समय बदलता है, और उसके साथ बदलती हैं कुछ चीजों की परिभाषाएं। मगर कुछ परिभाषाएं इतनी गहराई से हमारी चेतना में जड़ें जमा चुकी होती हैं कि वे समय के साथ अपना रूप तो बदल लेती हैं, पर उनका मूल भाव वही रहता है। सफलता भी ऐसी ही एक परिभाषा है। मनुष्य की चेतना में ‘सफलता’ की परिभाषा सदा से एक प्रश्न रही है। यह परिभाषा केवल समय की गति से नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं, दार्शनिक प्रवृत्तियों और राजनीतिक व्यवस्थाओं के उत्थान-पतन से भी प्रभावित होती रही है। कभी इसे विद्या और तपस्या से जोड़ा गया, कभी परोपकार और समाजसेवा से, तो कभी संघर्ष और आत्मनिर्भरता से। पर आज सफलता का एक नया पैमाना हमारे सामने खड़ा है- धन और प्रसिद्धि।

आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, वहां ‘सफलता’ की एकमात्र स्वीकृत परिभाषा यही मानी जाती है कि कौन कितना पैसा कमा रहा है, कौन कितना चर्चित है और कौन कितने ‘समर्थक’ बटोर रहा है। क्या यह बदलाव स्वाभाविक है? क्या इसे सामाजिक प्रगति की संज्ञा दी जा सकती है? सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह नया पैमाना हमें संतोष, सुख और सार्थकता की ओर ले जा रहा है या फिर महज एक अंतहीन दौड़ में धकेल रहा है? यह बदलाव आकस्मिक नहीं है। किसी भी सभ्यता की विकास यात्रा में मूल्य-परिवर्तन अनिवार्य होते हैं, पर यह मूल्य-परिवर्तन किसी दार्शनिक आत्मसंघर्ष से निकले हों, यह जरूरी नहीं। कई बार वे केवल बाहरी प्रभावों, वैश्विक प्रवृत्तियों और बाजार की शक्तियों द्वारा भी गढ़े जाते हैं। सवाल यह नहीं कि सफलता का पैमाना बदल रहा है, बल्कि यह है कि यह बदलाव हमें कहां ले जा रहा है?

पूंजीवाद और उपभोक्तावाद ने सफलता की व्याख्या को बाजार की भाषा में ढाल दिया

दरअसल, सफलता की परिभाषा को तात्कालिक मानकों से नहीं, बल्कि उसके असर से देखा जाना चाहिए। सफलता अगर केवल भौतिक उपलब्धियों पर निर्भर हो, तो वह आखिर मनुष्य को पीस डालती है। मगर आज का समाज इस ‘पीसे जाने’ या ‘पिसने’ को ही सफलता का पर्याय बना चुका है। उपभोक्तावाद और स्पर्धा ने सफलता की अवधारणा को ‘ब्रांड’ से जोड़ दिया है। पूंजीवाद और उपभोक्तावाद ने सफलता की व्याख्या को बाजार की भाषा में ढाल दिया है। अगर किसी के पास महंगी गाड़ी, नामी कंपनी के कपड़े और आलीशान मकान है, तो समाज उसे ‘सफल’ मान लेगा। सोशल मीडिया पर खूब प्रसारित होना भी सफलता की नई परिभाषा बन चुका है। मगर यह परिभाषा अधूरी है। उपभोक्तावाद और स्पर्धा ने सफलता की अवधारणा को ‘ब्रांड’ से जोड़ दिया है। अब किसी व्यक्ति की सफलता इस आधार पर तय की जाती है कि वह कितना ‘विक्रेय’ है।

