मीना बुद्धिराजा

अपने को बहुत बचा कर रखने की कोशिश और सुविधाओं के आवरण में रहने की अभ्यस्त एक कृत्रिम जीवन शैली में जीवन की बहुत-सी संभावनाओं को हम खो देते हैं। इस आरोपित संस्कृति में जब अपने को भौतिक रूप से भरा हुआ और बड़ा समझने लगते हैं तो बहुत से नए और असंभव विकल्पों को देखना नहीं चाहते।

अगर थोड़ा अंदर, नीचे और गहरे जाएं चेतना के स्तर पर, अपनी प्रकृति और मानवीय स्वभाव के अनुरूप, तो जीवन की बहुत-सी धाराएं हमारी ओर प्रवाहित होने लगती हैं। बहुत से बंधन खुलते ही नए आयामों का विस्तार होने लगता है और संघर्ष तथा चुनैतियों से किसी नए रास्ते पर चलने की प्रेरणा और संकल्प शक्ति भी स्वत: जागृत होती है।

ये सभी धाराएं जीवन की शुष्क भूमि को अनेक अनुभवों से संपन्न करके उसे रससिक्त कर देती हैं और उसकी उर्वर संभावनाओं को नष्ट होने से बचा लेती हैं। सागर की तरह गहरे और विराट होने पर जैसे सभी नदियां उसमें समाहित हो सकती हैं। इसलिए अपने अस्तित्व को भी विशाल करना होगा, जिसके लिए बहुत-सी संकीर्ण महत्त्वाकांक्षाओं और जरूरतों के फैलाव से खाली करके उनसे मुक्त होना जरूरी है।

जीवन और मानवीय स्वभाव का प्रकृति और दुनिया के साथ सामंजस्य, तालमेल, संगीत का संबंध है। यह विराट घटना है, लेकिन फिर भी इस आंतरिक संगीत को अक्सर हम सुन नहीं पाते। दार्शनिक लाओत्से का कथन है कि ‘जीवन के बहुत से संघर्ष, द्वंद्व और विरोधाभासों में भी संगीत का संबंध सध जाता है और अगर बहुत से कृत्रिम बंधनों से मुक्त हो जाएं तो यह अनुभूति सतत हो सकती है।

स्वयं और शाश्वत के साथ जो संगीत सध गया है, उसमें इतनी संतुष्टि है कि बहुत से दुख और विफलताएं भी झूठी और व्यर्थ प्रतीत होती हैं।’ अधिकतर लोग व्यर्थ के दिखावों में, एक असंतोष की अनुभूति में ही जीते हैं, बहुत कम इस बात को समझ पाते हैं कि अंतिम विकल्प भी पहला और महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

नियति सभी को प्रतिपल यह अवसर देती और एक मौन स्वर में सबको बुलाती है, जो उसके स्वभाव और प्रकृति के अनूरूप है, लेकिन बाहर के निरंतर शोर के अभ्यस्त परिवेश में इस आंतरिक संगीत को सुनने का प्रयास प्राय: समाप्त हो जाता है। जो संभव है और सहज रूप में उपलब्ध है उसे उपेक्षित करके असंभव और नकली को पाने की कोशिश में जीवन का अर्थ कभी समझ नहीं पाते। सब भीड़ के अनुकरण में एक लीक पर चलते हुए पराधीनता के सांचे से बाहर निकलने का प्रयत्न नहीं करना चाहते और यही असामंजस्य मनुष्य और चेतना के इस संगीत के संबंध को तोड़ देता है।

जितना बाहर से अपने को खाली और मुक्त करेंगे उतना ही इस संगीत और आंतरिक चेतना के स्वर को सुन सकेंगे। अपने भीतर के सौंदर्य से भरे और समृद्ध होंगे, व्यर्थ चीजों को पकड़ने की जरूरत कम से कम पड़ेगी। स्वयं से जितना मुक्त रहेंगे उतना ही दूसरे को भी मुक्त रखना चाहेंगे। बाहर से जो कुछ प्राप्त किया है वह उतना महत्त्व का नहीं है, क्योंकि इससे व्यक्तित्व को इतना भर दिया गया है, समझौते की कीमत पर सफलता के लिए, प्रतिस्पर्धा की निरर्थक दौड़ में सबसे आगे निकलने के लिए, आरोपित और नकली दबावों की घुटन में जीने के लिए कि जीवन के असली अर्थ से ही हम बहुत पीछे छूट जाते हैं।

जब इन छोटे, नीरस और सीमित खंडों में जीवन का प्रवाह रुक कर बंट जाता है, तो उस विराट सत्य के सरस संगीत को सुनने की प्रक्रिया भी बाधित हो जाती है। इन संकीर्ण उपलब्धियों पर जब हम पूरे जीवन का निर्णय करते हैं, तो अपने अस्तित्व के सर्वश्रेष्ठ को नहीं पकड़ पाते और इसकी बहुमूल्यता का बहुत गलत आकलन करते हैं।

क्योंकि जीवन स्वयं में इतना समग्र और अखंड है कि इन खंडों के आधार पर जीवन को चरम परिणति तक नहीं पहुंचा सकते। सफलता-विफलता के पैमाने से ऊपर अपनी संभावनाओं को खोज कर उसको स्वीकार करना है। इसलिए जो बाहर से अपने को बहुत भर लेगा वह अंदर से मानवीय स्तर पर खाली होगा। इस बाहरी अस्थिरता के कोलाहल में वह अपने उस मौन, शांत संगीत के स्वर के आनंद को अनुभव नहीं कर पाएगा, जो निरंतर उसके जीवन में प्रवाहित होता रहा है।

एक विचारवान जीवन अपने आप में इतना परिपूर्ण है कि वह संकीर्ण बंधनों में रहने, पराधीनता के खांचे में जीने, सतही और खोखली महत्त्वाकाक्षांओं के बोझ को ढोने के लिए अभिशप्त नहीं है, क्योंकि उसकी प्रकृति ही सहज, स्वतंत्र और मुक्त रहने की है। इसलिए जीवन के अर्थ की पहचान और सार्थकता के बोध का महत्त्व उसके लिए सबसे पहले है और वही इसकी मौलिक और मूल्यवान उपलब्धि है।