ऐसा कहा जाता है कि मतलबीपन या स्वार्थपूर्ण विचार से अपने मानसिक संतोष को न तो कभी समझा जा सकता है और न ही इसका अनुभव किया जा सकता है। मानसिक सुकून के लिए त्याग और उदारता का मार्ग ही श्रेष्ठ बताया गया है। अगर मन में करुणा होती है और हमारी आदत या संस्कार में भी उदारता सहज ही शामिल हो जाती है तो उसके बाद बिताया जाने वाला हर पल परिपक्व होता जाता है।
आज का समय तकनीक और सुविधा से लैस युग है। हममें से किसी को यह सच नहीं पता कि कल हमारे साथ क्या होगा। मगर सामाजिक होने के उदार भाव में शायद ऐसी असुरक्षा हावी नहीं रहती है। उसके मन में कहीं न कहीं समाहित है इसका समुचित उत्तर। उत्तर यह है कि जो भी होगा, जैसा भी होगा, उसमें शायद स्वीकार का भाव होगा। सामाजिक संबंध का ताना-बाना हर तरह की परिस्थिति में मानसिक मजबूती देगा। इसलिए उदारमना लोग अपनी सकारात्मक विचारधारा के माध्यम से आगे होने वाली घटनाओं को एक सकारात्मक परिभाषा तक दे लेते हैं। इस संदर्भ में एक सुंदर प्रसंग है।
आनंद और बुद्ध के इस संवाद में छिपे हैं जीवन के सूत्र
गौतम बुद्ध अपने शिष्य आनंद की मानसिक परिपक्वता को परखने के लिए पूछते हैं कि मान लो, अगर कोई अपशब्द कहने लगे तो क्या विचलित हो जाओगे? आनंद उत्तर देते हैं कि नहीं तथागत, कदापि नहीं। मैं तो कुदरत का आभार व्यक्त करूंगा कि वह मुझे शारीरिक कष्ट नहीं दे रहा है। इस उत्तर से बुद्ध को बहुत सुकून मिला और उन्होंने आनंद की इस परिपक्व सोच की सराहना की। आनंद और बुद्ध के इस संवाद में जीवन के सूत्र छिपे हैं। माफ कर देने की उदारता, सबको मनुष्य समझकर उसकी गलती पर उत्तेजित न होने की विशालता और समाज में सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदि।
महंगी गाड़ी, नामी कंपनी के कपड़े और आलीशान मकान बन रहा सफलता का अर्थ
अगर हम बचपन से अपने जीवन को देखें तो अपना जीवन भी औरों से कहीं ऐसी ही सहज उदारता की तलाश में ही लगा होता है। सहज ममता हमको माता-पिता से मिल जाए, सहज सुख हमें हमारे दोस्त और सहपाठी अनवरत देते रहें, सहज ज्ञान जो हमारे शिक्षक हमें बगैर पक्षपात के प्रदान करते रहें, सहज धन आगमन जो कि मेहनत करते मिल जाए। अगर हम यह सब प्राप्त करने के साथ देने को भी तैयार रहते हैं, तो जीवन सतरंगी हो जाता है। बादल और वृक्ष से हमको सीखना चाहिए कि केवल जल लेकर वृक्ष अपनी सारी संपदा को वापस लौटा देता है। वृक्ष के फल और फूल ही नहीं, पत्ते, छाल, डाल, जड़ तक उपयोग में ले ली जाती है। उसकी घनी छांव के तो क्या ही कहने! कितने राहगीर, कितने पशु और पंछी उसकी निश्छल छांव से अपना जीवन सुख पाते रहते हैं।
उपभोग और विलासिता कुछ समय के लिए
महान दार्शनिक अरस्तू कहते हैं कि एक वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति एक व्यक्ति को जरूरत से अधिक सुख दे देती है, लेकिन वह जरा-सा किसी और को दिया जाए तो उसकी जान बच जाती है। एक बार एक सुल्तान के स्नान लिए रेगिस्तान में ऊंटों के जरिए हजारों लीटर पानी ले जाया जा रहा था। रेगिस्तान में प्यास से भटक रहे यात्रियों के समूह को सुल्तान के सेवक ने दया करके कुछ जल दे दिया तो सूखे कंठ से कराहते यात्री अपना जीवन बचा पाए। वे सुल्तान के लिए शुक्रिया के गीत गाने लगे, लेकिन सुल्तान को इसमें कोई महान बात नजर नहीं आई। आखिरकार उसके पास बहुत सारा अतिरिक्त जल था। जरा-सा दे भी दिया तो कौन-सी खास बात हुई। लेकिन यह तरसते हुए प्यासे लोग जानते थे एक-एक बूंद जल का असली महत्त्व। हमारे जीवन में चीजों का बहुत सारा उपभोग और विलासिता कुछ समय के लिए ही होते हैं, क्योंकि एक सीमा तक ही हम स्वाद, शौक या आनंद या रौनक में खुश रह पाते हैं। इसके बाद उसका इतना महत्त्व नहीं रह जाता। मगर अकिंचन और निर्धन के लिए उसमें से जरा-सा भी पर्याप्त होता है। हमको यह बात याद रखनी चाहिए।
सुखी और स्वार्थपूर्ण जीवन की लालसा कभी खत्म नहीं होती। इसलिए यही हमारी अनैतिक इच्छा को भी पैदा करती है। नतीजतन, भारी अफसोस और कुंठा हमारे जीवन का अंग बन जाते हैं। जबकि विचार करने पर लगता है कि जो भी अपने पास अतिरिक्त है, उसका दान करना, उदारता का व्यवहार रखना, मिल-बांटकर खाना और जमाखोरी न करने का आविर्भाव इसी मतलबीपन को समेटने के लिए हुआ है। अपने पास बस काम चलाने लायक रखना, बाकी किसी जरूरतमंद को दे देना। यह विचार हमारे मन को ऊर्जा यानी खुशी और संतोष से जीवन जीने की शक्ति देता है। उदारता और समभाव हमारे विवेक को बढ़ाने में सहायता करता है।
हमको सब कुछ छोड़ना ही होता है
अपने को समाज का विस्तार मानना और समाज में खुद को देखना ही हमारी सकारात्मक चेतना का एक सही विस्तार है। इस समाज में हमारा जन्म हुआ है और इसी वातावरण में हमें समा जाना है। यही सृष्टि का भी अर्थ है। इसलिए हम अपने पास कुछ भी रोक कर नहीं रख सकते। अपनी युवावस्था, चमकीली त्वचा, अपने काले घने बाल, चमचमाते दांतों सहित कुछ भी नहीं। हमको सब कुछ छोड़ना ही होता है। अक्लमंदी यही हुई कि जब तक हों, तब तक समाज के लिए उपयोगी बन जाएं। मान लिया जाए कि खुले मन से कुछ भी देना या बांटना हमें आए या न आए, यह प्रकृति ज्यादा देर तक हमें कुछ भी रखने नहीं देती है। कुदरत की इस अलौकिक प्रयोगशाला में हमने देखा है कि इसमें सभी कुछ बनता भी है तो शून्य से है और वह समा भी शून्य में ही जाता है। हम एक संकल्प कर सकते हैं कि अपने पास अगर देने को कुछ न हो तो अपनी शुभकामना, सद्भावना ही अपने समाज को देते रहेंगे।