अविनाश जोशी

मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है। उसके भीतर प्रेम, करुणा, ईर्ष्या, डर, आशा और गुस्सा जैसी अनेक भावनाएं जन्म लेती रहती हैं। इनमें से गुस्सा एक ऐसी भावना है, जिसे लगभग हर व्यक्ति ने कभी न कभी अनुभव किया है। गुस्सा केवल एक नकारात्मक भावना नहीं, बल्कि एक संकेतक है जो हमें बताता है कि हमारे भीतर कुछ असंतोष है, हमारी अपेक्षाएं टूटी हैं या हमें किसी बात से पीड़ा पहुंची है। लेकिन जब यही गुस्सा हमें अपने संबंधों और सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करने लगता है, तब यह समस्या बन जाता है। आज के तनावपूर्ण जीवन, प्रतिस्पर्धा और संचार की कमी के युग में यह प्रश्न प्रासंगिक हो गया है- आखिर हम सबको गुस्सा क्यों आता है? इसके पीछे कई कारण होते हैं। यह केवल एक क्षणिक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि मन, मस्तिष्क और सामाजिक परिवेश की एक जटिल प्रक्रिया का परिणाम है।

गुस्से का एक प्रमुख कारण है अपेक्षा और यथार्थ के बीच का टकराव। जब हम किसी से कोई उम्मीद करते हैं, जैसे कि परिवार में सहयोग, कार्यस्थल पर मान्यता या सामाजिक स्तर पर सम्मान, और वह हमें नहीं मिलता, तो हम भीतर से टूटते हैं। इसका पहला परिणाम होता है गÞुस्सा, जो बाहर निकलकर शब्दों या व्यवहार के रूप में सामने आता है। इसके अलावा, असुरक्षा और भय भी बड़े कारण हो सकते हैं। जब हम खुद को किसी खतरे में पाते हैं, चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या सामाजिक, तब मस्तिष्क एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया देता है, जिसे ‘फाइट या फ्लाइट’, यानी लड़ो या भागो कहते हैं। इस प्रतिक्रिया में अगर हम लड़ने की मुद्रा में जाते हैं, तो वह गुस्से के रूप में प्रकट होता है।

कभी-कभी थकान, तनाव और असंतुलित जीवनशैली भी गुस्से की तरफ धकेलती है

कुछ कारण हमारे अतीत में भी छिपे रहते हैं। बचपन के अनुभव, उपेक्षा, अपमान या कोई गहरी पीड़ा हमारे अवचेतन में ऐसे जम जाती है कि कभी-कभी वर्तमान की कोई हल्की-सी बात उस पुराने घाव को कुरेद देती है। हमें लगता है कि हम वर्तमान से नाराज हैं, लेकिन वास्तव में हमारे भीतर वह गहरी वेदना बोल रही होती है। उदाहरण के लिए, अगर किसी को बचपन में बार-बार यह कहा गया हो कि वह किसी काम का नहीं है, और अब कार्यस्थल पर उसका काम बार-बार अस्वीकार हो रहा है, तो वह गुस्सा पुराने अनुभव से जुड़कर तीव्र हो जाएगा। कभी-कभी थकान, तनाव और असंतुलित जीवनशैली भी हमें गुस्से की तरफ धकेलती है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम पर्याप्त नींद, सही आहार नहीं लेते और अपने मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। नतीजतन, हमारी सहनशक्ति कम हो जाती है। हम जरा-जरा-सी बात पर चिड़चिड़े हो जाते हैं और छोटी-छोटी असुविधाएं भी गुस्से को जन्म देती हैं।

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इसके अतिरिक्त, संवाद की कमी भी गुस्से का एक बड़ा कारण है। जब हम अपनी भावनाओं को सही तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते और सामने वाला व्यक्ति भी हमारी बात को समझने की कोशिश नहीं करता, तो वह अवरोध गुस्से में बदल जाता है। बात को दबाना, स्पष्ट न कहना या दूसरों से संवाद की अपेक्षा रखना, लेकिन स्वयं मौन रहना- ये सब स्थितियां गुस्से को जन्म देती हैं। समाज और संस्कृति भी हमारे गुस्से के स्वरूप को प्रभावित करती हैं। बचपन से हमें सिखाया जाता है कि ‘लड़कों को गुस्सा करना चाहिए, तभी वे मजबूत बनते हैं’, और ‘लड़कियों को गुस्सा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह उनका सौंदर्य बिगाड़ता है।’ ऐसे विचार हमारे भीतर गुस्से को लेकर भ्रम और दमन की स्थिति पैदा करते हैं। परिणाम यह होता है कि या तो गुस्सा भीतर ही भीतर सड़ता है और मानसिक पीड़ा बनता है, या वह किसी दिन अचानक विस्फोट बनकर सब कुछ तोड़ देता है।

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प्रश्न उठता है कि क्या गुस्से से बचा जा सकता है? क्या हम गुस्से को समझकर उसे सकारात्मक दिशा दे सकते हैं? दरअसल, गुस्से को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहला कदम है उसकी पहचान। हर बार जब हमें गुस्सा आए, तो कुछ पल ठहर कर खुद से पूछना चाहिए कि ‘क्या मुझे वाकई इस बात पर इतना गुस्सा आना चाहिए! क्या यह प्रतिक्रिया उचित है या यह किसी पुराने अनुभव से जुड़ी है?’ भावनाओं को व्यक्त करना सीखना बहुत जरूरी है। गुस्से को दबाना या फूट पड़ना, दोनों ही गलत हैं। सही तरीका यह है कि हम शांत स्वर में अपनी बात रखें। मसलन, ‘तुमने ऐसा क्यों किया?’ के बजाय ‘जब ऐसा होता है, तो मुझे बुरा लगता है,’ कहना कहीं अधिक सकारात्मक और संवादी होता है।

हमारी स्वस्थ जीवनशैली, योग, ध्यान, नियमित व्यायाम, संतुलित आहार और भरपूर नींद, मन को स्थिर और शांत रखने में सहायक होते हैं। एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है- माफ करना सीखना। क्षमा केवल दूसरों के लिए नहीं, स्वयं के लिए भी आवश्यक है। जब हम दूसरों की गलतियों को पकड़कर बैठे रहते हैं, तो गुस्सा हमारे भीतर बारूद की तरह जमा होता रहता है। माफ करना उस बारूद को बाहर फेंकने जैसा है। दरअसल, गुस्सा हमें बताता है कि कुछ गड़बड़ है, भीतर या बाहर। यह चेतावनी हमें सचेत करने के लिए है, न कि दूसरों को चोट पहुंचाने के लिए। अगर हम इसको समझ लें और उसे शांतिपूर्ण संवाद और आत्मविश्लेषण की दिशा में मोड़ दें, तो गÞुस्सा एक समस्या नहीं, बल्कि समाधान का रास्ता बन सकता है।

आज गुस्से को समझना और उसे सकारात्मक ऊर्जा में बदलना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। स्कूलों, दफ्तरों और परिवारों में अगर गुस्से को पहचानने, व्यक्त करने और नियंत्रित करने की शिक्षा दी जाए, तो एक अधिक समझदार, सहिष्णु और शांत समाज का निर्माण संभव है। गुस्सा कोई शत्रु नहीं, बल्कि एक संकेत है कि हमें खुद को समझने की जरूरत है, अपने भीतर के असंतुलन को संतुलित करने की आवश्यकता है। अगर हम गुस्से को समझ लें, तो शायद हम खुद को भी बेहतर समझ सकें।