गुलामी शब्द सुनते ही आमतौर पर मन इतिहास में चला जाता है। राजा, महाराजाओं से लेकर विदेशी आक्रमणकारियों और साम्राज्यवादियों के किस्से याद आने लगते हैं। संभ्रांत उच्च वर्ग के कुछ प्रसंग स्मृति में उभरने लगते हैं। इस बात को लेकर एक आम व्यक्ति आश्वस्त रहता है कि यह शब्द उसके बीच का नहीं है। इससे उसका कोई सीधा संबंध नहीं है। जबकि किसी को गुलाम बनाना और गुलाम बन जाना, यह मनुष्य के भीतर मौजूद एक अधिनायकवादी विकार या प्रवृत्ति हमेशा से रही है, जिसे हर कोई कभी भी अपनी सुविधा, संतुष्टि और स्वार्थ के लिए अपने भीतर चाहे अनचाहे पोषित करता है।

इसका संबंध हमारी बाहरी व्यवस्था से कहीं अधिक हमारे मन की अवस्था से है। यह जरूरी नहीं कि हम शक्तिशाली होने पर ही किसी पर हावी हो सकते हैं। इसका उलट भी हो सकता है। कमजोर व्यक्ति अपने भीतर की कुंठा को भी किसी अन्य ज्यादा कमजोर पर अधिक उग्र और कठोर होकर निकाल सकता है। वहीं कई बार हम बलशाली और साहसी व्यक्ति को भी झुकते या सहनशील होते हुए देख सकते हैं।

एक प्रकार का मानसिक विकार है तानाशाही

दरअसल, तानाशाही अथवा प्रभुत्व बनाना एक प्रकार का मानसिक विकार है। वैचारिक गुलामी से तो हम लगभग हर दिन जूझते रहते हैं, जब लगने लगता है कि हमारे विचारों पर सब सहमति व्यक्त करें। यह सोच ही अस्वस्थ दिशा की ओर व्यक्ति और समाज को धकेल देती है। दूसरों को उनके विचारों को उनकी आस्था के साथ स्वीकार न कर पाना, अपने विचार किसी और पर थोपना, यह भी वर्चस्ववाद की ही श्रेणी में कहा जा सकता है। जहां किसी एक ही विचार का जोर हो और किसी नई सोच पर विचार विमर्श की गुंजाइश ही न बचे, तो समझ लेना चाहिए कि अब प्रगति के सभी दरवाजे बंद हो चुके हैं और हमारे पंख काट दिए गए हैं। संवाद टूटने का भी अंदेशा हो जाता है। ऐसी स्थिति में जीवन प्रतिगामी होने लगता है। समाज या तो कदमताल करने लगता है या अतीत के आवरण में अपनी समझ को कुंद करने लगता है।

सही दिशा में किए गए संघर्ष का नतीजा अनुकूल होना जरूरी नहीं, औसत होने का सबसे बड़ा आनंद है संतोष का अनुभव

क्या कभी हमने महसूस किया कि यह मानसिक विकार हम सभी के भीतर प्रवेश करता चला गया है? गौर करें, तो पाएंगे कि हर दिन हम किसी वर्चस्व के विचार के प्रभाव में कई बार गलत के सामने हम झुक रहे होते हैं। यह सचमुच दुखद स्थिति है। इसके लिए स्वयं पर नियंत्रण जरूरी है। रोजमर्रा के दिनों पर ही गौर किया जाए, तो देखते हैं कि हमारे सहायक, कर्मचारी, जिन्हें हम उनके काम के बदले में पारिश्रमिक देते हैं, उनके साथ भी हमारे संबंध हमारे मन की जटिलता और इसी प्रवृत्ति के चलते विवादित और कटु होते रहते हैं।

