किसी भी व्यक्ति या विचारधारा विशेष के वास्तविक मूल्यांकन का अंतिम सत्य कोई एक ही होता है। मगर इसमें देशकाल और परिस्थिति के अनुरूप काफी हद तक परिवर्तन भी आ जाता है। कभी-कभी हमारे अपने पूर्वाग्रह भी इस पर कोई धारणा बना लेते हैं। ऐसी स्थिति के चलते न केवल महापुरुष, बल्कि अलग-अलग तरह की विचारधारा और देवत्व को प्राप्त विभूतियों के प्रति भी आम धारणा पर सवाल उठ जाते हैं। एक प्रकार से कोई किसी भी क्षेत्र में कितना भी महान क्यों न हो, उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अलग-अलग प्रकार के सवाल गहरा जाते हैं। इसी कारण वर्तमान दौर में लगभग हर कोई संदेह के दायरे में आता दिखाई देता है।

जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति, विचारधारा और आम जन धारणा के बारे में भी सिक्के को उलटने-पलटने की मनोवृत्ति के चलते अलग-अलग दृष्टिकोण से आकलन किया जाने लगा है। दरअसल, इसका कोई सर्वमान्य हल दूर तक भी नहीं दिखाई देता। वर्तमान दौर में आदमी की तर्कशक्ति तो प्रबल हुई ही है, लेकिन कुतर्क शक्ति भी इसी अनुपात में लगातार बढ़ती चली जा रही है।

अलग-अलग विचारधारा का ध्रुवीकरण आजकल तेजी से हो रहा

ऐसे दृश्य आम हैं, जिनमें आज के आधुनिक माने जाने वाले युवा भी आधारहीन या तर्कहीन और यहां तक कि हास्यास्पद दावों और दलीलों को अंतिम सत्य मान लेते हैं। यही नहीं उसके लिए कई बार बेलगाम हद तक आक्रामक होते दिख जाते हैं। यही कारण है कि अब हर तरह की अवधारणा पर लगातार सवाल उठाए जाने लगे हैं। इसके चलते अनेक अवसरों पर अनावश्यक विवाद उत्पन्न होने लगे हैं। इस समय बहुत तेजी के साथ अलग-अलग विचारधारा का ध्रुवीकरण होता दिखाई देता है।

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हालांकि आजकल आदमी का नजरिया काफी हद तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आत्मसात करने का हो गया दिखता है, जिसके कारण सोचने-समझने के पैमाने भी लगातार बदलते जा रहे हैं। मगर हम हर किसी बात को केवल वैज्ञानिक नजरिए से ही नहीं देख सकते। कई बार अंतस में स्थापित अवधारणा, जिसका कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक लंबा इतिहास रहा होता है, उससे इतर किसी अन्य अवधारणा को आत्मसात करना कतई संभव नहीं होता। आदमी का आचार-विचार और व्यवहार पारिवारिक संस्कारों के आधार पर निर्धारित होता है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करते हुए स्वस्थ समाज की संरचना करता है। यही सामाजिक समूह राष्ट्रीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान सुनिश्चित करता है।

इतिहास में लगभग हर एक तथ्य का है भरपूर लेखा-जोखा

वैसे यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि किसी व्यक्ति, विचारधारा या मान्यता विशेष को लेकर बीते दौर से चली आ रही अवधारणा सौ फीसद सही ही हो। बहुत स्वाभाविक है कि हम नायक को खलनायक और खलनायक को नायक मान बैठे हों। इतिहास में लगभग हर एक तथ्य का भरपूर लेखा-जोखा है, लेकिन इतिहास को देखने की दृष्टि में ही बड़ा परिवर्तन होने लगा है। तर्क के आधार पर किसी अवधारणा की सत्यता पर बल देना एक अलग बात है और कुतर्क के आधार पर दूध में नींबू निचोड़ने का उपक्रम एक अलग बात है। दोनों स्थिति में तटस्थ दृष्टिकोण ही किसी नतीजे पर पहुंचा सकता है।

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दुनिया में हर तरह के लोग हैं, जो अपने-अपने हिसाब से और कई बार अपनी मान्यताओं से संचालित होते हुए भी ऐतिहासिक तथ्यों पर विश्वास करते हैं या नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में जब एक पक्ष एक धारणा रखता है और दूसरा पक्ष दूसरी धारणा रखता है, तब अनावश्यक रूप से टकराव के आसार बनने लगते हैं। इन दिनों दौर ही ऐसा आ गया है कि किसी भी तथ्य पर विश्वास कर बैठने पर एक समय ऐसा भी आता है, जबकि उस विश्वास के खंडित होने के आसार बन जाते है। ऐसे में चाहे किसी व्यक्ति या विचारधारा विशेष के बारे में कोई अवधारणा कितनी भी तथ्यपरक हो, तो भी कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर सवाल उठा दिया जाता है। इसके चलते जनमानस भ्रमजाल के भंवर में उलझ कर रह जाता है। कई बार तो मृतप्राय संदर्भों को भी कुरेद कर मौजूदा समय को नफरत और दूरी से भर देने की कोशिश होती है।

किसी प्रामाणिक मुद्दे पर किया जा रहा किंतु-परंतु

अनेक अवसरों पर ऐसे हालात बनने पर किसी समय की सर्वमान्य शख्सियत की छवि भी विवादास्पद बनती दिखाई देती है। तकनीकी संचार क्रांति के दौर में मिथ्या प्रचार का सिलसिला जोरों पर है। हर किसी प्रामाणिक मुद्दे पर भी तमाम तरह के किंतु-परंतु उछाल कर आम आदमी के अंतर्मन में संदेह के बीज अंकुरित किए जा सकते हैं। इसका नतीजा यह होने लगा है कि किसी एक समय के महापुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन भी वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर किया जाने लगा है। इसके चलते देशकाल और परिस्थिति का बिना खयाल रखे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा है।

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यह स्थिति एक-एक करके अनेक विभूतियों के गलत तरीके से चरित्र-चित्रण का कारण भी बन रही है। सचमुच जब आदमी के अंतर्मन में गहरे रूप से समाहित कोई अवधारणा खंडित होने लगती है, तब दृष्टि ही ऐसी हो जाती है कि अटल सत्य पर भी सहसा विश्वास नहीं होता। इस विभ्रम की स्थिति से बचने के लिए हर किसी मामले में सतही दृष्टिकोण ही वह एकमात्र उपाय है, जिसके कारण काफी हद तक मन का सुकून हासिल किया जा सकता है। अन्यथा आज के दौर में कल के सही को गलत और गलत को सही ठहराए जाने के चलते इस बात पर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि भविष्य में आज के सही को गलत और गलत को सही नहीं ठहराया जाएगा।