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सवाल है कि क्या केवल पैसा और प्रसिद्धि स्थायी संतोष और सार्थकता ला सकती है? अगर ऐसा होता, तो आज की पीढ़ी इतनी असंतुष्ट क्यों रहती? क्यों सबसे ‘सफल’ दिखने वाले लोग भी अवसाद से जूझ रहे हैं? क्यों जिनके पास सब कुछ है, वे भी खुद को अधूरा महसूस करते हैं? यहां बुद्ध की स्मृति आवश्यक हो जाती है। सिद्धार्थ के पास राजसी वैभव था, पर क्या वे ‘सफल’ थे? नहीं। उनका ‘सफलता-बोध’ तब जागा, जब उन्होंने पाया कि धन और यश न तो जीवन की नश्वरता को समाप्त कर सकते हैं, न ही मनुष्य के भीतर स्थायी संतोष की स्थापना कर सकते हैं। यह प्रश्न केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। अगर सफलता को केवल आर्थिक और सामाजिक स्वीकृति से जोड़ दिया जाए, तो यह स्पर्धा को इतना तीव्र बना देती है कि मनुष्य भीतर से खोखला हो जाता है। यह प्रक्रिया केवल व्यक्ति को ही नहीं, समाज को भी नुकसान पहुंचाती है।

सोशल मीडिया पर ‘सुर्खियों में’ होना ही बन चुकी है सफलता

समाज के इस बदलाव ने हमारी चेतना को भी प्रभावित किया है। पहले लोग ज्ञान, सेवा और मूल्यों को सफलता का आधार मानते थे। आज सफलता का मतलब ‘प्रतिस्पर्धा में आगे निकलना’ हो गया है- चाहे यह दौड़ कैसी भी हो। एक समय था जब ‘विद्या ददाति विनयम्’ कहकर ज्ञान को सफलता की कुंजी माना जाता था, और आज सोशल मीडिया पर ‘सुर्खियों में’ होना ही सफलता बन चुका है। इस नए पैमाने के कारण दो चीजें हो रही हैं- पहली, लोग अपने मूल्यों से समझौता करने को तैयार हो गए हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ विजेता बनना है। दूसरी, सफलता का यह नया प्रारूप अस्थिर और असंतोषजनक है, क्योंकि इसमें बाहरी मान्यता पर ही पूरा दारोमदार है।

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दरअसल, धन और प्रसिद्धि साधन हैं, सफलता का अंतिम लक्ष्य नहीं। समस्या तब होती है, जब इन्हें ही सफलता का एकमात्र पैमाना मान लिया जाता है। डाक्टर, शिक्षक, वैज्ञानिक, कलाकार- इनकी सफलता का मापदंड क्या वही हो सकता है जो एक कारोबारी या फिल्म अभिनेता का होता है? एक महान शिक्षक या वैज्ञानिक प्रसिद्ध न भी हो, फिर भी उसका योगदान अनमोल होता है। सवाल यह नहीं कि हम समाज की परिभाषा के अनुसार सफल हैं या नहीं, बल्कि यह कि हम खुद को सफल मानते हैं या नहीं। अगर सफलता हमें भीतर से संतोष और समाज के लिए उपयोगी बनने की प्रेरणा नहीं देती, तो वह अधूरी है। आज जब सफलता का मतलब केवल पैसा और प्रसिद्धि रह गया है, तो हमें यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम सही दिशा में हैं। यह दौर हमें आकर्षक सपने बेचता है, लेकिन उनके पीछे की सच्चाई अक्सर खो जाती है।

सफलता का पैमाना केवल बाहरी उपलब्धियां नहीं हो सकतीं। सच्ची सफलता वह है जो व्यक्ति को भीतर से संतुष्ट करे और समाज में भी कोई सार्थक योगदान दे। पैसा और प्रसिद्धि आ सकते हैं, जा सकते हैं- मगर एक सार्थक जीवन हमेशा प्रेरणा देता रहेगा। अगली बार अगर कोई पूछे कि ‘सफलता क्या है’ तो जवाब यह हो सकता है- ‘जो केवल मुझे नहीं, बल्कि औरों को भी कुछ दे सके, वही सफलता है।’