देश के अलग-अलग हिस्सों में आजकल अपराध की कई घटनाएं सामने आने लगी हैं, कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर हमारा समाज कहां पहुंच गया है और क्या संभलने की कोई राह नहीं है! क्या हमने कभी सोचा है कि समाज में इतनी नैतिक और भावनात्मक गिरावट कैसे आ गई है? किसी हरे-भरे पेड़ जैसे लहलहाते रिश्ते और इंसानियत सूखे ठूंठ जैसे बेजान और कठोर कैसे होते जा रहे हैं? दरअसल, यह समानुभूति यानी ‘एंपैथी’ की कमी के कारण हो रहा है।
हम सब कुछ अपने ही नजरिए से देखने की बुरी आदत पाल बैठे हैं। दूसरे के स्थान पर खुद को रखकर सोचने की आदत गुम-सी होने लगी है और सारी समस्या की जड़ हमारा यही आत्मकेंद्रित रवैया है। खुद को आनंद मिलना चाहिए, दुनिया की फिक्र नहीं। आजादी के सुख के लिए मां को धकियाने वाले बेटे, छुट्टियों के आनंद के लिए सहपाठी की हत्या करने वाले बच्चे, संपत्ति का सुख पाने के लिए पिता को मारने वाले बेटे और क्षणिक उन्माद में किसी नन्ही बच्ची के खिलाफ यौन हिंसा करने वाले लोगों के भीतर आत्मकेंद्रित होने की कुंठा भरी रहती है।
आजकल समानुभूति यानी ‘एंपैथी’ शब्द शिक्षाविदों, मनोवैज्ञानिकों, राजनीतिकों, समाजशास्त्रियों और व्यवहार विशेषज्ञों के बीच चर्चा का विषय बन गया है। अक्सर लोग इसका गलत अर्थ लगा लेते हैं और इसे सहानुभूति समझ लेते हैं। दरअसल, समानुभूति में दयालुता या दया जैसा भाव नहीं है, बल्कि दूसरों के अहसास या भावनाओं को समझना समानुभूति है। किसी काम या व्यवहार से सामने वाले को कैसा महसूस होगा या फिर कोई हमारे साथ भी वैसा ही व्यवहार करे, तो हमें कैसा महसूस होगा, यह अनुभूति जरूरी है। रोमन क्रेजनेरिक ने अपनी किताब ‘एंपैथी: अ हैंडबुक फार रिवोल्यूशन’ में इस बात पर जोर दिया है कि लोगों में समानुभूति की भावना होनी कितनी जरूरी है।
परोपकार सहानुभूति और समानुभूति के भाव आसानी से किए जा सकते जागृत
बीते एक दशक में तंत्रिका तंत्र के वैज्ञानिकों ने पाया है कि भले ही इंसान एक स्वार्थी और आत्मकेंद्रित जीव है, लेकिन उसमें परोपकार सहानुभूति और समानुभूति के भाव आसानी से जागृत किए जा सकते हैं। उनके मुताबिक, अट्ठानबे फीसद लोगों के दिमाग में ‘एंपैथी सर्किट’ होता है। बस इसे सही माहौल से जागृत करने की जरूरत है। इसी तरह जीव विज्ञानी फ्रांस डी वाल ने कहा है कि हम सब सामाजिक जीव हैं, जो एक दूसरे की परवाह करने के लिए बने हुए हैं। हमारे पूर्वज भी ऐसा करते आए हैं। शोध में पाया गया है कि हमारे भीतर शुरू-शुरू में समानुभूति की मजबूत भावनाएं रहती हैं। इन्हें आगे चलकर हम कितना कायम रख पाते हैं, यह हमारे माहौल और हम पर निर्भर करता है। इसे हमें दूसरों के भीतर गौर करना चाहिए। इससे हमारे बच्चे भी वही सीखेंगे और यह सिलसिला आगे बढ़ता जाएगा।
