मिखाइल बाख्तिन अपने ‘संवादवाद’ के सिद्धांत के जरिए यह रेखांकित करते हैं कि सभी कृतियां दूसरी कृतियों के साथ खुला संवाद करती हैं। इस तरह के साहित्य चिंतन की शुरुआत रोलां बार्थ के निबंध ‘द डेथ आॅफ द आॅथर’ (1967) से हुई, जिसे इस दिशा में भूमिका बनाने वाला कार्य कहा जा सकता है। जूलिया क्रिस्तेवा की अंतर्पाठीयता की धारणाएं उनकी 1980 में प्रकाशित किताब ‘द डिजायर इन लैंग्वेज’ की मार्फत सामने आई थी, जो ‘खुले पाठ’ की मुख्य विशेषता है। अंबर्तो ईको की किताब ‘द रोल आॅफ द रीडर’ (1984) में पहली दफा इस पद्धति को ‘खुले पाठ’ के रूप में देखने की कोशिश की गई। बाख्तिन की ‘डायलॉगिज्म’ (1990) में इस पद्धति का ‘संवादवाद’ के रूप में अंतर्विकास होता है।

इससे तीन वर्ष पूर्व जिली डिल्यूज और फेलिक्स ग्वेतारी की किताब ‘कैपिटल एंड स्किडोफ्रेनिया’ का तीसरा खंड ‘द थाउजैंड प्लैटोज’ का अनुवाद अंग्रेजी में आ गया था। यह दर्शन की किताब है पर इसका प्रभाव साहित्यिक आलोचना पर भी पड़ा। अब तक जूलिया क्रिस्तेवा भाषा के एकदम अलग स्त्रीवादी रूप की बात को लेकर सामने आ जाती हैं। स्त्रैण भाषा पाठ के रूप में कृतियों के अनेक स्तरीय होने की संभावना सामने आती है। डिल्यूज और ग्वेतारी ‘अवयव विहीन देह’ के सिद्धांत से बहुपाठीयता को एक ‘समेकित पाठ’ की ओर ले जाते हैं।