इस समय स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां चल रही हैं। एक रिवायत की तरह बच्चों के लिए अब कहीं बाहर घूमने का अवसर है। ज्यादातर बच्चे अपनी नानी के घर जाएंगे। यहीं एक सवाल मन में आता है कि आमतौर पर ऐसा क्यों होता है कि लंबी छुट्टियों में बच्चों को नानी का घर पसंद आता है। आखिर यह चुनाव दादी का घर भी क्यों नहीं होता है? बुआ, बहन या कोई कोई अन्य रिश्तेदार का भी घर हो सकता है! मगर बच्चों को तो मानो किसी ने कान में फूंक दिया गया है कि उन्हें नानी के ही घर जाना है। हालांकि ऐसे भी तमाम बच्चे हैं, जो छुट्टियों में अन्य विकल्प आजमाते हैं, जिसमें वे कोई अन्य कौशल सीखने पर जोर देते हैं। किसी को छुट्टियों में नानी के घर खेलने-कूदने में आनंद आता है, तो कुछ बच्चे रचनात्मक कार्य सीखने में वक्त बिताते हैं। छुट्टियों में नानी के घर गए बच्चे मामा, मौसी के बच्चों के साथ खेलते हैं, तो उन्हें अपनी दुनिया करीब लगने लगती है। यह शहरों-महानगरों में एक तरह से एकाकी होते समाज में अपना स्थान खोजने की कोशिश होती है और मिल जाने पर खुश होकर झूमने की स्थिति होती है।

यों भी गर्मी का मौसम आमतौर पर छुट्टियों के साथ-साथ शादी-ब्याह का भी होता रहा है। इस समय कई बार ज्यादातर लड़कियां अपने मायके पहुंचती हैं। सबके पहुंचने का वक्त आमतौर पर एक ही या आसपास होता है। वह भी दूरी के कारण। यह समझना मुश्किल है कि इस तरह की जुटान बच्चों की नानी के घर या फिर बेटियों के मायके के अलावा कोई और ठौर क्यों नहीं होता है। यह हो सकता है कि कोई महिला अपने मायके से चूंकि संवेदना के साथ जुड़ी होती है और वहां से सीधा जुड़ाव भी इस रूप में बना रहता है कि नाना-नानी अपनी बेटी से मिलने जब उसके ससुराल पहुंचते हैं, तो बच्चों के साथ भी उनका जुड़ाव थोड़ा घना हो जाता है। इसलिए बच्चे भी मौका मिलते ही नाना-नानी के घर जाना चाहते हैं। मगर फिर यह लगता है कि इस तरह का संवेदनात्मक जुड़ाव अन्य रिश्तेदारों के साथ क्यों नहीं हो पाता है। जबकि सभी आपस में एक-दूसरे के साथ आमतौर पर समान स्तर पर जुड़े रहते हैं। जरूरत के समय या अन्य मौकों पर एक-दूसरे के साथ अपना सुख-दुख बांटते रहते हैं।

बहरहाल, पहले जब सब बच्चे नानी के घर जुटते थे, तो जरूरत के हिसाब से खाना बनाने के लिए बड़े-बड़े बर्तन निकाले जाते थे, जो किसी कमरे में जमा करके रखे गए होते थे। तब एल्यूमीनियम को लेकर आज की तरह आग्रह नहीं था कि इसमें बना खाना खाने से कोई गड़बड़ी होती है। इसलिए तब एल्यूमीनियम के बड़े भगौने, तसले, लोहे की बड़ी वाली कड़ाही निकाली जाती थी। घर के बड़े आंगन में खाना बनाते समय अक्सर जमघट लग जाता था। सारी महिलाएं वहीं इकठ्ठा रहतीं। घर की बहुएं गांव के हाल-चाल से लड़कियों को अवगत करातीं। कहां क्या हुआ, कहां आजकल क्या चल रहा है आदि। इससे बुआ और मौसियों को पूरे गांव की जानकारी मिल जाती, जिसमें यह भी शामिल होता कि उन्हें किससे, कैसे, कौन-सी बात करनी है या बात नहीं करनी है। उसका एक खाका उनके दिमाग में खिंच जाता था। इसी आधार पर संबंध निभाए, बरते जाते थे।

दूसरी ओर, बच्चों के पलटन की धमाचौकड़ी चलती रहती थी। कई बार उनकी एक टोली बन जाती थी और साथ मिल कर खेलने वाले बच्चों की संख्या पहुंच जाती थी बीस तक। ऐसे में इनका एक अघोषित संगठन बन जाता। शहरों-महानगरों में स्मार्टफोन में सिमटे और कैद होते बच्चों की दुनिया के बरक्स यह जीवन की तरह होता था, जहां बच्चे जमीन पर अपने पांव टिकाते थे और जीवन का सुख प्राप्त करते थे। दुनिया को समझते थे। दोपहर में घर के लोग खा-पीकर आराम करने जाते और बच्चे अपनी टोली के साथ बगीचों और पोखरों का रुख कर लेते। बगीचों में दोपहर का समय बीतना स्वाभाविक था। गर्मी में ठंडक और खेलने की खुली जगह। खेल में कभी कबड्डी, तो कभी गिल्ली-डंडा या फिर अंटी-चौक, गेंदा भड़भड़ आदि। आज की तरह मनोरंजन मोबाइल के एक छोटे पर्दे पर सिमटा क्रिकेट या फुटबाल नहीं था। पूरी दोपहरी बगीचे में खेलते, कब शाम हो जाती, पता नहीं चलता। कभी-कभी बच्चे पोखरों में भी नहाते। न जाने कितनों ने इन्हीं दिनों में तैरने का ढंग सीखा। शहर में तो तरणताल मुश्किल से मिलते हैं और मिलते भी हैं तो कुछ देर के लिए फीस चुका कर।

खेल-कूद कर बच्चे शाम को जब घर पहुंचते तब चना या मकई का ताजा दाना भुना मिलता। आज भी जिन बच्चों की नानी के घर गांव-देहात में हैं, वहां बिना रासायनिक खाद वाले अनाज और सब्जियों से बना भोजन मिल जाता है, जिसका स्वाद बच्चों की जीभ पर ठहर जाता है। वजह यह कि इस तरह के अनाज और सब्जियों की खुशबू और स्वाद शहरी खाने के स्वाद में जमीन-आसमान का फर्क है। समूचा माहौल बच्चों को खुद को महत्त्वपूर्ण होने का अहसास कराता था। गर्मी की छुट्टियां जब खत्म होंगी, तब बच्चे अपनी नानी के घर और वहां के बाग-बगीचों से आम के खट्टे-मीठे स्वाद और अनुभव लेकर, उनसे समृद्ध होकर लौटेंगे और फिर अपनी दुनिया में रम जाएंगे। इस बीच नाना-नानी के अलावा अन्य रिश्तेदार भी इंतजार करेंगे कि कभी बच्चे आकर उनके घर-आंगन में भी जीवन भर दें।