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समानुभूति अर्जित करने के बहुत तरीके हैं। ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक समारोहों में शामिल होना और अपना सामाजिक दायरा बढ़ाना चाहिए। इससे हमारे मन में लोगों के प्रति प्रेम और स्नेह तो उत्पन्न होगा ही, हम ज्यादा से ज्यादा लोगों की भावनाएं समझ पाने में भी सक्षम होंगे। मनोवैज्ञानिक मार्शल रोसेनबर्ग का मानना है कि ‘किसी भी व्यक्ति की मनोदशा उसकी मानसिक स्थिति और जरूरत को समझने के लिए उसकी बातें सुननी चाहिए। चाहे वह किसी का अधीनस्थ कर्मचारी हो, मित्र हो जीवनसाथी हो, संतान हो या फिर अभिभावक हो।’ पति-पत्नी में ज्यादातर झगड़े इसी बात पर होते हैं कि दोनों को लगता है कि वे उनकी परवाह नहीं करते और उनके मन की बात समझने की कोशिश नहीं करते। इसीलिए अलगाव और तलाक के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं।
खुद में समानुभूति विकसित हमारे लिए प्राथमिक होना चाहिए
अगर हम सचमुच अपने संबंधों की परवाह करते हैं और जीवनसाथी या फिर किसी भी व्यक्ति के साथ रिश्तों को सरस रखना चाहते हैं तो खुद में समानुभूति का गुण विकसित करना हमारे लिए प्राथमिक होना चाहिए। कभी मौका निकाल कर लोगों से उनके दिल की बात सुनने की जरूरत है। जब हम ऐसा करेंगे, तो सामने वाला व्यक्ति भी हमें महत्त्व देगा। एक पुरानी कहावत है, ‘दूसरे की बुराई करने से पहले उसके जूते पहन कर एक मील पैदल चलो।’ हमारे यहां भी एक उक्ति है, ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’ लोककथाओं में दर्ज है कि कैसे दूसरों का दुख दर्द जानने के लिए या उनके मन की भावनाओं को समझने के लिए राजा-महाराजा या बड़े लोग वेश बदलकर गरीबों और दुखियारे लोगों के बीच रहते थे। इसके पीछे समानुभूति उत्पन्न करना ही उद्देश्य था।
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समानुभूति रखने वाले लोगों में एक खास गुण होता है। वे अजनबी लोगों से भी बातचीत करने और उनके बारे में जानकारी लेने में दिलचस्पी रखते हैं। बस या ट्रेन में अपने बगल में बैठे व्यक्ति से भी वे आसानी से घुलमिल जाते हैं। मगर ऐसा करते हुए एक मूल बात का ध्यान रखना चाहिए कि उत्सुक बनें, उनकी जांच करने वाला नहीं। किताबें पढ़ने और फिल्में देखने की आदत भी कल्पनाशक्ति को बढ़ाती हैं और दूसरे की अनुभूति का सही-सही अंदाजा लगाना सिखाती है।
हर हफ्ते कम से कम एक अजनबी से बात करने की आदत जरूर डालना चाहिए। हम बिना कहे लोगों की बात और उनकी भावनाएं समझ सकते हैं। ऐसा करने से हम एक अच्छे कारोबारी भी बन सकते हैं। साथ ही अपने इर्द-गिर्द लोगों को आसानी से प्रेरित भी कर सकते हैं, अपनी बात ज्यादा आसानी से बता सकते हैं। हमारे शब्दों और व्यवहार का लोगों पर क्या असर पड़ रहा है, यह आसानी से जान सकते हैं। इसके अलावा, कोई हमारे प्रति दुराग्रह या शत्रुभाव रखता है, तो उससे सावधान रहा जा सकता है।
भले ही इंसान एक स्वार्थी और आत्मकेंद्रित जीव है, लेकिन उसमें परोपकार सहानुभूति और समानुभूति के भाव आसानी से जागृत किए जा सकते हैं। उनके मुताबिक, अट्ठानबे फीसद लोगों के दिमाग में ‘एंपैथी सर्किट’ होता है। बस इसे सही माहौल से जागृत करने की जरूरत है। पढ़ें शिखर चंद जैन का विचार-