कभी व्यक्ति थक या हार जाए तो कभी ऐसा होता है कि जीवन के सामने अंधेरा घिरने लगता है। ऐसे समय में विवेकवान लोग यह सलाह देते हैं कि आशा और हौसला कायम रखा जाए तो हारी हुई जिंदगी को वापस हासिल किया जा सकता है। यों हर आदमी जीवन के प्रति आशावान बने रहना चाहता है और यह जरूरी भी है, क्योंकि यही आशा हमें सफलता के उजाले की ओर लेकर जाती है। मगर आज भी समाज में कुछ लोग अंधेरे हिस्से में अपना जीवन गुजारते हैं, जिनमें आशा की किरण पहुंचना नामुमकिन-सा लगता है। उनमें से कुछ महिलाएं हैं, दलित हैं, बेरोजगार और गरीब हैं। हममें से ज्यादातर लोग समाज के बेहतरीन हिस्सों और अवसरों को जीएं और अभाव की मार से वंचित लोग अपने हिस्से की रोशनी की तरफ भी न जा पाए, यह ठीक नहीं है। इंसानियत के नाते सोचें तो क्या हमारा उनके प्रति कोई फर्ज या जिम्मेदारी नहीं है?
अगर सुविधाओं से भरपूर जीवन जीने वाला इंसान अपने आसपास के निराश लोगों को आशा की किरण दिखाए तो निराशा का अंधेरा उसका शायद कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा। मगर कई बार ऐसा लगता है कि हम स्वार्थ के पुतले हैं। हम सोचते हैं कि कोई वंचना का मारा व्यक्ति किसी भी हाल में हो, उसकी समस्याओं से हमें क्या मतलब! ऐसे भी घरेलू हिंसा से पीड़ित औरत, बेरोजगारी की आग में जलता युवा, गरीब की मजबूरी और दलित का सम्मान जैसे विषयों की समाज अनदेखी कर देता है।
अनदेखी समाज को पड़ रही महंगी
हालांकि यह अनदेखी समाज को महंगी पड़ रही है। अत्याचारी लोग लगातार समाज के इस दबे-कुचले हिस्से को और दबाते हैं, ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। ऐसे लोग अपनी पूरी ताकत से कोशिश करते हैं कि स्त्री कभी सिर उठाकर जी नहीं सके, गरीब हमेशा गरीब बना रहे। वे बस इतना चाहते हैं कि उनका अपना धन और वर्चस्व बढ़ते रहना चाहिए। जबकि तथ्य यह है कि इस तरह के लोग केवल यहीं नहीं रुकते। वे एक मोर्चे पर समाज के किसी हिस्से का दमन करने के बाद फिर अपने आसपास भी वही करना शुरू करते हैं। एक समय खुद को सुरक्षित और ऐसे लोगों से खुद को फायदे में मानने वाले लोग भी बाद में शिकार बनते हैं। ऐसे माहौल में क्या उचित कदम उठाया जा सकता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
अगर हम किसी की आर्थिक मदद नहीं कर सकते हैं तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि किसी के सम्मान से उसे वंचित न करें। हम उन्हें भावनात्मक संबल दे सकते हैं। कई बार इस तरह के भावनात्मक संबल ही पीड़ित व्यक्ति को उनकी स्थितियों से बाहर लाने में सक्षम बना सकते हैं। यह भी एक प्रश्न है कि यह भावनात्मक संबल किस रूप में और कैसे दिया जाए। बातचीत या संवाद एक ऐसा जरिया है, जिसके तहत हम लोगों को भावनात्मक रूप से सबल बना सकते हैं। बातचीत में थोड़ी-सी संवेदना और प्रेम का प्रदर्शन किसी दुख से जूझते व्यक्ति के घावों को भरने सहायक सिद्ध हो सकता है।
आशा की एक किरण
आज अगर कोई आत्महत्याओं की जड़ को खोजे तब इसका कारण पता चलेगा कि कोई किसी की नहीं सुनना चाहता। पहले आदमी अपनी साधारण समस्याओं से जूझने की कोशिश करता है। फिर जब उसे लड़ाई अपनी सीमा से बाहर जाती हुई दिखती है तो वक्त पर किसी का साथ नहीं मिल पाता। ऐसे में लगातार वह अकेला पड़ता जाता है और अकेले ही अपनी मजबूरियों के साथ खत्म हो जाता है। उसकी आवाज अगर कोई समय पर सुन ले तो उसे आसानी से मृत्यु का विकल्प चुनने से बचाया जा सकता है। बीमारी चाहे मानसिक हो या शारीरिक, आशा की एक किरण मरीज को मुश्किल या जटिल हालात से उबार ले जाने में सक्षम होती है।
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कोई भी विवेकवान इंसान बेहतर और संवेदनशील समाज में रहना चाहता है। इस नाते अगर वह इसकी अहमियत को समझता है तो उसका सबसे यही अनुरोध होगा कि चाहे हम किसी को आर्थिक, शारीरिक मदद न कर पाएं, लेकिन उसको भावनात्मक आधार देकर हम उसे एक नया जीवन देने में सक्षम बना सकते हैं। इसके लिए किसी खास वक्त का इंतजार करने के बजाय किसी सही और जरूरतमंद इंसान की पहचान कर तुरंत ही शुरुआत की जा सकती है। उनके पास जाकर यह देखा जा सकता है कि उनकी क्या समस्या है और वे कैसा महसूस करते हैं? इस तरह शायद हम उनकी मदद तो कर ही पाएंगे, साथ ही समाज को भी एक बेहतर और सभ्य दिशा देने में समर्थ हो पाएंगे।
इंसान समाज का होता है आईना
बस एक आशा की किरण जगाने भर से कई लोग अपने-अपने घरों को रोशन कर ले सकते हैं। हम संकल्प कर सकते हैं कि न केवल खुद के भीतर, बल्कि अपने आसपास जहां और जिस तरह हमारी पहुंच हो, उनके भीतर भी आशा न टूटे, निराशा न आए। इस बात की जरूरत है कि हम अपने भीतर के सारी दूरी, विभाजन और वैमनस्य को भूलकर समाज के साथ जुड़ें।
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यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इंसान समाज का आईना होता है। उसकी तरक्की से ही समाज की तरक्की जुड़ी हुई है। अगर कोई व्यक्ति समाज में पिछड़ा हुआ रह जाता है तो उस समाज की तरक्की पर सवालिया निशान लगता है। उसे वास्तविक तरक्की नहीं माना जा सकता। एक छोटे बच्चे से लेकर, समाज का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति भी समाज का एक जरूरी हिस्सा हैं। समाज के इन हिस्सों के प्रति लापरवाही से भरा दृष्टिकोण समाज को पिछड़ेपन की ओर ले जाता है। हमारा यह कर्तव्य है कि हम लोग समाज को दिशा दिखाएं। मुश्किलें तो आती रहती हैं, मगर विवेक से लैस मनुष्य उन्हें चुनौती की तरह देखता है और उससे निपटता है। बस एक संकल्प रहे कि अपने आसपास किसी भी इंसान को जीवन की दौड़ में पीछे नहीं छूटने देंगे। आशा की यह किरण हमारी दुनिया को रौशन कर सकती है।