आजकल एक प्रवृत्ति में तेजी से बढ़ोतरी देखी जा रही है कि सब जल्दी में होते हैं। हर व्यक्ति अपना काम जल्दी में कर लेना चाहता है। पर वह यह नहीं जानता कि जैसे अन्य बाजियां हैं, ठीक वैसे ही ये जल्दबाजी भी एक बाजी होती है, जिसे शतरंज में ‘चाल’ कहते हैं। सीधे सरल शब्दों में खेल-करतब कह कर इसको बिसरा दिया जाता है, पर जल्दबाजी कभी छोड़ी नहीं जाती, क्योंकि इसे आदत और फितरत में जोड़ लिया गया है, भले ही किसी को बुरा लगे। छोटे बच्चों से अक्सर सुना जाता है कि माफ कीजिएगा पिताजी, थोड़ी जल्दी में था, इसलिए गलती हो गई।

यानी किसी भी भूल-चूक के होने पर अक्सर उसका मूल कारण जल्दी को माना जाता है। अगर जल्दी न की गई होती तो यह अंजाम देखना न पड़ता। मसलन, अगर जल्दबाजी में बच्चे ने परीक्षा दी होती, प्रश्नों के उत्तर में जो लिख दिया, उसे एक बार पढ़ लिया होता तो परीक्षा में और अच्छे नंबर आ जाते। लगता है ये माफी मांगने की प्रवृत्ति हर वैसे विद्यार्थी की होती होगी। मगर क्या किया जाए। ये जल्दबाजी के नतीजे हैं। न जाने कौन-सी जल्दी होती है लोगों को… या फिर कौन-सी गाड़ी छूट रही होती है।

जल्दबाजी और जल्दी दोनों में है अंतर

यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जल्दबाजी और जल्दी, दोनों अलग-अलग हैं। दोनों के बारे में पहले समझना होगा। अगर हम सुबह जल्दी उठते हैं तो दिन भर के काम करने के समय में इजाफा होता है। इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि जैसे एक व्यक्ति भोर में पांच बजे और दूसरा व्यक्ति सात बजे उठता है। बाद में उठने वाला दो घंटे देर से उठने के कारण अपने निजी काम को जल्दबाजी में निपटाएगा तो कुछ काम अगले दिन के लिए टाल देता होगा या कुछ काम भुला दिए जाते होंगे। जिंदगी की इस भूलभुलैया को जल्दबाजी की परिणति कहेंगे। अगर ये कहें कि जल्दबाजी समाज की एक बड़ी बीमारी है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जगह-जगह होने वाली छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं आमतौर पर जल्दबाजी के कारण ही होती हैं। भले ही आरोप-प्रतिरोप थोप दिए जाते हों।

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असलियत आजकल सीसीटीवी कैमरे या फिर पुलिस या यातायात पुलिसकर्मी बताते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चेतावनी देते बोर्ड दिखते हैं कि ‘जल्दी से देर भली, कृपया जल्दबाजी न करें’। सड़क पर जितने भी हादसे होते हैं, उनमें लगभग सभी दिखावे की जल्दबाजी के कारण होते हैं। कभी कोई दूसरों को दिखाने के लिए तेज रफ्तार में गाड़ी चलाता है और हादसे का शिकार हो बैठता है, तो कभी दूसरों के इस तरह सड़क पर बेलगाम रफ्तार की वजह से कोई सही तरीके से वाहन चलाने वाला भी हादसे की चपेट में आ जाता है और जान गंवा बैठता है। यानी नाहक ही जल्दबाजी की रफ्तार की वजह से कोई मारा गया।

जल्दीबाजी में पूरा खेल हो जाता है गड़बड़

इससे इतर निजी आदतों की कसौटी पर देखें तो कुछ लोग इतने भुलक्कड़ होते जाते हैं कि कभी-कभी जल्दी में पहनना कुछ और होता है, पर पहन कुछ और लेते हैं। बेमेल पहनावे का पता तब चलता है जब कोई परिचित बताता है। तब सुधार में लाचार जल्दबाजी को कोसा जाता है। आजकल तो शादी-विवाह में फेरों के वक्त तक में विवाह के साक्षी या अतिथिगण जल्दबाजी का आग्रह कर बैठते हैं। इस तरह के संक्षिप्त करने के प्रयासों का हासिल आखिर क्या होगा? जल्दबाजी का अजब मंजर उस समय बड़ा ही चिंतनीय लगता है जब दुख की घड़ी में सगे-संबंधी एकत्रित होते हैं। घर में रोना-धोना चल रहा होता है। बाहर सगे-संबंधी रह-रह कर अपनी घड़ी या मोबाइलों में क्या कुछ टटोल रहे होते हैं, पता नहीं, पर सभी की आंखें शायद किसी खास व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा में होती हैं। सब जल्दीबाजी में दिखते तो हैं पर ये दिखाते नहीं। फिर भी जल्दबाजी छिपती नहीं। फुसफुसा कर रह जाती है।

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हालांकि जल्दबाजी के नुकसान बहुत हैं, पर कुछ फायदों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर ये न होता तो सुख-साधनों की खातिर और समय की कीमत पहचानते हुए नए-नए आविष्कार न हुए होते। सबकी वजह इसे कह सकते हैं। इसीलिए बैलगाड़ी से सवारी कर इंसान ने गाड़ी, सुपर-गाड़ी में सफर किया और अब बुलेट ट्रेन भी शुरू होने वाली है। लोगों ने ट्रेन-हवाई जहाज की रफ्तार में इजाफा कर समय की बचत करना भी सीख लिया। ये सब जल्दबाजी का प्रतिफल ही है। हर तरक्की में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जल्दबाजी का योगदान होता है। तब व्यक्ति विशेष क्यों कर अछूता रहे? जबकि पूरी दुनिया को इसने शिकंजे में रखा है।

आज के लोगों का नजरिया भिन्न

एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज के युवकों का नजरिया कुछ भिन्न है। इसके मानिंद ये अति शीघ्रता से अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहते हैं। शायद इसी मकसद में ये नई परंपराएं गढ़ रहे हैं और पुराने को अक्सर गलत कह दिया करते हैं। ये कुछ ही दिनों में महाज्ञानी, महाप्रवक्ता तक बन लेना चाहते हैं जल्दबाजी के ताव में। कह सकते हैं कि पहले लखपति बनना युवाओं का लक्ष्य हुआ करता था, आज ये करोड़पति से कम के सपने नहीं देखते। ऊंचा सोचना अच्छा है, पर धैर्य से जमीन पर रह कर। समय के हवाले में बंध कर, क्योंकि जल्दबाजी और उसकी अति कभी अच्छी नहीं होती है। जल्दबाजी के मारे लोग न जाने क्यों संत कबीर का यह दोहा भूल जाते हैं- ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय/ माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।’