजन की मृत्यु हो जाती है और वह बहुत दुखी है, तो हम उसकी स्थिति को समझते हुए यह महसूस करते हैं कि अगर हम उसकी जगह होते तो हमें कैसा लगता?
यहां हम उसके भावनात्मक दर्द को महसूस कर रहे हैं। सहानुभूति में हम किसी व्यक्ति की पीड़ा या दुख को देखकर उसके प्रति दया या चिंता प्रकट करते हैं, बिना उसकी भावनाओं को खुद महसूस किए। मित्र के स्वजन की मृत्यु होने पर हम कहते हैं कि ‘मुझे दुख है… भगवान सब ठीक करेगा।’ यहां हम उसकी भावनाओं को समझते तो हैं, लेकिन उन्हें महसूस नहीं कर रहे।
भावनाओं को व्यक्त करने का एक माध्यम है सहानुभूति
आमतौर पर सहानुभूति एक मानवीय प्रतिक्रिया है जो भावनाओं को व्यक्त करने का एक माध्यम है। इसे हम एक मानवीय सद्गुण की संज्ञा दे सकते हैं। एक समय था जब लोग विभिन्न पीढ़ियों, समुदायों और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में समानता देखते थे। हमारे धर्म ग्रंथों और शास्त्रों में वर्णित हैं कि हमारे आत्म की सीमाएं वास्तव में कोई बाहरी शक्ति तय नहीं करती, यह सीमाएं अक्सर हम खुद ही तय करते हैं। हमारे डर, विश्वास, अनुभव, सामाजिक मर्यादाएं और आत्म-संकोच मिलकर हमारी ‘सीमाएं’ बनाते हैं। लेकिन अगर गहराई से देखें, तो आत्मा (या आत्म) की कोई सीमा नहीं होती।
वह चेतना, ऊर्जा और असीम संभावनाओं का स्रोत है। आत्म का स्वभाव तो अविनाशी, निडर और विस्तारित होना है। इसलिए सही मायनों में इसकी सीमाएं कोई तय नहीं करता। जब हम स्वयं को पहचान लेते हैं, तब सारी सीमाएं टूटने लगती हैं। कुछ शास्त्रों में उल्लेख है कि हमारी आत्मा की सीमाएं केवल हमारे अहंकार और पूर्वाग्रहों द्वारा तय की जाती हैं।
अंतरात्मा के बोझ को उतार फेंकती है गलती और अपराध को लेकर प्रायश्चित की प्रक्रिया
पूरा जीव-जगत दुख और हर्ष जैसे प्राकृतिक गुणों के प्रति संवेदनशील होता है और यही संवेदनशीलता प्रगाढ़ संबंधों और सार्थक संवाद का आधार बनती है, लेकिन वर्तमान समय में प्रतिदिन होने वाले अपराध, हत्याएं, रक्तपात और चलचित्रों में दिखाए जाने वाले हिंसा से भरे दृश्यों ने संवेदना और सहानुभूति जैसे मानवीय और सामाजिक गुणों को क्षीण किया है। इसका परिणाम है सहानुभूति की कमी। व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो चुका है। व्यक्तित्व और सामाजिक मनोविज्ञान समीक्षा का अध्ययन बताता है कि लोगों में दूसरे के दुख में दुखी होने की भावना तीव्रता से क्षीण हो रही है।
वर्तमान में हम सिर्फ स्वयं की चिंता करते हैं, स्वयं का अहंकार सर्वोपरि है और दुनिया, समाज की चिंताओं को हमने भुला दिया है। मानवीय व्यक्तित्व में ऐसे गुणों का समावेश व्यक्तिगत संबंधों पर प्रहार के समान है। वैश्विक स्तर पर व्यक्ति पर्यावरण, ऊंच-नीच, ‘डिजिटल अरेस्ट’ और साइबर अपराध जैसे मुद्दों का सामना कर रहा है, जिनका हल सहानुभूति जैसे मानवीय गुणों से संभव हो सकता है, लेकिन अगर समाज आत्म-केंद्रितता और उदासीनता से भर जाए, तो इन समस्याओं को हल करना मुश्किल हो जाएगा।
सहानुभूति और प्रेम की गहरी भावना को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
बाइबल में वर्णित है कि यीशु का सभी मनुष्यों के प्रति गहरा प्रेम और चिंता उनकी सांसारिक सेवा के दौरान व्यक्त हुई। उन्होंने कई चमत्कारी कार्यों में अपनी सहानुभूति का हृदय प्रकट किया। वे जीवन के सभी क्षेत्रों से पीड़ित और पीड़ित लोगों से वास्तव में जुड़े। बाइबल में ऐसे अनगिनत उदाहरण बताए गए हैं, जिनसे यीशु ने सहानुभूति का उपहार दिया। हमें सहानुभूति और प्रेम की गहरी भावना को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसका एक तरीका यह है कि हम स्वयं को दूसरों के दृष्टिकोण से दुनिया को देखने का अवसर दें। आज हमारी अवैयक्तिक दुनिया में सहानुभूति बहुत कम देखने को मिलती है। यह एक ऐसा गुण है जो जब प्रदर्शित होता है तो इसकी दुर्लभता के कारण ध्यान आकर्षित करता है। एक ऐसा गुण, जो इसे प्राप्त करने वालों के लिए एक उपहार है।
कहा जाता है कि सभी ब्रह्मांडों का उदय एक ध्वनि, एक नाद, एक लोगोस या एक ‘शब्द’ से हुआ है। यह ‘शब्द’ तब भी था, जब कुछ नहीं था और यह तब भी रहेगा, जब कुछ नहीं होगा। यानी एक निराकार सत्ता का ही अस्तित्व सदैव रहा है। जल, आकाश, अग्नि, वायु और पृथ्वी सभी उसी के अस्तित्व से हैं। इसी प्रकार, हम सभी उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं और इसलिए हमारी परस्पर जुड़ाव की भावना स्वाभाविक है। भावनाओं को समझना हमें हमारी वास्तविक आत्मा से जोड़ता है। जब हम सहानुभूति के साथ दूसरों की पीड़ा और आनंद को साझा करते हैं, तो हमारे भीतर भी सुख और संतोष की अनुभूति होती है। सांसारिक यात्रा का हमारा ध्येय मात्र अपनी जरूरतों को पूरा करना भर नहीं है, वह हर जीव जंतु करता है।
मनुष्यता में दूसरों के प्रति परोपकार और सहानुभूति की भावना सामाजिक संरचना का आधार बनती हैं। समाज में एक दूसरे पर निर्भरता के तथ्य को समझकर स्वयं के भीतर प्रेम, दया और करुणा जैसे मानवीय गुणों को विकसित करना ही नहीं है, बल्कि उन्हें संरक्षित कर, उनका संवर्धन करना और भावी पीढ़ियों को इसका स्थानांतरण करना भी महत्त्वपूर्ण दायित्व है। दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा की भावना दूसरों से जोड़ने के साथ ही आत्मा और चेतना से हमारा साक्षात्कार भी करवाती है।