हमारे इंसान होने का सबसे बड़ा लाभ और सूचक यह है कि हम न केवल अपने नाते-रिश्तेदारों, बल्कि अपने आसपास के लोगों से लेकर समूचे इंसानी समाज के प्रति संवेदनशील होते हैं। अगर किसी कसौटी पर हमारे भीतर किसी तबके के दुखों के प्रति उदासीनता की ग्रंथि पनपती है, तो यह हमारे भीतर एक तरह की संवेदनहीनता पैदा करता है, जिसका असर चौतरफा पड़ता है। हम पहले दूसरों के दुखों या परेशानी के प्रति तटस्थ होते हैं, फिर अपने संबंधियों से भी बचने लगते हैं कि कहीं उनके लिए कुछ करना न पड़ जाए।

ऐसे में अन्य जीवों के प्रति हमारे व्यवहार के बारे में अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ऐसे दृश्य आम दिखते हैं, जिनमें कोई व्यक्ति पालतू या अन्य पशुओं के प्रति नाहक ही बेरहम बरताव करता पाया जाता है। जबकि पशु या अन्य जीव शायद ही कभी हमें कोई परेशानी देते हैं। उल्टे हम ही पशुओं के साथ जीवन शुरू करके और आज भी उनका कई स्तर पर लाभ उठा कर उनके प्रति कृतघ्न बरताव करने से नहीं हिचकते।

संविधान में नागरिकों के हितों की रक्षा

हमारे देश के संविधान में नागरिकों के हित में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण पर्यावरण, जिसमें जीव-जंतुओं और जल, जंगल, जमीन आदि के संरक्षण की भी बात की गई है। कुछ वर्ष पहले केरल के कोल्लम जिले में कुछ शरारती तत्त्वों ने एक हथिनी को पटाखे से भरा अन्नानास खिला दिया था, जिसमें विस्फोट के बाद वह जख्मी हो गई थी। दिवाली के दिनों में कुत्ते की पूंछ में पटाखे बांधकर जलाते या फिर होली पर गधे पर रंग डालकर उस पर सवारी करते कुछ लोगों को देखा जा सकता है। पत्थर मार कर बेवजह कुत्तों की टांग तोड़ देने या डंडे से उनकी पिटाई कर देने जैसी घटनाएं आए दिन सामने आती हैं और अक्सर खबरों में पढ़ने में आती हैं।

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जो जानवर हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाते, कितनी ही बार बेवजह हमारी दुर्भावनाओं का शिकार होते रहते हैं। कुछ हफ्ते पहले जयपुर एक विवाह समारोह के लिए घोड़ी मंगवाई गई थी। सजी-संवरी घोड़ी बड़ी अच्छी लग रही थी। उस पर भावी दुल्हन को बिठाया गया। आगे-आगे ढोल बज रहा था। थोड़ी देर के बाद घोड़ी किसी वजह से एकदम से बिगड़ी और बेहोश-सी होकर गिर पड़ी। दुल्हन भी गिर पड़ी। सबने उसे उठाया। शुक्र था कि उसे कोई चोट नहीं आई। घोड़ी के गिरने के बाद कुछ लोगों का ध्यान उसके पैर में लगी छोटी-छोटी चोटों पर गया, जिनमें से खून दिख रहा था।

पशु बस रह गया पैसा कमाने का जरिया

यह बात समझने की है कि क्या सब पशुपालक अपने पशुओं के स्वभाव और उनके शरीर की तासीर को समझते हैं? ऐसे पशुपालकों के लिए उनके पशु बस पैसा कमाने या पालने का जरिया भर होते हैं। उनके पास पशु जब तक जिंदा रहते हैं, तब तक अपने जीवित रहने की कीमत चुकाते हैं। यह बहुत ही जरूरी है कि पशुपालक अपने पशुओं के स्वास्थ्य का तो ध्यान रखें ही, साथ ही समय-समय पर उनके स्वास्थ्य की जांच भी करवाएं। यह न केवल मानवीयता के लिहाज से एक जरूरी व्यवहार है, बल्कि इसलिए भी कि जिस पशु को वे अपने जीवनयापन का जरिया बना कर उससे बेलगाम काम लेते हैं, अगर वही बीमार हो जाए, उसका खयाल न रखा जाए, उसकी जान चली जाए तो उससे क्या और कैसे कमाया जा सकता है? हम कम से कम इस नाते तो अपने पाले हुए पशुओं के प्रति संवेदनशील तो हो ही सकते हैं।

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हमारे देश में पशुओं के हित में ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ 1960 में बनाया गया। इसके तहत मुकदमे का सामना कर रहे किसी व्यक्ति के मवेशियों को जब्त करने की अनुमति दी जा सकती है, जिसके बाद जानवरों को पशु चिकित्सालय या पशु आश्रय घर आदि में भेज दिया जाता है। अगर कोई पालक पशु क्रूरता का दोषी पाया जाता है तो वह व्यक्ति अपने पशु को खो भी सकता है। इसके अलावा उसके खिलाफ निर्धारित कानूनी कार्रवाई संभव है। भारतीय पशु कल्याण बोर्ड की स्थापना वर्ष 1962 में अधिनियम की धारा 4 के तहत की गई। इस अधिनियम में अनावश्यक क्रूरता और जानवरों का उत्पीड़न करने पर सजा का प्रावधान है।

जानवरों के साथ हुई क्रूरता और हत्या पर है चर्चा

यह अधिनियम जानवरों के साथ हुई क्रूरता और हत्या के विभिन्न रूपों की चर्चा करता है। अगर जानवरों के साथ किसी भी प्रकार की क्रूरता की घटना घटित होती है, तो यह अधिनियम जानवर को राहत प्रदान करता है। इसमें जानवरों के इस्तेमाल करने से संबंधित दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। इस अधिनियम के तहत प्रदर्शनी में हिस्सा लेने वाले जानवरों और उनके विरुद्ध किए जाने वाले अपराधों से संबंधित प्रावधानों को शामिल किया गया है। अधिनियम के तहत दायर मुकदमे की समयावधि तीन माह की होती है। इस अधिनियम का उद्देश्य ‘अनावश्यक सजा या जानवरों के उत्पीड़न की प्रवृत्ति’ को रोकना है।

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इन तमाम नियम कानूनों की हम हर दिन अवहेलना होते देखते हैं। इनके प्रति आमजन में एक प्रकार की उदासीनता दिखाई देती है। इससे संबंधित विभाग पशुओं के हित में बहुत कम या न के बराबर ही पशुपालकों को जागरूक करते हैं। पशु क्रूरता निवारण विभाग की भी और अधिक सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की दरकार है। विभाग और इस मुद्दे पर काम कर रही संस्थाओं के द्वारा पशुपालकों ही नहीं, बल्कि आमजन में भी उनके प्रति संवेदनशीलता पैदा करने की आवश्यकता है।