काम के दौरान, काम की गुणवत्ता पर विचार-विमर्श करना, सुधार के लिए सलाह देना, काम से संतुष्ट न होने पर उन्हें आगाह करने के बजाय उनके साथ अपमानजनक और कठोर व्यवहार कर उनको छोटा महसूस कराने जैसा व्यवहार क्या उनमें अनावश्यक गुलामी के अहसास का कारक नहीं बन जाता? यह विचारणीय सवाल है। सच यह है कि कर्मचारी और नियोक्ता की स्थिति बराबर की होती है, जिसमें दोनों ही अपनी जरूरतों के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे संबंधों में संतुलन तो होना ही चाहिए।

जीवन के उत्साह-उमंग सबको समाप्त कर देती है गुलामी

ऐसा नहीं है कि केवल आर्थिक लेन-देन में ही दमनकारी मानसिकता का प्रवेश होता दिखता हो। स्वार्थ से परे आत्मीय पारिवारिक रिश्तों में तो अवांछित बेड़ियों ने कई अलग-अलग रूपों में खुद को छिपा रखा है। सुंदर, आत्मीय शब्दों के माध्यम से उसने अपने आप को बुराई की जगह विशिष्ट गुण की तरह प्रस्तुत किया है। परिवार के कुछ सदस्य हमेशा अपनी जरूरतों और इच्छाओं को दूसरे की खुशी के लिए पीछे रख रहे होते हैं, तो कभी अपनेपन और स्नेह के वेश में अनावश्यक अधिकार किसी के हिस्से का उजाला ही निगल रहा होता है। त्याग और समर्पण किसी एक के हिस्से में आना परिवार की शर्त नहीं होती, परिवार की खूबसूरती तो यह है जिसमें हर सुख-दुख और काम धूप-छांव की तरह सबको थोड़ा-थोड़ा सुख पहुंचाते हैं।

वासना और कामना तक ही सीमित कर दिया गया है प्रेम, होनी चाहिए बलिदान की भावना

हर प्राणी, व्यक्ति, जीव-जंतुओं तक पर गुलामी का गहरा असर पड़ता है, जो लंबे समय तक बना रहता है। गुलामी किसी भी जीव को अपने मूल स्वरूप से बहुत दूर कर देती है। जीवन को लेकर उत्साह-उमंग सब समाप्त कर देती है। गुलामी से उपजा अवसाद पीढ़ियों तक सफर करता है। पिंजरा खुला हुआ है, सामने विस्तृत आसमान है, पर पंछी अब उड़ना ही नहीं चाहता। चिड़ियाघर के हाथी के पैर में जंजीरें नहीं हैं, अगर हो भी तो वह इतना शक्तिशाली है कि वह हर बेड़ी को तोड़ सकता है, लेकिन पर अब वह कुशलता से प्रशिक्षित किया गया है। जीवन भर की गुलामी के लिए वह तैयार हो चुका है। यह निराशाजनक स्थिति है।

संभावनाओं की तलाश

हमारे संकुचित विचार हमारे लिए सबसे बड़ी रुकावट है, जिनसे मुक्त होते ही हमारे सामने विशाल आकाश है, जिसमें हम खुल कर अपने सपनों के पर फैला कर ऊंची उड़ान भर सकते हैं। संभावनाओं को तलाश सकते हैं। यह सच है कि एक दूसरे की मदद से वर्तमान और भविष्य का सही उपभोग कर सकते हैं।

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आपसी संबंधों में जब हम गरिमा, सम्मान, विनम्रता के बीज बोते हैं, तो खुशियों की फसल लहलहाने लगती है। इस सुख को प्राप्त करने से कोई हमें रोक नहीं सकता। दैनिक जीवन में हमें सावधान रहना चाहिए कि वर्चस्व या अधिनायकवादी किसी प्रवृत्ति के कीटाणु हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकें। अपनी ऊर्जा को सही दिशा देते हुए उचित आचरण से स्वस्थ और प्रगतिशील समाज बनाने में हम तभी समर्थ हो पाएंगे, जब आपसी समझ और सहयोग से हम एक ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिससे बराबरी और आजादी की बुनियाद पर हमारा समाज खड़ा हो सकेगा।