उनका जन्म कर्नाटक के धारवाड़ शहर में एक देवदासी परिवार में हुआ था। उनके पिताजी एक किसान और मां अंबाबाई कर्नाटक शैली की शास्त्रीय गायिका थीं। उन दिनों समाज में जातिवाद बहुत प्रबल था। अपनी जीवनी में गंगुबाई बतातीं हैं- ‘मुझे याद है कि बचपन में किस प्रकार मुझे अपमानित होना पड़ा था, जब मैं एक ब्राह्मण पड़ोसी के बगीचे से आम तोड़ती हुई पकड़ी गई थी। उन्हें आपत्ति इससे नहीं थी कि मैंने उनके बाग से आम तोड़े, बल्कि उन्हें आपत्ति थी कि क्षुद्र जाति की एक लड़की ने उनके बगीचे में घुसने का दुस्साहस कैसे किया? आश्चर्य है कि अब वही लोग मुझे अपने घर दावत पर बुलाते हैं।’
उनकी प्राथमिक शिक्षा समाप्त होने के बाद 1928 में उनका परिवार हुबली शहर में रहने लगा, जहां ‘कृष्णाचार्य संगीत अकादमी’ में उनकी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा शुरू हुई। गंगूबाई 1929 में सोलह वर्ष की आयु में देवदासी परंपरा के अंतर्गत अपने यजमान गुरुराव कौलगी के साथ बंधन में बंध गर्इं। पर चार वर्ष बाद ही गुरुराव की मृत्यु हो गई और वे अपने पीछे गंगूबाई के साथ दो बेटे और एक बेटी छोड़ गए। उन्हें कभी अपने गहने तो कभी घर के बर्तन बेच कर अपने बच्चों का पालन-पोषण करना पड़ा।
गंगूबाई में संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था। अपने बचपन के दिनों में वे ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़तीं और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थीं। अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच. कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे। गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षाओं के बारे में एक बार कहा था कि ‘मेरे गुरुजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है। उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो… ताकि श्रोता राग की हर बारीकी के महत्त्व को समझ सके।’
वहां उन्होंने पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली थी। किराना घराने की परंपरा को बरकार रखने वाली गंगूबाई इस घराने और इससे जुड़ी शैली की शुद्धता के साथ किसी तरह का समझौता किए जाने के पक्ष में नहीं थीं। उन्होंने एक बार कहा था कि मैं रागों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और धीरे-धीरे खोलने की हिमायती हूं, ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतजार करे। 1945 तक उन्होंने खयाल, भजन तथा ठुमरियों पर आधारित देश भर के अलग-अलग शहरों में कई सार्वजनिक प्रस्तुतियां दीं। वे आल इंडिया रेडियो में भी एक नियमित आवाज थीं। वे भारत के कई उत्सवों-महोत्सवों में गायन के लिए बुलाई जातीं थीं। 1945 के बाद उन्होंने उप-शास्त्रीय शैली में गाना बंद कर केवल शुद्ध शास्त्रीय शैली में रागों को गाना जारी रखा।
गंगूबाई हंगल को कर्नाटक राज्य तथा भारत सरकार से कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। 1962 में कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार, 1971 में पद्म भूषण, 1973 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, 1996 में संगीत नाटक अकादेमी की सदस्यता, 1997 में दीनानाथ प्रतिष्ठान, 1998 में मणिक रत्न पुरस्कार तथा 2002 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वे कई वर्षों तक कर्नाटक विश्वविद्यालय में संगीत की प्राचार्या रहीं। 2006 में उन्होंने अपने संगीत के सफर की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाते हुए अपनी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी।