पेड़ की डाल पर बैठी चिड़ियों की चहचहाहट मन मोह लेती है। भंवरों की गुंजन से प्रभावित होकर सूरदास ने ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ ही लिख डाला था, तो बच्चों की तोतली बोली हमें अनायास हंसने पर मजबूर कर देती है। सच तो यह है कि वाणी प्राणियों को प्रकृति से मिला एक अनुपम उपहार है, जिसकी वजह से हम अपनी बातों और मनोभावों को दूसरों तक सहज ही प्रेषित कर पाते हैं। मगर इस वाणी के भी अपने दायरे हैं। बच्चों के मुख से निकली अटपटी बातें किसी का हृदय विच्छिन्न नहीं करतीं, लेकिन बड़ों के मुंह से निकली अनर्गल बातें युद्ध के हालात खड़े कर देती हैं। दरअसल, बोलना तो सभी जानते हैं, लेकिन कब और कितना बोलना है, यह समझने में समय लगता है। सच यह है कि नरम ढंग से भी इस दुनिया को बदलने में अपनी भूमिका निभाई जा सकती है।

संवाद की ताकत की अपनी अहमियत है। क्रोध या चिल्लाहट नहीं, बल्कि विनम्र संवाद ही स्थायी परिवर्तन लाता है। संवाद वह डोर है, जो दिलों को जोड़ती है। जब दो लोग खुलकर अपने विचार, भावनाएं, दुख-सुख और अपेक्षाएं साझा करते हैं, तो रिश्तों में पारदर्शिता आती है। यही पारदर्शिता विश्वास को जन्म देती है और जो रिश्ते की जड़ को मजबूत करता है।

धीरे-धीरे रिश्तों की गर्माहट पड़ने लगती है ठंडी

यह संवाद केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं होता। एक मुस्कान, एक स्पर्श, एक सहमति में हिलाया गया सिर भी बहुत कुछ कह जाता है, जिससे रिश्तों की गर्माहट बनी रहती है। मगर जब हम मौन ओढ़ लेते हैं गुस्से, अहं या डर में, तब धीरे-धीरे रिश्तों की गर्माहट ठंडी पड़ने लगती है। वे मुरझाने लगते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे पौधों को नम, सींची हुई माटी न मिले तो वे मुरझा जाते हैं, क्योंकि उन्हें भी स्नेह से सींची हुई जमीन चाहिए होती है। फिर हम सब तो इंसान हैं, जिसका वजूद ही रिश्तों से है। कहते हैं कि जहां संवाद नहीं, वहां संदेह पनपता है। यह पंक्ति पूरी तरह सच लगती है, क्योंकि बातों से मन की गांठें खुलती हैं। मतभेद दूर होते हैं और लोग एक-दूसरे के नजदीक आते हैं।

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रिश्ते, चाहे पति-पत्नी के हों, माता-पिता और बच्चों के हों, मित्रता के या सहकर्मियों के, इन सभी की बुनियाद संवाद पर ही टिकी होती है। संवाद यानी केवल बोलना नहीं, बल्कि सुनना, समझना और दिल से महसूस करना। जब संवाद का पुल टूटता है, तब रिश्तों में गलतफहमियों, संदेहों और दूरी की दरारें उभरने लगती हैं। एक वृद्ध दंपति के बीच लंबे समय से बातचीत बंद थी। कारण क्या था, दोनों को अब याद भी नहीं था, लेकिन दोनों ने अपने-अपने मौन को ‘मान’ का नाम दे रखा था। एक दिन वृद्ध महिला बीमार पड़ी। अस्पताल ले जाया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

मृत्यु शैया पर वह अपनी कांपती आवाज में बस इतना ही कह पाई कि ‘काश! मैंने सिर्फ एक बार तुमसे बात की होती!’ वृद्ध पुरुष की आंखों से बहते आंसू इस बात के गवाह थे कि वे भी यही चाहते थे, लेकिन संवाद के अभाव ने दोनों को सिर्फ मौन में कैद कर रखा था। फिर जब मौन की दीवार टूटी भी तो तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ऐसे दृश्य शायद हम सभी अपने जीवन में और आसपास देखते हैं, जहां एक जगह रहते हुए और संवाद करने की सभी संभावनाओं के बाद भी हम मौन के उस पार नहीं जा पाते। ‘मैं क्यों बोलूं पहले’, ‘गलती उसकी है’, जैसे विचार।

संवादहीनता को दूर करने के लिए सबसे पहला कदम है धैर्य से सुनना

रही-सही कसर आजकल मोबाइल पूरा कर दे रहा है, जब लोग मोबाइल स्क्रीन पर ज्यादा और एक-दूसरे की आंखों में कम झांकते हैं। सोशल मीडिया ने व्यक्तिगत संवाद को एक तरह से ग्रहण लगा दिया है। सब कुछ ‘व्यक्तिगत’ होता जा रहा है, जहां किसी को भी, किसी के इस तथाकथित व्यक्तिगत जीवन में झांकने का अधिकार नहीं है। यहां तक कि मां-बाप को भी नहीं, भले ही बाजार उनकी सारी निजता छीन ले। इसके कारण संवाद लगभग शून्य होते जा रहे हैं। बिना संवाद के दो लोग एक ही घर में रहते हुए भी अजनबी हो जाते हैं। यहां समझने की जरूरत है कि बिना बात किए मन की बात को नहीं समझा जा सकता। इससे व्यक्ति अपनी कल्पनाओं में उलझता है और रिश्ते बिगड़ते हैं। संवादहीनता से व्यक्ति भीतर ही भीतर घुटता जाता है, जो मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है।

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इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि रिश्तों के बीच इस मौन और संवादहीनता को पनपने ही नहीं दिया जाए। रिश्तों में मौन अक्सर गलतफहमियों, अनकहे दर्द या अहंकार के कारण पनपता है। जब संवाद रुकता है, तो रिश्तों में दूरी बढ़ती जाती है। संवादहीनता को दूर करने के लिए सबसे पहला कदम है धैर्य से सुनना। न केवल शब्दों को, बल्कि भावनाओं को भी। दूसरे की बात को समझने का प्रयास करने की जरूरत है। प्रतिक्रिया देने से पहले महसूस करना चाहिए।

इस संदर्भ में प्राचीन यूनानी दार्शनिक एपिक्टेटस का कहना है कि ‘ईश्वर ने हमें दो कान और एक मुंह दिए हैं, ताकि हम बोलने से ज्यादा सुन सकें।’ यह कथन रिश्तों में संवाद की मूल भावना को दर्शाता है, जिसमें संवाद का एक बड़ा हिस्सा बोलने से ज्यादा सुनने में निहित बताया गया है। जब हम धैर्यपूर्वक सुनते हैं, तो दूसरे व्यक्ति को समझने का मार्ग खुलता है और मौन धीरे-धीरे पिघलने लगता है। रिश्तों को बचाए रखने के लिए यह जरूरी है कि प्रकृति से मिले उपहार ‘वाणी’ की महत्ता और मर्यादा दोनों बनी रहे।